सागर की त ह से
उठता एक बुलबुला - नन्हा सा
ऊपर त क आते आते
बीच में कही फुट जाता l
रह जाती सि र्फ़ थर थर्राती
कं पन l
ज्वार बन फै लती
समेट सागर को
लहरों में ढल जाती l
टूट जाती सीमाएं,
उजड़ जाती बस्तियाँ
उफन खारी हो जाती नदियां l
सूरज धूमिल सा हो जाता,
चाँदिनी भी ओझल होती ,
हवाएं भी रुख अपना मोड़ लेतीं,
और कहाँ अडिग रहते पर्वत l
सदियाँ बीत जाती
समेटने सिहरती एक
नन्हे बुलबुले की कम्पन l
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उठता एक बुलबुला - नन्हा सा
ऊपर त क आते आते
बीच में कही फुट जाता l
रह जाती सि र्फ़ थर थर्राती
कं पन l
ज्वार बन फै लती
समेट सागर को
लहरों में ढल जाती l
टूट जाती सीमाएं,
उजड़ जाती बस्तियाँ
उफन खारी हो जाती नदियां l
सूरज धूमिल सा हो जाता,
चाँदिनी भी ओझल होती ,
हवाएं भी रुख अपना मोड़ लेतीं,
और कहाँ अडिग रहते पर्वत l
सदियाँ बीत जाती
समेटने सिहरती एक
नन्हे बुलबुले की कम्पन l
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