Tuesday, July 21, 2015

प्रेम

प्रेम

30  04  15

शाम का धूँआ-धूँआ स
घाटी के चारों तरफ पहाडियाँ
अधनंगे से नीले काले धरे रूप
काट ली गयी फसलें।
कुछ इंसानों के काम संजोई गयीं
तो कुछ मवेशियों के लिए।
बचे रह गए ठूँठ
उड़ रहे -पंछी चहकते से
होड़ लगाने टुकड़ी बदली के
बस कुछ देर की बात
फिर सन्नाटा ही सन्नाटा।
गुबार सा उठता, उफनता-घुल जाता हवाओं में
बुलबुले सा पल में-मिल जाता पानी में
छोड़ जाता हल्की सी कंपन
समो लेती धरती-थरथर्रा जाती
बहा ले जाती हवाएँ-थरथर्राहट
टकरा पहाड़ियों से गूँज बन उभरती।

धर्म


धर्म
30  04  15
जाल एक बिछा रास्तों का
क्या गगन, क्या जमीन, क्या सागर।
मंजिल की धुन में
हर तरफ-चले जा रहे काफिले
कुछ सवार हो तो कुछ पैदल
मंजर से बेखबर।
मंजिलें कब किसे मिली
रास्ते कब किसी के हुए
फिर भी नहीं चूकते-जोर आजमाने से।
बहुआयामी बहुरंगी -चक्र एक घूम रहा
पल-पल रंग आकार नए दे रहा
कोई विस्मित,तो कोई अचंभित।
टटोलते फिर रहे हथेलियों से अपनी
हथेली जो उगा रखी पांच उंगलियाँ
बिछा रखी जाल लकीरों का
बंद हो कभी भींच जाती उंगलियाँ
ढाँप देती सारी लकीरें।
बसा नाखूनों पर- पाँच सिरों का सर्प
बँधी मुठ्ठियों की शक्ति में
कुलबुलाता, गुदगुदाता।
खुलते ही मुठ्ठी-अपना रंग दिखाता
सारे फन खोल फनफनाता
उगलता गरल विकट
कर देता सारा तन सुन्न
देख पंचमुखी सर्प - हर कोई
सम्मोहित सा उसके वशीभूत।
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दर्शन

दर्शन
30  04  15

कागजों पर खींच लकीरें आड़ी तिरछी
निहोरते अपलक-उभरे कोई तस्वीर
थपथपाते रहे हवाओं को बदहवास
सुनाई दे कोई संगीत।
तस्वीर कोई भी उभरे-बेखबर
सुर कोई भी सजे-अनजान।
लकीरों के बीच से -उतार लेते तस्वीर
खामोशियों से ही-सजा लेते संगीत।
अपनी ही तूली से अपने ही रंग सजाते
अपने ही शब्दों से अपनी ही तरंग।
कुछ वक्ता तो कुछ श्रोता तो कुछ दर्शक
इन्हीं का बना जमघट।

एक और...



एक और...
24. 05. 15

ढूँढ रहा समरांगण में
क्षत विक्षत भीष्म
अपना एक कोना।
डगमगाते कदम- ढोते बोझ अपना ही
थरथराते होंठ-कुछ कहने को तत्पर।
जब तब ना सुना
अब सुने कौन?
विस्मित समय की चाल पर
जो गुजर गया चाल नदी की चल
अब बस मुहाने पर
मिल हो जाना विलीन।

गोद में इस अनंत सागर
हिलोरें ले रहा अनवरत
भेज रहा लहरें अगिनत
इंतज़ार एक रहा  - युग इन्हें
इस मधुर मिलन की वेला का।
Xxxx XXXX XXXX
ठोकर लगी पाँव से 
लुढ़कता देखा सर किसी का
देखने भर को अब मन नहीं
मिलते थे कभी आलिंगन तत्पर
निगाहें फेर देखा- 
कहीं कोई कृष्ण ना दिख जाए
सुनाने लगे, फिर गीता के वचन।
अब भी गूँज रहे -
विकल कर रहे मन।
अमृतमय लगे - इस महासमर से पहले
उन्हीं पर परवाज चढ़
दी तिलांजली -सारे रिश्तों को
भूलाया सारा -अपनापन।
सब उसका खेल- हम निमित्त मात्र
सब उसी में समोना-हम तृण समान
सब उसी का रचा-हम तूली सम।
एक नशा सा भर दिया
सारे रग-रग में
परत एक बिछा दी-उन बातों ने
इन ज्ञानेन्द्रियों के चहुँ ओर
सब कुछ हो गया सुन्न
अब सब कुछ शून्य।
लुढ़क जाने दो सर
जो मर गए - शायद तर गए
जो बच गए- उनसे बदतर।
XXXXX.   XXXXXXX    XXXXX
टप-टप कर बह रहा रक्त
जाने कितना भरा पड़ा-इस तन
जो ढूँढ रहा अब तक
विश्राम करने- अपना एक कोना।
जीवन भर फिरता रहा बेचैन
पिरोता रहा मोतियों की माला।
जब कभी चटख जाते धागे 
बिखर जाते मोती इधर उधर
जोड़ता धागे, बाँधता गाँठें।
रह गयी अधूरी आस मेरी
माला एक पिरोने की।
अब लगा लाशों का अंबार
कोई डूब गयी, कोई तैर रही
रक्त की इस गहरी धार।


