Tuesday, February 3, 2015

सीता के बहाने युगीन चिंता---समीक्षा - श्री अरुण होता



सीता के बहाने युगीन चिंता
--------------------------------
अनिल कुमार पुरोहित के अब तक चार कविता संग्रह हो चुके हैं - ’ शहर की पगडंडी’, ’ अंतःपुर की व्यथा कथा’, ’तहखाने का अंधेरा’ और ’सीता का सफ़र- वाल्मीकि तक’ । अनिल की कविताओं में परंपरा के प्रति विशेष आग्रह है, लेकिन दुराग्रह नहीं। इनमें परंपरा से मूल्य की यात्रा है। मानव मूल्यों का सर्वाधिक महत्व है। यहाँ तक पहुंचने के लिए परंपरा का ज्ञान उसके प्रति आदर भाव आदि अत्यंत आवश्यक है। इसे कवि भली भाँति जानता है। आज के उत्तर आधुनिक समय मेँ पुरा-कथा को, अतीत को बार बार झूठा साबित किया जा रहा है अनिल इसके पक्ष मेँ नहीँ है। पुराणों, उपनिषदों तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों की कथाओं, घटनाओं, प्रसंगोँ को आधुनिक संदर्भ से युक्त करने की कला मेँ उन्हें विशेष सफलता हासिल हुई है। इसलिए अनिल के लिए पुराकथाओं की आवश्यकता है तो इनकी प्रासंगिकता भी।
आज का समय भूमंडलीकरण का है। इस दौर में निजीकरण और उदारीकरण के नाम पर पूंजीवादी शक्तियाँ मजबूत हो रही हैं। बाजारवादी अवस्था मेँ पूंजी सर्वाधिक प्रभावशाली साबित हो रही है। हमारे सारे मानवीय नाते - रिश्ते पूंजी के समक्ष बौने साबित हो रहे हैं। पूंजी को केवल मुनाफा चाहिए। इस मुनाफा के लिए वह सत्ता को अपने कब्जे मेँ कर लेती है। इस मुनाफा के लिए वह भाइयों को, जातियों को, धर्मों को आपस में लड़वा सकती है। सांप्रदायिक एकता का बीज - वपन ही नही, उसकी विष ज्वाला से मनुष्य और मानवता की हत्या करवा सकती है। धार्मिक उन्माद को बढ़ावा दे सकती है। उपभोक्ता वादी समय में’ यूज एंड थ्रो’ नई संस्कृति पनप रही है। इस दौर में सभी वस्तुएँ प्रोडक्ट ही हैं। मनुष्य भी प्रोडक्ट है। एक ही मूल्य मूल्य जीवित है और वह है वस्तु की कीमत, बाजार का मूल्य। ऐसी स्थिति मेँ साहित्यकार का दायित्व बढ़ जाता है। वह कराहती, छटपटाती, दम घोटती मानवता की रक्षा के प्रयास मेँ अतीत की ओर उन्मुख होता है, पुराकथाओं को नए सिरे से पाठ करता है। उन्हें नये संदर्भों से युक्त कराता है। युगीन चिंताओं, समस्याओं, विसंगतियो तथा विडंबनाओं से निजात पाने के लिए पुरा कथाओं के माध्यम से अपना अनवेषण जारी रखता है। युगानुकूल चिंतन की खोज करता है। कवि अनिल कुमार पुरोहित ने भी अपने रचना संसार मेँ यह काम करने का पूरा प्रयास किया है। उपभोक्तावादी समाज में दांपत्य प्रेम बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। समाज में अल्ट्रा मॉडर्नटी के नाम पर विवाहोत्तर संबंधोँ को बड़े जोर शोर से साहित्य विषय बनाया जा रहा है। यूं