Friday, December 26, 2014

हिमशैल

हिमशैल एक
यायावर सा, अनंत सागर में
जाने कब से बहे चले जा रहा।
अगिनत तूफानों संग
इसने भी ली मदमस्त हिलोरें ।
तपती, झुलसती गर्मी
ठिठुरती, कंपकंपाती सर्दी
नहीं कर सकी विचलित इसे।
बस एक लकीर बुलबुलों की
बनाता जाता - पर
अगले ही पल-
सागर उन्हें मिटाता जाता।
जूझ एक अजीब सी
सागर के संग
नित नए सूरज
नित नए रंग।
इसी सागर ने अपने ही अन्दर
छिपा रखा है अस्तित्व इसका
और यह
शनै शनै घुलता जाता
इसी सागर की गोद।

तन्हाई

कुछ भी तो नहीं
इर्द गिर्द मेरे।
एक तन्हाई-इस अँधेरे में
और इसमें छिपा 
दुबका कोने में मैं ।

दूर से बवंडर कोई उठ रहा
साँय-साँय हवा चल रही
ठिठुर रहा जाड़े में।
रौशनी हल्की सी - दीये की
पल पल काँपती और
साथ मुझे सिहरा देती।
उठकर संभालूं दीये को
हिम्मत नहीं इतनी ।
कोई भी नहीं इस घर में
एक तन्हाई और उसमें
छिपा मैं।

बीते युगों की यादें
टकराती इन खोखली दीवारों से
सायों सी उभरती-ओझल हो जाती
गुनगुनाता मैं- पर आवाज
दब रह जाती-गरजते बादलों बीच।
घुट रह जाती लौ दीये की
कौंधती देख बिजलीयाँ।
पल भर को देख लेता
बिखरा सामान घर के हर कोने
कभी संजोया था बहा पसीना अपना
अब तो सब कुछ कोरा सा लगता।
समेट लेगा तूफ़ान- किसी भी पल
बहा ले जाएगा- हौले हौले बढ़ता पानी।
गहराता ही जा रहा अंधियारा
सूना रह जाएगा कमरा
बुझा रह जाएगा दीया।
बस बहता रहेगा पानी
गरजते रहेंगे बादल
सिहराता रहेगा तूफ़ान और टकराती रहेंगी यादें।
छिपा रह जाऊँगा मैं
साथ अपनी तन्हाई।
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याद आये

देख दुश्मनों के अहले करम
कुछ दोस्त पुराने याद आये।

नन्हीं उंगलियाँ उठीं लपकने आसमां
वो ख्वाब पुराने याद आये।

दश्ते वीरान से, मचल उठी हवाएं
नज़ारे बागे बहाराँ याद आये।

बिजलियाँ रात भर, गरजती रहीं बादलों में
वो रुख से किसी का, सरकता नकाब याद आये।

अब नहीं

 
वाईस मैखाने में जाता नहीं, 
पता खुदा का कोई और नहीं।
 
कहते हैं किस जर्रे में वो नहीं
फिर भी हमको यकीन नहीं।
 
झुकता सर सजदे में अब नहीं
कंधों पर अपने फिरते, आरजू कुछ नहीं।
 
आयेंगे अभी, पर लौटे अब नहीं
भरोसा रखते सब पर ऐतबार अब नहीं।

अपने - अपने

हर शहर की
अपनी ही गलियाँ-
घरों के बीच से गुजरती
गुम हो जाती जंगलों में।

हर नदी के 
अपने ही जंगल
पहाड़ों स ढलते हुए
खो जाते सागर किनारे।

हर सागर की
अपनी ही लहरें
उमड़ती घुमड़ती गोद से उठती
ओझल हो जाती बादलों बीच।

हर आसमान के
अपने ही बादल
हवाओं के परों पर लरजते
बिजली से 
शहरों पर बिखर जाते

स्याह साए

कठपुतली से चलते देखा मैंने
कदम से कदम मिलाते
कोई आहट नहीं 
सन्नाटे में और सन्नाटा घोलते।
रौशनी के छिपते ही
लिपट गए मुझसे
स्याह साए-
धीरे धीरे साँसों में घुलते 
और रग रग में मेरे रम रहे।

चिंगारियाँ रुक रुक कर उठतीं
तराशती इन्हें
पर रंगों को चुरा
फिर छिप जाते अंधेरों में।

सूरज चाँद तारों के  इर्द गिर्द
मंडराते फिरते रहते
आकाशगंगा से थिरकते
क्षितिज के इस छोर से उस छोर तक।

दीवारों, रौशनदान से रिसते
चिमनियों से उतरते
दरवाजे, खिड़कीयों तक अधिकार जमा रखा
बिखरे हुए अब हर कोने में।

नींव

रोज कहाँ जा पाता हूँ -
इस घर के  हर कमरे में ?
थका हारा, काम से चूर
शाम के  वक़्त तक,
बस नहाने भर की -
बची रहती है ताक़त।
फिर भोजन और टीवी-
रोज ही होता ऐसा।

जुटा लिया सामान मैंने-
सजा दिया हर कोने में....
कहाँ उपभोग कर पाता हूँ ,
जीवन की इस आपा धापी में ?
कभी टीवी देखते समय ,
तो कभी खाने के वक़्त-
बच्चे राग अपना अलापते,
स्कूल के , दोस्तों के , फरमाईशों के  ।
सुन अनसुनी सा कर देता ,
तो झुंझला से जाते ।
कहाँ वक़्त दे पाता हूँ
उनके  खिलखिलाते सपनों को ?