सारे शब्द बींध गए
शरीर को मेरे
कभी बही थी स्वेद धार
अब बह रही रक्त धार।
XXXXX.   XXXX. XXXX
मैं बींधा अगिनत बाणों से
सिर्फ देख पाया नपुंसक एक
बना दिया मुझे कर्तव्यच्युत
भूल गया वचन गीता के
और पार होते गए तीर।
सारा अतीत फिर रहा
इन आँखों के समक्ष
पता नहीं एक दुःस्वप्न या सुस्वप्न।
कितनी राहों से गुजरा मैं
उनके अपने ही उतार चढ़ाव
कभी नहीं ठिठका देख
कोई दुराहा या चौराहा।
बल, बुद्धि, सामर्थ्य-
इन्हीं के मेलजोल से
तय करता रहा फासले
हर समय एक समर
और आ पहुँचा इस महासमर।
मिल ओझल हो जाती पगडंडियाँ
कभी उभरती खिली खिली दूब के ओट
तब्दील हो जाती रास्तों में
फिर गुम जाती पेड़ो के झुरमुट।
समय ही कब मिला
सराहने कोई पगडंडी
उलझा दिया रास्तों ने
जो कभी किसी से ना मिले।
मजबूत होती गयी पगडंडियाँ
कमजोर होते गए रास्ते
बँट जाते देख दोराहे
बिखर जाते देख चौराहे।
मैं ही सारथी, मैं ही रथ
मैं ही घोड़ा, मैं ही चाबुक
,मैं ही शस्त्र, मैं ही ढाल
बस रौशनी जुगनुओं के साथ।
XXXXX.   XXXXX.  XXXXX
मेरी आशाएं, मेरी अभिलाषाएँ,
मेरे स्वप्न, मेरे यतन
धूआँ बन तैरते रहे- मेरे इर्द गिर्द
धीरे-धीरे गहराते गए
ढँक दिया आसमान-
छनने ना दी कोई किरण हल्की।
कोई हवा का झोंका तक नहीं
गुजरा मुझे छूकर
तलाशता रहा -अपने आपको
मेरे इस वीरान सफर।
सुनता रहा आवाज काफिलों की
कोलाहल हमसफरों का
बिछड़े देख -बिखरते रास्ते।
काश रौशनी सूरज-चाँद की
तय कर पाती सर्पीले रास्ते
पहुँच जाती क्षितिज से जमीन।
XXXXX.   XXXXX.  XXXXX


लकड़ियाँ जंगलों से बिछड़ गयीं
कुछ दीवारों पर, कुछ खिड़कियों पर
कुछ कमरों की शोभा बनी तो कुछ छतों पर
नंगे पहाड़ों को ढाँपते रहे पत्थर
जो देखते देखते मैदान बन गए।
तराश लिए गए पत्थर
दीवारों, छतों परकटों में
ढाल रह गए पर्वत विशाल।
बसने वाले लोग इनमें, नहीं रहे अछूते
समो ली जंगल की बास
उतार ली पत्थरों की बेरूखी
और बस गए इन मैदान
बन पाषाण, नरभक्ष पशु।
साथ समय की धार
सूने हो गए परकोटे
ढह गयी दीवारें, टूट गयी छतें
ढह गए परकोटे
लग गया लाशों का अंबार
गुम गए लहलहाते जंगल घने
पट गयी अठखेलियाँ करती नदियाँ
अब बस-गूँज रही खामोशियाँ।
वही धुंआ साथ मेरे
वही छिपता सूरज
वही खोया चाँद
और ठोकर में- जाने किसका सर।
XXXXX.   XXXXX.    XXXXX


Friday, June 5, 2015

मेरा गाँव

मेरा गाँव
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मेरा गाँव अब शहर हो गया
कब देखी इसने काली लंबी नागिन सड़कें
कब छुए बिजली के तार।
रोज जो- सना रहता मिट्टी, गोबर में
अब महकाते रंगीन बाजार।
मंदिरों की घंटियाँ, मस्जिदों के अजान
दब रह जाते, लाउडस्पीकरों में
पट गयी बू गाँव की, शहर की खुशबूओं में।
चौपालें- बाँटती थी सबके सुख दुःख
दंग देख मदिरालय की चालें।
पनघट पर जाती- छमछमाती गँवारने
थम गयी घर के नलकों पर।
हरियाली से लहलहाते खेत
दब गए कारखानों के बोझ तले।
जो शाम होती - धूल से नहाता आसमाँ
अब घर में दुबक सांस थाम रहे गँवार।
बारिश में उछलती नन्ही नदियाँ
बहती रहीं घर के बरामदों से।
पाट दिया शहर की सड़कों ने
ढाँप दिया नालियों ने।
किलकारी मार बच्चे -भाग पकड़ते मेंढक
तैराते थे नावें अपनी - जाने कितनी दूर तक डोलती।
सोख ली शहर ने नदी, चुप कर दी किलकारियाँ
पानी शहर का गांव पर मेरे
चढ़ने लगा बड़ी तेजी।
रंगीन शहर के स्वनिल सपने
देख हिंडोले लेता गाँव मेरा।
माँपदंड गाँव के मूल्यहीन हुए
नए दाँव पेच सीखा रहा शहर।

यह कौन - काफिला लेकर आया
इतने दिनों बाद कोई गाँव के कपड़े पहने देखा
ढोल, नगाड़े, करतल ध्वनी गूँज रही।
क्या है इसका काम?
किससे इसे सरोकार?
बखान रहा शहरी गाँव की उन्नति।
क्या है माजरा - या सब?

झूठ पर खड़ा शहर - उचक बैठ गया 
मेरे गाँव के कन्धों पर।
उतारो इसे
बोझ झूठ का- कभी नहीं सहा गाँव ने मेरे।
झूठ पर खड़े होते - सिर्फ लाक्षागृह।
क्या होगा जब जल जाएगा शहर
मिटा देगा गाँव को मेरे अपने साथ।
शायद फिर एक सदी लगे
बसने मेरे गाँव को?