कह सकते हैँ कि समाज में अराजकता फैलाने वाले परिवारोँ को तहस नहस करने वाले इस तत्व को प्रोमोट किया जा रहा है। इस विध्वंस को अनिल समझते हैँ। इसलिए ’सीता का सफर - वाल्मीकि तक’ का समर्पण पत्नी रीनू के नाम है। एक उन्नत संस्कार है यह। सीता और राम कथा के माध्यम से अपने संस्कार को अधिक विकसित्किया है। संपूर्ण रामायण कवि प्रेम से संग्रथित और संगुफ़ित मानता है। क्रौंच पक्षी  से ले कर लव कुश का रामायण गायन की कथाओं मेँ प्रेम को ही सर्वोपरि माना गया है। कहना ना होगा कि आज के विश्व में इस प्रेम की सर्वाधिक  आवश्यकता है। कवि का मानना है कि, प्रेम के प्रसार से युग की अधिकांश समस्याएँ सुलझ सकती हैं। प्रेमपूर्ण माहौल मेँ शांति संप्रीति और सौहार्द की दुनिया हो सकती है।
कवि के मन मेँ एक सवाल बार बार कचोट्ता है - ’प्रभु श्रीराम जिन्होंने नारी की मर्यादा हर घड़ी रखी, मंथरा का मान रखा, माता कैकई का आशीर्वाद लिया, शबरी के जूठे बेर खाए, अहिल्या को उद्धारा - फ़िर सीता को सुनी सुनाई बातोँ पर पल में त्याग दिया। (पृष्ठ-६) पुस्तक का बड़ा भारी भारी अंश इस प्रश्न के उत्तर हैतु समर्पित है। जनक, वाल्मीकि आदि के माध्यम से इस प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
उत्तर आधुनिक समय मेँ सीता और राम का चित्रण उत्तर आधुनिक विमर्शों के आधार पर नहीँ किया गया है। सीता और राम के अलौकिक रुप के चित्रण मेँ कवि का मन उतना रमा नहीँ मिलता। ऐसा सर्वथा उचित भी है।  युगीन सोच को महत्व देते हुए प्रतिकूल समय मेँ उनके कर्तव्य को सही तथा अनुकरणीय बताया गया है। राम ओर सीता आज के सामान्य पुरुष और स्त्री के रुप मेँ अधिक चित्रित हुये हैं। सामान्य मनुष्य की भाँति राम ओर सीता भी दुःखी होते हैँ। विचलित होते हैं। लेकिन यह दुःख ओर विचलन दीर्घ अवधी के लिए नहीँ ठहरते।
सीता वनवास से लेकर वाल्मीकि की कुटिया मेँ जनक राज के प्रवेश की कथा कुल दस खंडो मेँ विभाजित करते हुए अनिल ने एक चुनौती भरा कार्य किया है। पुस्तक की दूसरी पंक्ति - ’मेरे सवाल का जवाब चुप्पी नहीँ तुम्हारी’ केवल लक्ष्मण से सीता का सवाल नहीँ है। बल्की स्त्री जाति का पूरे युग से सवाल है। स्त्री के प्रश्न या तो अनुत्तरित  रहते हैं अथवा उसे बहलाने का प्रयास होता है। समाज और युग में भयानक चुप्पी छाई रहती आई युगों से, अनंत काल से। उसकी हर एक पुकार सुनकर भी अनसुनी कर दी जाती है। उसके प्रश्न भी पूरे नहीं करने दिया जाता है। अधूरे रह जाते हैँ। वे सारे अधूरे सवालोँ से दिगमंडल मेँ गूंज धे हैं। कवि ने सीता के माध्यम से अपने नारी चिंतन का स्वरुप प्रस्तुत किया है-
’सुनी अनसुनी करो या देखी-अनदेखी,
ना बदलते प्रश्न ना बदलती परिस्थिति।’ (पृ-१३)

नारी को अपने प्रश्नोँ के उत्तर चाहिए। वह अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के माध्यम से परिस्थिति को अपने वश मेँ करना चाहती है। कवि की सीता बोल्ड है। उसमेँ आत्मविश्वास की भावना कूट कूट कर भरी हुई है।
’करना ही है सामना मुझे इन प्रश्नोँ का
तलाशना होगा उत्तर।
मुझे ही बदलनी होगी परिस्थिति।’

हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि समाज मेँ नारी को ही सीमाओं के घेरे में रहना पड़ता है।उसे ही दबाया जाता है। उस का शोषण होता है। दमन किया जाता है। अपहरण किया जाता है। सारा दोष नारी के मत्थे पर लाद दिया जाता है। नारी इसे समझ चुकी है। वह अबला नहीँ है। अपने मान, सम्मान तथा स्वाभिमान के प्रति वह जागरुक है। कवि ने सही लिखा है
’यही तो होता रहा आज तक
सीमाएँ, रेखाएँ, लपटें यही सब तो देखा मैंने
क्या यही सब होता - हमारे लिए
आतताई रावण से बचने का यही एक मार्ग
क्यों समझे हम अबला
कुछ भी नहीँ मान हमारा?’ (पृ: १५)

यह नारी जब देखती है कि प्रेम, श्रद्धा, मान का छलावा उस पर किया जाता है। दूध मेँ गिरी एक मक्खी की तरह से उठाकर फ़ेंक दिया जाता है। एक  चेहरे में कई चेहरे समाये रहने का एहसास होता है। उसके अधिकारोँ का हनन होता है तब नारी की अस्मिता जागृत हो उठती है। उसकी आंखोँ के सामने लगा हुआ पर्दा हट जाता है । उसमें आत्मगौरव की भावना बलवती हो उठती है। वह मर्दवादी व्यवस्था की चालाकीयों को दुनिया के सामने खुल कर रख देती है। कवि अनिल ने ऐसी ही नारी का चित्रण किया है जो सचेत तथा प्रगतिशील है।
अनिल कुमार पुरोहित की नारी परंपरा और आधुनिकता के सुंदर समन्वय से निर्मित हुई है। वह केवल अधिकार के लिए लड़ना नहीँ जानती है, बल्की आत्मविश्लेषण भी करती है। सोचती है कि शायद कोई दोष उसमेँ रह गया है। यह नारी प्रेममयी है। उसके लिए प्रेम सर्वोपरि है। अपनी प्रेम के लिए वह मर -मिटने को तैयार है। प्रेम को कलंकित करना के लिए सबसे बडा गर्हित काम है।  वह तो केवल इतना जानते है
’मैँ तो सिर्फ आपकी, सिर्फ़
आप मेरे। (पृ:२४)
’उनके दुःख से - क्या मैं हो सकती सुखी
फिर मेरे दुख से- वो कहाँ होंगे सुखी?’ (पृ:६६)

अपने प्रेम पर अगाध विश्वास होना युगीन मांग है। बिना इसके आज परिवार टूट रहै हैं। बिखर रहे हैं। संदेह के चक्रवात से पारिवारिक जीवन करुण रस त्रासद में तब्दील हो रहे हैं। एक बात और है उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से कवि ने बिना कुछ कहे इतना कुछ कह दिया है कि इससे कवि सामर्थ्य का पता चलता है। प्रेम की व्यापकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। सीता अपने प्रेम में जीती है। परंतु उसकी स्पष्ट घोषण भी है -
’नहीँ - मैं राजमाता, मैं नहीँ राजेश्वरी
ना मैं असहाय, ना मैं दया की पात्र’ (पृ:२९)

यहाँ सीता आधुनिक युग की नारी है। जिस धोबी के चलते सीता को वनवास मिला उसे नारी हृदय की पवित्रता के बारे मेँ बताती है
’नारी हृदय एक स्वच्छ दर्पण
प्रेम, त्याग, उसका समर्पण
नहीँ सूखे तृण समान
हल्के झोंके पर उड़ा दो जिसे।’ (पृ:३३)

राम अपने अनुज लक्ष्मण से सीता को वनवास देने का कारण बताते हैं-
’प्रेम इन सबसे सर्वोपरि
चिरंतन, सीमाहीन, गतिशील
जनक दुलारी के प्रेम में
उस के हित मेँ -लिया ऐसा निर्णय। (पृ:४७)

और भी
’नियम से चलती संस्थाएँ
धर्म से समाज
प्रेम से चलता, सारा कालचक्र।’ (पृ: ४९)

जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है ’सीता का सफर - वाल्मीकि तक’ कवि का युगबोध साकार हुआ है। रामायण के विभिन्न पात्र तो बहाने हैँ। मूल बात तो युगीन चिंता है। युग में निम्न सोच, निर्ममता, मिथ्यावादिता का बवंडर प्रवाहित हो रहा है। कवि लिखता है-
’मिथ्यावादीयों की निर्ममता
क्तों भेदती सत्य का हृदय?
बार-बार सिर्फ प्रमाण चाहती
नग्न सत्य को- अर्धनग्न झूठ का लिबास पहना
सदियों तक नोंचती, उलाहना देती।’ (पृ:७४)

कैसा समय आ गया है कि उल्टा सर्वत्र तो भीड़ है, लेकिन मदद का हाथ कोई आगे नहीँ बढ़ाता। समय की इस विडंबना को कवि के शब्दोँ मेँ
’कोई दे नहीं दे सकता साथ
किसी का भी, नहीं अभिप्राय यहाँ
एक जूझ है- अपने आप से
इस समाज से, इस कलुषित मापदंड से।’