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उलझन

उलझन
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एक डुबकी और
इस ठन्डे नदी के पानी में।
मन ही नहीं हो रहा 
बाहर निकलने का।
थरथराता सा हौले हौले
उतारा (था) अपने आपको
फिर (होगी) वही थरथराहट
बाहर निकलते ही।

बहता आ रहा - टुकड़ा एक काठ का
लहरों से आँख मिचौली करता
एक लकीर स्याह सी
नदी पर बनती, मिटती।
थोड़ी धूप छलके 
तो कोहरा छँटे।
गुनगुनी धूप, चुभती ठण्ड
आँखों को भी आराम
शरीर को भी राहत।
पर नहीं।

काली स्याह- लकड़ी
रंग और भी गहराता जा रहा।
काठ का टुकड़ा-
लगता तो नहीं।
ओह-लाश है एक।
हाथ -पाँव सुन्न से हो गए
लाश-किसकी?
कब से- कहाँ से
बही चली आ रही?
जाने सवाल कितने
गुजर गए जहाँ से।

मछलियाँ नोच रही होंगी
इसीलिए पानी में गोता लगा रही
वो जो दिख रहे थे पंछी
गिद्ध , चील कौवे थे- उड़ जाते
फिर बैठ नोचने लगते।
नहीं होंगे अंतिम संस्कार को पैसे - बहा दिए 
और बाह गयी यह।
यह तो इधर ही आ रही-
जल्दी से बाहर निकलूँ
या इसे बाहर निकाल
यहीं पास में क्रियाक्रम करूँ
कुछ तो अच्छा होगा।
पुण्य कमाने की आस
प्रबल होने लगी मन में।
उचक कर चाहा देखना- पर
फिर डूब चुकी थी।
उभरी तो- कुछ परे नज़र आयी
इशारा किया एक नाव को
नकार दिया उसने।
शायद डर गया होगा
कौन पड़े पुलिस के झमेले में
फिर कोर्ट, कचहरी- समय पैसे  की बर्बादी
कहाँ किसके पास-
एक गुमनाम, अनजान- लाश के लिए।
देखता रहा दूर तक उसे
आँखों से ओझल होते हुए।
झल्ला कर बाहर निकाला
अब नहीं लग रही थी ठण्ड
पर रोष और खिन्नता से
भरा था मन।


धीरे धीरे पाँव बढ़ाये
माथा टेक मंदिर में
जल चढ़ाया जल तुलसी को।
दिन भर के काम- तैर रहे थे
आँखों क सामने।
इसी राह के आगे मोड़ एक
उसी के पास बाग़
उधर से होकर जाऊंगा
विचलित मन - थोड़ा बहलेगा
वक़्त थोड़ा और लगेगा।
बचा खुचा पानी लौटे का
छोटी सी फूलों की क्यारी में
उंडेल आगे बढ़ने की सोचा।
पर उंगलियां अनायास ही
सहलाने लगी पत्तियाँ।
कभी फूलों को हथेलियों में रखता
तो कभी रंग बिरंगे फूलों पर
हाथ हौले हौले फिराता।
मिली जुली फ़ूलों की सुगंध
मन को हिलोरें देतीं।

कुछ पल बीते ही थे कि
बारिश की हल्की बूंदों ने
स्वप्निल ख्वाब तोड़े।
अब- अचानक- बारिश!
तेजी से - एक पेड़ के नीचे
लगा खुद को सुखाने।
पत्तों, फूलों और फलों से भरा
छतरी जैसा पेड़।
बारिश की बूँदें - जाने कहाँ
हो जाती ओझल।
कोई पत्ते छोटे, कोई बड़े
कहीं कोंपले उग रहीं
कहीं पीलापन लिए, झड़ने को तैयार।
पर- सब हवा संग डोल रहे
एक ही तरंग में, एक ही लय में।
कोई गिरता भी तो- झूमता सा
लहराता सा, भँवर बनाता
धीरे से- उत्फुल्ल
माटी पर लोट पलोट होता।
अनेकों फूल- बिखेर रहे
अपनी मंद सुगंध।
लुभा रहे मधुमखी तितलियों को
और वो भी रस स्वाद कर रहे।
अनेकों फल- कोई कच्चे तो कोई पक्के
संजो रखे अगिनत बीज गर्भ में।
जाने कितनों की भूख मिटायें
जाने कितने और को आसरा दें।
चारों तरफ अपने
बिछा रखा शाखाओं का जाल।

पीछे बहुत छूट गयी
वो थरथराहट, साथ
वो भय, वो रोष, वो खिन्नता।
अभी राम गया मन- इस बाग़ में
इस सरल, सरस प्रकृति में।
इन पत्तों से छन कर
आने लगी अब धूप।
छँट बदली, निखर रहा सूरज
शुरू हो गया नया दिन।
चलूँ घर - और अनेकों काम
पूरे करने- उलझते सुलझते
इस मन की तरंगो पर।
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04June 2015

Thursday, June 4, 2015

ख्वाब-ग़ज़ल

ख्वाब एक हसीं मंजर का, परवान चढ़ रहा था,
सिसकियों ने जाने किसकी, मंजर ही सारा पलट दिया।

उम्मीद पर अभी अभी, संभले थे जानिबे मंजिल
हकीकत ने फिर से,  जखम दिल का हरा कर दिया।

लौट आने का वादा, खूब किया निगाहों ने तेरे
दरो दीवार के सायों ने, तनहा ना हमें रहने दिया।

रौशनी उनकी आँखों की, क्या बताएं हम तुम्हें
रात देर तक हमें, सोने चैन से एक पल ना दिया।

कहते थे बातें हमारी, सुकून दिल को उन्हें देती हैं
महफ़िल में चुरा कर नज़रें हमसे, अजनबियों से वास्ता उन्होंने किया।

बेतकल्लुफ़ी का गिला कब था इस दिल को
बेरुखी ने  उनकी, अब ज़िंदा ना रहने दिया।

दो लाईना



ये किस मुकाम पर आ गयी ज़िंदगी
 मरने से ज्यादा  जीने को डर लगता।

दरिया बन समुन्दर की चाहत में 
पत्थरों से जाने क्या निकले,
समुन्दर से मिले तो उसे
पत्थरों में ओझल होते  देखे।

गलियारे


गलियारे
------------
गुज़रते देखा है मैंने
रास्ते शहरों के बीच।
किनारा कर लेते
ईंट गारों के मकान।

कुछ रास्ते गुज़र जाते 
गावों की ओट से
बाँधे रखती उनको
गलियाँ, धागों से बिखरती।

ओझल होती गलियाँ
इन्हीं अनजाने रास्तों पर
भटकती फिरती-
सोचती रहतीं, 
ये रास्ते अनजाने
जाने कहाँ ओझल होते।

मैं भी निकला मंजिल पर अपनी
गलियों से होते, गुज़रते इन्हीं रास्तों पर।






सब कुछ चाहिए

इस बीज को - सब कुछ चाहिए।
इंतज़ार इसे
थोड़ी बारिश, थोड़ी गर्मी,
थोड़ी ठण्ड, थोड़ी गर्मी।
अभी चीर सीना धरती का
देखना गगन विशाल।

इस पौधे को - सब कुछ चाहिए।
थोड़ी हवा, थोड़ी ओस,
थोड़ी धूप, थोड़ी छाँव।
लहलहाता सा मुस्कुराता
खिले उठेंगी बांछें, सिमट जाएगा आकाश।

इस पेड़ को - सब कुछ चाहिए।
थोड़ी आँधी, थोड़ा सूखा, 
थोड़ी बिजली, थोड़ा तूफ़ान।
फूटती कोंपलें चूम रही गगन विशाल
बस रहे बसेरे, फल रहे बीज नए।

इस जीवन को भी सब कुछ चाहिए।
कभी मिलता ,
और कभी -
अधूरा सा छूट जाता।
------------
29/05/15

विवशता

सब कहते हैं-
यह लड़ाई धर्म की है।
फिर हर बार, हर तरफ
आदमी ही क्यूँ मर रहा?

गूँज रही हर दिशा
उखाड़ देंगे सत्ता झूठ की।
पर हर बार क्यूँ
उजड़ जाती - घास फूस की झोंपड़ियाँ।

कोई कहता मुझसे
चुप हो जाओ- अभी सुनोगे सुमधुर संगीत।
पर क्यों सुन नहीं पा रहा - वह
इस सन्नाटे में - वो सिसकियाँ।
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24 May 2015

दर्द/अहसास

टूटी टहनी,
बिखरे पत्ते,
उजड़े नीड़,
बिलखती नन्ही सी चिड़िया।
कब देखा पलटकर
दूर जाते उस
मदमस्त हवा के झोंके ने?
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08 May 2015

Thursday, April 2, 2015

बदलते मौसम

उस दिन मौसम बर्फीला रहा
धीमे- धीमे आसमान से
गिर रहे थे अगिनत बर्फ के फोहे।
रंग सारे घुल सफेदी में ढल रहे
चादर सफेदी की तन रही चहुँ और।
खिड़की से नजारा साफ़ नज़र आता
किलकारियां बच्चों की मन को मगन कर रही
कोई बरफ के  गोले फेंकता
कोई घरोंदे बनाता
सब हिलमिल आनंद में झूमते।
अचानक आसमान पर देखा किसीने
सभी झुंड में भागते नजर आये
मैंने भी नज़र उठाई-देखा ध्यान से
एक पंख लहराता झोंके पवन के संग
धीरे धीरे नीचे उतर रहा।
रंग पंख का नज़र नहीं आ रहा
चारों तरफ फोहे बरफ के  चिपक रखे
कुछ उड़ जाते तो, कुछ और चिपक जाते
कभी तेजी से नीचे आता तो
अगले ही पल थोड़ा ऊंचा उड़ जाता।
होड़ सी मच रही सारे बच्चों में
कभी आगे भागते, कभी रुक जाते
फिर ऊपर ही देखते देखते पीछे को होते
कोई गिर जाता तो अगले ही पल
बरफ झाड़ उसी उत्साह से फिर भागने लगता ।
पर पंख इन सबसे अनजान
हवा के  संग संग अठखेलियाँ खेलता
अपनी ही धुन में दूरी तय कर रहा।
आसमान पर देखा मैंने , सबकुछ साफ़
ना कोई चिड़िया, ना कोई पखेरू
फिर पंख यह कहाँ से आया?
शायद बाज़ कोई दबोच किसी को
नोच दिया पंख, भूख अपनी मिटाने
उड़ गया दूर कहीं, बैठा होगा
किसी एक पेड़ पर।
पर बच्चों को इन सबसे क्या
वो तो इसी इन्तजार में- कब यह हाथ लगे
और पकड़ इसे दूर तक भागें
जैसे भागता खिलाड़ी कोई
जीत ट्राफी खेल के मैदान में।
आंखमिचोली हवा की बढाती बेचैनी बच्चों की
मैं भी इसी इन्तजार में
किसके  हाथ पंख यह लगे।
अभी अभी जो हिलमिल खेल रहे
जुट गए जाने कैसी होड़ में।
पंख को देर है अभी
कोई जल्दी नहीं- जमीन को छू ने
पर भगदड़ सी मची जमीन पर।