राम के अंतर्द्वंद को शिव के माध्यम से सुलझाने के क्रम मेँ नारी की महिमा के साथ-साथ समाज में उसके स्थान पर भी विचार किया गया है। नारी अगर कहीँ दुश्चरित्र हो तो उसकी वैसा बनाने मेँ सौ पुरुषों का हाथ होता है। अगर नारी पति द्वारा त्याग दी जाए तो वह पूजनीया होती है। लेकिन, यदि पत्नी द्वारा परित्यक्त पति हो तो -
’पर नारी परित्यक्त पुरुष हो जाता नपुंसक समान
गँवा देता समाज मेँ मान सम्मान।(पृ:९५)

इसलिए शिव का आप्त वचन है यदि कोई नारी पर उँगली उठाये तो वह उतना ही दोषी होता है। अनिल लिखते हैं:
’जब भी कोई उठाएगा- उँगली नारी पर
तो होगा उतना ही दोषी-
जब झाँकेगा अपने गिररेबान।
यह झलक - नारी शोषण के खिलाफ़
यह निर्णय- नारी प्रताड़ना के विरुद्ध
यह त्याग- नारी समता की पराकाष्ठा।’ (पृ: ९५)

कवि के मन मेँ उठने वाले प्रश्नोँ का समाधान यहाँ कर दिया गया है कि राम द्वारा सीता का परित्याग नारी शोषण नारी निर्यातना के खिलाफ़ है। नारी के  समान अधिकार के लिए लिया गया निर्णय है।इससे सभी सहमत नहीँ होंगे लेकिन कवि ने अपनी ओर पूरी से इमानदारी के साथ इस कथ्य को प्रस्तुत किया है।
सीता बनवास के पश्चात जनक के अयोध्या आगमन के प्रसंग में कवि ने कई महत्वपूर्ण विषय की ओर इशारा किया है। जैसे राम राज्य की कल्पना। यह एक सोच है, आज के भ्रष्टाचार भरे समय मेँ राम की परिकल्पना को साकार करने का प्रयास हो तो दुनिया खुशहाल हो जाएगी।
आ नैतिक रुप से पतनशील समाज तमाम पुरानी चीजो को ठुकराने मेँ लगा हुआ है। जिस समाज मेँ नैतिक मूल्योँ का हनन हो वहाँ शांति, प्रगति और समृद्धि स्वपवत हो जाती हैं। मनुष्य जब नैतिक दृष्टि से पतनशील हो जाता है वह जो कुछ भी बन जाए लेकिन मनुष्य पदवाच्य नहीँ रह जाता। इससे सामाजिक ढाँचा चरमरा जाता है। भ्रष्टाचार फ़लने - फूलने लगता है। पूरे समय मेँ अराजक तत्वों की बढ़ोतरी होने लगती है। कवि ने इस स्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त की है-
’पतन हो रहा अब नैतिक मूल्यों का
ढह रहा ढांचा समाज का अब
व्यर्थ नीति नियमों को उघाड़ते
दुहाई दे नैतिकता की....
अपने ही कुकर्मों को ढाँप रहे
बना नये खोखले माप दंड।’ (पृ:१०७)

कवि ने सामाजिक दुर्दशा के कारणों को अन्वेषित किया है। सामाजिक यथार्थ के बिंबों को भी अंकित किया है। उसका एक स्वप्न है कि जाति, वर्ग और संस्कृति के लोग सद्भाव और सौहार्द की डोर से गूंथे रहे। भारतीयता के मूल मंत्र में दिक्षित हों। सद्गुणों का सम्मान हो और दुर्गुणों की निंदा हो। सभी कर्मरत हों।  सब को समान अधिकार हासिल हो। मानव धर्म का सर्वत्र आदर हो। नारी का सम्मान हो। मानव मूल्योँ के प्रति लोगों का आकर्षण बना रहे। समय और समाज की तमाम विसंगतियाँ, उलझनें और समस्याएँ दूर हों। सपने को पूरा करने के लिए अपने को, अपने अतीत को, परंपरा को, वर्तमान को जानना, समझना और हृदबोध करना जरूरी है। युवा कवि की यह सोच और चिंतना हमें आस्वस्त करती हैं कि तमाम भयानकता और विभीषिकाओं से मुक्ति पाने के द्वारा अवरुद्ध नहीँ हो गए हैँ, अब भी प्रबल संभावनाएँ बनी हुई है।
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
अरुण होता
प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष
हिंदी विभाग
पश्चिम बंगाल राज्य विश्व विद्यालय
बारासात
कोलकाता- ७००१२६
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------