पर देखता रहा खिड़की से मैं
बदलता मौसम,बदलते अंदाज।
सोचता रहा मन कहाँ से आया पंख
इस बर्फीले तूफ़ान में चिड़िया कोई
भूल अपना नींड़, भटक तो नहीं रही
झटक पंखों से बरफ- हल्की हो
बेचैन सी, बेबस दिशाहीन
पर दूर तक  क्षितिज पर- सब कुछ शून्य।
ठीक से दिखता भी कहाँ
मौसम ही कुछ ऐसा - मिजाज अपना बना बैठा।
शोर अचानक सुन कर ध्यान मेरा बंटा
बच्चे एक के  ऊपर एक बेतहास
जाने किसके हाथ पंख लगा
या बस यूं ही जमीन कुरेद रहे।
नहीं- कोई तो हाथ ऊपर कर
पंख दिखा भाग रहा-पर
किसी दूसरे ने उसे धक्के से दिया गिरा
छीन पंख वह बहादुरी अपनी दिखा रहा
साथ हो लिए दो तीन और
दूसरों से उसे बचा रहे।
देखते देखते गुट दो बन गए
बर्फ के  गोले कुछ पल पहले
एक दूसरे पर शैतानी से फेंक रहे
वही अब निशाने साध जाने दुश्मनी कोई निकाल रहे।
गूँजती किलकारियाँ चीख चिल्लाहट में बदल गयीं।
कोई ताने कास रहा तो कोई खीजा रहा
कोई मूंह चिढ़ा रहा तो कोई हूंकार भर रहा
मैदान खेल का रणभूमी में बदल गया।
एक दूसरे पर आपस में लगे झपटने
कोई कपड़े खींच रहा, कोई बाल
कोई थप्पड़ मार रहा, कोई मुक्का।
मैं हक्का-बक्का सा खिड़की पर खड़ा
तेजी से दरवाजे को भागा
दो तीन पड़ोसी और अपने अपने घरों से निकले
खेल खेल में वक़्त ने कहाँ से कहाँ ला पहुंचाया।
कोई बच्चा रो रहा, तो कोई शिकायत करता
कोई कपड़े झाड़ रहा, तो कोई आँखें दिखा रहा।
धीरे धीरे घर को अपने सब पहुंचे।
पल में ही मैदान सारा सूना
किलकारियां खामोशियों में ढल गयीं
वापस घर को मुड़ा तो
देखा पंख बरफ के गोले से झाँक रहा
हाथ में ले उसे, बरफ उसकी झाड़ी
रंग रूप पर उसके ध्यान ही कहाँ गया
दूर दूर तक नज़र पहुंचाई
दूर पेड़ एक पर शायद आँखें दो नज़र आयीं।
कहीं यही वो बाज़ तो नहीं , भूख अपनी मिटा
आनंद ले रहा कोलाहल का
पलक झपका झपका कर देख रहा
आनंद मगन बच्चों का समरांगण।
वो भटकी चिड़िया तो नहीं
थकी हारी बैठ पेड़ पर
भीतत्रस्त देख कोलाहल।
गोला बरफ का मैंने भी एक बनाया
फेंकना चाहा पेड़ की डाल पर
हाथ अनायास ही रुक गए
ओझल होगयीं आँखें गुम हो गया पेड़
छूट  हाथ से गिरा बरफ का गोला
वहीं कहीं दब कर रह गया पंख
चुपके से घर में दाखिल हुआ
देखने लगा फिर
फोहे सी गिरती बरफ
अब मैं भी ज़रा सा डरा सहमा
फिर नज़र ना आ जाए कोई पंख
शून्य से गिरता, हवा में झूमता
बोझिल अपने ही भार में
बंद कर लूं खिड़की और
फेर लूं मूंह सत्य से
कितना बेकल कर रहा मन को मेरे
अभी अभी जो इतना रहा प्रफुल्ल
और हो गया इतना व्याकुल।
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4feb14
बसंत पंचमी

Tuesday, February 3, 2015

सीता के बहाने युगीन चिंता---समीक्षा - श्री अरुण होता



सीता के बहाने युगीन चिंता
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अनिल कुमार पुरोहित के अब तक चार कविता संग्रह हो चुके हैं - ’ शहर की पगडंडी’, ’ अंतःपुर की व्यथा कथा’, ’तहखाने का अंधेरा’ और ’सीता का सफ़र- वाल्मीकि तक’ । अनिल की कविताओं में परंपरा के प्रति विशेष आग्रह है, लेकिन दुराग्रह नहीं। इनमें परंपरा से मूल्य की यात्रा है। मानव मूल्यों का सर्वाधिक महत्व है। यहाँ तक पहुंचने के लिए परंपरा का ज्ञान उसके प्रति आदर भाव आदि अत्यंत आवश्यक है। इसे कवि भली भाँति जानता है। आज के उत्तर आधुनिक समय मेँ पुरा-कथा को, अतीत को बार बार झूठा साबित किया जा रहा है अनिल इसके पक्ष मेँ नहीँ है। पुराणों, उपनिषदों तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों की कथाओं, घटनाओं, प्रसंगोँ को आधुनिक संदर्भ से युक्त करने की कला मेँ उन्हें विशेष सफलता हासिल हुई है। इसलिए अनिल के लिए पुराकथाओं की आवश्यकता है तो इनकी प्रासंगिकता भी।
आज का समय भूमंडलीकरण का है। इस दौर में निजीकरण और उदारीकरण के नाम पर पूंजीवादी शक्तियाँ मजबूत हो रही हैं। बाजारवादी अवस्था मेँ पूंजी सर्वाधिक प्रभावशाली साबित हो रही है। हमारे सारे मानवीय नाते - रिश्ते पूंजी के समक्ष बौने साबित हो रहे हैं। पूंजी को केवल मुनाफा चाहिए। इस मुनाफा के लिए वह सत्ता को अपने कब्जे मेँ कर लेती है। इस मुनाफा के लिए वह भाइयों को, जातियों को, धर्मों को आपस में लड़वा सकती है। सांप्रदायिक एकता का बीज - वपन ही नही, उसकी विष ज्वाला से मनुष्य और मानवता की हत्या करवा सकती है। धार्मिक उन्माद को बढ़ावा दे सकती है। उपभोक्ता वादी समय में’ यूज एंड थ्रो’ नई संस्कृति पनप रही है। इस दौर में सभी वस्तुएँ प्रोडक्ट ही हैं। मनुष्य भी प्रोडक्ट है। एक ही मूल्य मूल्य जीवित है और वह है वस्तु की कीमत, बाजार का मूल्य। ऐसी स्थिति मेँ साहित्यकार का दायित्व बढ़ जाता है। वह कराहती, छटपटाती, दम घोटती मानवता की रक्षा के प्रयास मेँ अतीत की ओर उन्मुख होता है, पुराकथाओं को नए सिरे से पाठ करता है। उन्हें नये संदर्भों से युक्त कराता है। युगीन चिंताओं, समस्याओं, विसंगतियो तथा विडंबनाओं से निजात पाने के लिए पुरा कथाओं के माध्यम से अपना अनवेषण जारी रखता है। युगानुकूल चिंतन की खोज करता है। कवि अनिल कुमार पुरोहित ने भी अपने रचना संसार मेँ यह काम करने का पूरा प्रयास किया है। उपभोक्तावादी समाज में दांपत्य प्रेम बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। समाज में अल्ट्रा मॉडर्नटी के नाम पर विवाहोत्तर संबंधोँ को बड़े जोर शोर से साहित्य विषय बनाया जा रहा है। यूं कह सकते हैँ कि समाज में अराजकता फैलाने वाले परिवारोँ को तहस नहस करने वाले इस तत्व को प्रोमोट किया जा रहा है। इस विध्वंस को अनिल समझते हैँ। इसलिए ’सीता का सफर - वाल्मीकि तक’ का समर्पण पत्नी रीनू के नाम है। एक उन्नत संस्कार है यह। सीता और राम कथा के माध्यम से अपने संस्कार को अधिक विकसित्किया है। संपूर्ण रामायण कवि प्रेम से संग्रथित और संगुफ़ित मानता है। क्रौंच पक्षी  से ले कर लव कुश का रामायण गायन की कथाओं मेँ प्रेम को ही सर्वोपरि माना गया है। कहना ना होगा कि आज के विश्व में इस प्रेम की सर्वाधिक  आवश्यकता है। कवि का मानना है कि, प्रेम के प्रसार से युग की अधिकांश समस्याएँ सुलझ सकती हैं। प्रेमपूर्ण माहौल मेँ शांति संप्रीति और सौहार्द की दुनिया हो सकती है।
कवि के मन मेँ एक सवाल बार बार कचोट्ता है - ’प्रभु श्रीराम जिन्होंने नारी की मर्यादा हर घड़ी रखी, मंथरा का मान रखा, माता कैकई का आशीर्वाद लिया, शबरी के जूठे बेर खाए, अहिल्या को उद्धारा - फ़िर सीता को सुनी सुनाई बातोँ पर पल में त्याग दिया। (पृष्ठ-६) पुस्तक का बड़ा भारी भारी अंश इस प्रश्न के उत्तर हैतु समर्पित है। जनक, वाल्मीकि आदि के माध्यम से इस प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
उत्तर आधुनिक समय मेँ सीता और राम का चित्रण उत्तर आधुनिक विमर्शों के आधार पर नहीँ किया गया है। सीता और राम के अलौकिक रुप के चित्रण मेँ कवि का मन उतना रमा नहीँ मिलता। ऐसा सर्वथा उचित भी है।  युगीन सोच को महत्व देते हुए प्रतिकूल समय मेँ उनके कर्तव्य को सही तथा अनुकरणीय बताया गया है। राम ओर सीता आज के सामान्य पुरुष और स्त्री के रुप मेँ अधिक चित्रित हुये हैं। सामान्य मनुष्य की भाँति राम ओर सीता भी दुःखी होते हैँ। विचलित होते हैं। लेकिन यह दुःख ओर विचलन दीर्घ अवधी के लिए नहीँ ठहरते।
सीता वनवास से लेकर वाल्मीकि की कुटिया मेँ जनक राज के प्रवेश की कथा कुल दस खंडो मेँ विभाजित करते हुए अनिल ने एक चुनौती भरा कार्य किया है। पुस्तक की दूसरी पंक्ति - ’मेरे सवाल का जवाब चुप्पी नहीँ तुम्हारी’ केवल लक्ष्मण से सीता का सवाल नहीँ है। बल्की स्त्री जाति का पूरे युग से सवाल है। स्त्री के प्रश्न या तो अनुत्तरित  रहते हैं अथवा उसे बहलाने का प्रयास होता है। समाज और युग में भयानक चुप्पी छाई रहती आई युगों से, अनंत काल से। उसकी हर एक पुकार सुनकर भी अनसुनी कर दी जाती है। उसके प्रश्न भी पूरे नहीं करने दिया जाता है। अधूरे रह जाते हैँ। वे सारे अधूरे सवालोँ से दिगमंडल मेँ गूंज धे हैं। कवि ने सीता के माध्यम से अपने नारी चिंतन का स्वरुप प्रस्तुत किया है-
’सुनी अनसुनी करो या देखी-अनदेखी,
ना बदलते प्रश्न ना बदलती परिस्थिति।’ (पृ-१३)

नारी को अपने प्रश्नोँ के उत्तर चाहिए। वह अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के माध्यम से परिस्थिति को अपने वश मेँ करना चाहती है। कवि की सीता बोल्ड है। उसमेँ आत्मविश्वास की भावना कूट कूट कर भरी हुई है।
’करना ही है सामना मुझे इन प्रश्नोँ का
तलाशना होगा उत्तर।
मुझे ही बदलनी होगी परिस्थिति।’

हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि समाज मेँ नारी को ही सीमाओं के घेरे में रहना पड़ता है।उसे ही दबाया जाता है। उस का शोषण होता है। दमन किया जाता है। अपहरण किया जाता है। सारा दोष नारी के मत्थे पर लाद दिया जाता है। नारी इसे समझ चुकी है। वह अबला नहीँ है। अपने मान, सम्मान तथा स्वाभिमान के प्रति वह जागरुक है। कवि ने सही लिखा है
’यही तो होता रहा आज तक
सीमाएँ, रेखाएँ, लपटें यही सब तो देखा मैंने
क्या यही सब होता - हमारे लिए
आतताई रावण से बचने का यही एक मार्ग
क्यों समझे हम अबला
कुछ भी नहीँ मान हमारा?’ (पृ: १५)

यह नारी जब देखती है कि प्रेम, श्रद्धा, मान का छलावा उस पर किया जाता है। दूध मेँ गिरी एक मक्खी की तरह से उठाकर फ़ेंक दिया जाता है। एक  चेहरे में कई चेहरे समाये रहने का एहसास होता है। उसके अधिकारोँ का हनन होता है तब नारी की अस्मिता जागृत हो उठती है। उसकी आंखोँ के सामने लगा हुआ पर्दा हट जाता है । उसमें आत्मगौरव की भावना बलवती हो उठती है। वह मर्दवादी व्यवस्था की चालाकीयों को दुनिया के सामने खुल कर रख देती है। कवि अनिल ने ऐसी ही नारी का चित्रण किया है जो सचेत तथा प्रगतिशील है।
अनिल कुमार पुरोहित की नारी परंपरा और आधुनिकता के सुंदर समन्वय से निर्मित हुई है। वह केवल अधिकार के लिए लड़ना नहीँ जानती है, बल्की आत्मविश्लेषण भी करती है। सोचती है कि शायद कोई दोष उसमेँ रह गया है। यह नारी प्रेममयी है। उसके लिए प्रेम सर्वोपरि है। अपनी प्रेम के लिए वह मर -मिटने को तैयार है। प्रेम को कलंकित करना के लिए सबसे बडा गर्हित काम है।  वह तो केवल इतना जानते है
’मैँ तो सिर्फ आपकी, सिर्फ़
आप मेरे। (पृ:२४)
’उनके दुःख से - क्या मैं हो सकती सुखी
फिर मेरे दुख से- वो कहाँ होंगे सुखी?’ (पृ:६६)

अपने प्रेम पर अगाध विश्वास होना युगीन मांग है। बिना इसके आज परिवार टूट रहै हैं। बिखर रहे हैं। संदेह के चक्रवात से पारिवारिक जीवन करुण रस त्रासद में तब्दील हो रहे हैं। एक बात और है उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से कवि ने बिना कुछ कहे इतना कुछ कह दिया है कि इससे कवि सामर्थ्य का पता चलता है। प्रेम की व्यापकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। सीता अपने प्रेम में जीती है। परंतु उसकी स्पष्ट घोषण भी है -
’नहीँ - मैं राजमाता, मैं नहीँ राजेश्वरी
ना मैं असहाय, ना मैं दया की पात्र’ (पृ:२९)

यहाँ सीता आधुनिक युग की नारी है। जिस धोबी के चलते सीता को वनवास मिला उसे नारी हृदय की पवित्रता के बारे मेँ बताती है
’नारी हृदय एक स्वच्छ दर्पण
प्रेम, त्याग, उसका समर्पण
नहीँ सूखे तृण समान
हल्के झोंके पर उड़ा दो जिसे।’ (पृ:३३)

राम अपने अनुज लक्ष्मण से सीता को वनवास देने का कारण बताते हैं-
’प्रेम इन सबसे सर्वोपरि
चिरंतन, सीमाहीन, गतिशील
जनक दुलारी के प्रेम में
उस के हित मेँ -लिया ऐसा निर्णय। (पृ:४७)

और भी
’नियम से चलती संस्थाएँ
धर्म से समाज
प्रेम से चलता, सारा कालचक्र।’ (पृ: ४९)

जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है ’सीता का सफर - वाल्मीकि तक’ कवि का युगबोध साकार हुआ है। रामायण के विभिन्न पात्र तो बहाने हैँ। मूल बात तो युगीन चिंता है। युग में निम्न सोच, निर्ममता, मिथ्यावादिता का बवंडर प्रवाहित हो रहा है। कवि लिखता है-
’मिथ्यावादीयों की निर्ममता
क्तों भेदती सत्य का हृदय?
बार-बार सिर्फ प्रमाण चाहती
नग्न सत्य को- अर्धनग्न झूठ का लिबास पहना
सदियों तक नोंचती, उलाहना देती।’ (पृ:७४)

कैसा समय आ गया है कि उल्टा सर्वत्र तो भीड़ है, लेकिन मदद का हाथ कोई आगे नहीँ बढ़ाता। समय की इस विडंबना को कवि के शब्दोँ मेँ
’कोई दे नहीं दे सकता साथ
किसी का भी, नहीं अभिप्राय यहाँ
एक जूझ है- अपने आप से
इस समाज से, इस कलुषित मापदंड से।’

राम के अंतर्द्वंद को शिव के माध्यम से सुलझाने के क्रम मेँ नारी की महिमा के साथ-साथ समाज में उसके स्थान पर भी विचार किया गया है। नारी अगर कहीँ दुश्चरित्र हो तो उसकी वैसा बनाने मेँ सौ पुरुषों का हाथ होता है। अगर नारी पति द्वारा त्याग दी जाए तो वह पूजनीया होती है। लेकिन, यदि पत्नी द्वारा परित्यक्त पति हो तो -
’पर नारी परित्यक्त पुरुष हो जाता नपुंसक समान
गँवा देता समाज मेँ मान सम्मान।(पृ:९५)

इसलिए शिव का आप्त वचन है यदि कोई नारी पर उँगली उठाये तो वह उतना ही दोषी होता है। अनिल लिखते हैं:
’जब भी कोई उठाएगा- उँगली नारी पर
तो होगा उतना ही दोषी-
जब झाँकेगा अपने गिररेबान।
यह झलक - नारी शोषण के खिलाफ़
यह निर्णय- नारी प्रताड़ना के विरुद्ध
यह त्याग- नारी समता की पराकाष्ठा।’ (पृ: ९५)

कवि के मन मेँ उठने वाले प्रश्नोँ का समाधान यहाँ कर दिया गया है कि राम द्वारा सीता का परित्याग नारी शोषण नारी निर्यातना के खिलाफ़ है। नारी के  समान अधिकार के लिए लिया गया निर्णय है।इससे सभी सहमत नहीँ होंगे लेकिन कवि ने अपनी ओर पूरी से इमानदारी के साथ इस कथ्य को प्रस्तुत किया है।
सीता बनवास के पश्चात जनक के अयोध्या आगमन के प्रसंग में कवि ने कई महत्वपूर्ण विषय की ओर इशारा किया है। जैसे राम राज्य की कल्पना। यह एक सोच है, आज के भ्रष्टाचार भरे समय मेँ राम की परिकल्पना को साकार करने का प्रयास हो तो दुनिया खुशहाल हो जाएगी।
आ नैतिक रुप से पतनशील समाज तमाम पुरानी चीजो को ठुकराने मेँ लगा हुआ है। जिस समाज मेँ नैतिक मूल्योँ का हनन हो वहाँ शांति, प्रगति और समृद्धि स्वपवत हो जाती हैं। मनुष्य जब नैतिक दृष्टि से पतनशील हो जाता है वह जो कुछ भी बन जाए लेकिन मनुष्य पदवाच्य नहीँ रह जाता। इससे सामाजिक ढाँचा चरमरा जाता है। भ्रष्टाचार फ़लने - फूलने लगता है। पूरे समय मेँ अराजक तत्वों की बढ़ोतरी होने लगती है। कवि ने इस स्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त की है-
’पतन हो रहा अब नैतिक मूल्यों का
ढह रहा ढांचा समाज का अब
व्यर्थ नीति नियमों को उघाड़ते
दुहाई दे नैतिकता की....
अपने ही कुकर्मों को ढाँप रहे
बना नये खोखले माप दंड।’ (पृ:१०७)

कवि ने सामाजिक दुर्दशा के कारणों को अन्वेषित किया है। सामाजिक यथार्थ के बिंबों को भी अंकित किया है। उसका एक स्वप्न है कि जाति, वर्ग और संस्कृति के लोग सद्भाव और सौहार्द की डोर से गूंथे रहे। भारतीयता के मूल मंत्र में दिक्षित हों। सद्गुणों का सम्मान हो और दुर्गुणों की निंदा हो। सभी कर्मरत हों।  सब को समान अधिकार हासिल हो। मानव धर्म का सर्वत्र आदर हो। नारी का सम्मान हो। मानव मूल्योँ के प्रति लोगों का आकर्षण बना रहे। समय और समाज की तमाम विसंगतियाँ, उलझनें और समस्याएँ दूर हों। सपने को पूरा करने के लिए अपने को, अपने अतीत को, परंपरा को, वर्तमान को जानना, समझना और हृदबोध करना जरूरी है। युवा कवि की यह सोच और चिंतना हमें आस्वस्त करती हैं कि तमाम भयानकता और विभीषिकाओं से मुक्ति पाने के द्वारा अवरुद्ध नहीँ हो गए हैँ, अब भी प्रबल संभावनाएँ बनी हुई है।
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अरुण होता
प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष
हिंदी विभाग
पश्चिम बंगाल राज्य विश्व विद्यालय
बारासात
कोलकाता- ७००१२६
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Thursday, January 1, 2015

समय के पार



बचपन में देखा मैंने
बैलगाड़ी का पगडंडियों से गुजरना।
वो बैलों के गले की घंटियाँ
सुनाई देती थी दूर दराज मोड़ों से।
रोक साईकिल अपनी
रास्ता देता गुजर जाने उनको।
देर तक देखता
एक गुबार हल्का सा धूल का।

बीतते समय के साथ
साईकिल छूटी स्कूटर आया।
बैलगाड़ी ने किया किनारा
मोटर कारें दौड़ी और
छिपा दी पगडंडियाँ
लंबी चौड़ी सड़कों ने ।
किनारा अब भी कर देता
देखता जब उगलता धूंआ जहरीला।
समा जाता, रग रग में मेरे
भाग रहा समय के साथ
ना धूल ना धूँआ
बस बदहवास।

आज- एक युग सा बीत गया
जमीन से ना जाने कितने ऊपर ।
रूई से उड़ रहे बादल इर्द गिर्द
ना कोई सड़क ना ही पगडंडी ।
ना कोई धूल ना ही वो घंटी
बस देख रहा नीचे
इस विमान से नीचे
खेत खलिहान, नदी तालाब
रंग बिरंगी बिछी एक चादर
बिंदु मात्र नज़र आ रहे सब कुछ।
धीरे-धीरे ओझल हो जाते
उस बैलगाड़ी की तरह
जो बस छोड़ जाती
कंपन घंटी की
सारे तन मन में
बिखेर जाती धूल भरे गुबार
जो बसे अब भी मेरे रग रग।
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18/11/2014