इस मशीनीकरण के  युग में
सब कुछ यंत्रचालित सा घूम रहा।
रिश्तों की लड़ी, नाज़ुक मोड़ पर।
ना मुझे कोई समझ  रहा ,
ना मैं समझा पा रहा।
वक़्त ही कहाँ रहा
पाटने रिश्तों की दरार को ?

पर एक अद्दृश्य हाथ
सब कुछ संभाले जा रहा।
कमरे सारे बुहारता,
साजो सामान यथावत रखता, और
बचपन से - कड़ी मेरी संजोये रखता ।
अपार शक्ति से भरपूर -
स्पर्श जिसका पाकर ,
नवस्फूर्ती मचलती,
नित नवकलेवर मेरा,
होता थके  हारे शरीर में।
फिर भी हरकोई इसे,
देख कर भी अनदेखा -
किये जा रहा ?
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पत्थर की मूरत

पत्थर सा बन, बस गया
अंदर मन के मेरे।
जितना भी तराशा बस हल्की सी परत एक
छलनी हो रह गयी।
पर भीतर- अब तक
रहा अछूता सबसे।
मूरत सा-नज़र आता सबको
कोई छू कर-परे हो जाता
तो कोई दूर से - निहोरता
गर्भगृह में मेरे
बसी एक स्पंदन
घुट कर रह जाती 
भीतर ही कहीं भीतर।
सूरज, चाँद तारों की रोशनी
गर्मी, ठण्ड हो या नमी बारिश की
कुछ भी नहीं, करती विचलित इसे
अपने में ही निर्लिप्त
सबसे मुक्त, उन्मुक्त
पत्थर सा बन, बस गया
अंदर - मन के मेरे।

सन्नाटा

टूट गया नाता
सदियों निभाया जिसे हमने।

चीर सीना धरती का
लहलहाते नहीं अब खेत,
मचल-मचल कर नदियाँ
सींचती नहीं कोई धरती,
कोई लपट उठती नहीं
दूर दराज पहाड़ों पर,
कोई आवाज गूंजती नहीं
उजड़े हुए जंगलों से।
 
हर तरफ एक सन्नाटा
गूँज रहा बेताल नागरी में,
हर तरफ गहराता धूंआ बदली बन
टपक रहा हर एक छत से।
वीरान हो गए कच्चे घर
सूनी गलियां तरस रहीं
पनिहारनों की चाल।
अब तो शाम शहर बस 
गहराता जाता सन्नाटा
बस रह रह कर गूँज जाती कोयल की चहक
देख संपोलों की सरसराहट।

कैद में उसके

जाने कैसे सफर में,वह
एक बार जो गुज़रा-सदियों पहले
लौटा नहीं अब तक।
इसी कुँए से-बुझाई प्यास अपनी
प्रतिबिंब अपना -बना मुझे
तकता रहा-देर तक थिरकते पानी में
कैद हो रह गया मैं 
अर्धविकसित, अक्षम अशक्त।
 परत दर परत बढ़ते पानी संग
बढ़ता रहा धीरे धीरे मैं।
कभी तरंगों सा मचल उठता
तो कभी आसमान सा शांत।
जाने वाला जाने कब
लौटे इस और।

जाने परछाईयाँ कितनी उसकी
गुजर जा रही हवाओं पर।
जिधर भी दौड़ाऊँ नज़र अपनी
सब प्रतिबिंब से क़ैद उसके।
कहीं रिस रहा समय - सुईयों की टिकटिक से
कहीं झर रहा सागर अनंत - बादल की बूंदों से
पर बिखर रहा इंद्रधनुष
सूरज की किरणों से।

बस वही एक - सफर में
मगन, उन्मुक्त, निर्लिप्त।
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जाने कब बने?



जाने कब बने?

अब तो याद भी नहीं
किसने खरीदी यह जमीन
कब खोदी यह नींव?
बस जुनून भर रहा सब में
घर एक बनाने का।

बीत गये मौसम जाने कितने
रहते इस झोंपड़ी तले।
जहाँ तक नज़र दौड़ाउँ
बस झोंपड़े ही झोंपड़े
साथ कुच टूटी फ़ूटी दीवारें
जिनके इर्द गिर्द
बिखर रहीं कुछ गलियाँ।

दीवार एक चढती दिन में
तो सुबह ढही मिलती।
कभी अपने ढहा देते
तो कभी कोई अजनबी।
चूने, ईंटे गारे- समय के साथ
बहे मिले जा रहे माटी में।
उड़ जाते पन्ने किताबों के
दरारे गहराती जाती तराशे पत्थरों मे।

रोज सुबह एक नयी आस
रोज शाम एक नया सपना
देखता रहता- दुबक झोंपड़ी में अपनी
घर यह जाने कब तक बने।
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घर कब बनेगा?

जमीं तो पूर्वजों ने मेरे
कब से खरीद रखी
नींव एक बनाने का जुनून
सब में सदियों रहा।
ईंट, गारा, चूना- सब आता
दीवार एक खड़ी होने से पहले
जुट जाते छत की तैयारी में।
ढह जाती दीवार- समय के साथ
शुरु होता सिलसिला- फ़िर से
नींव पर घर बनाने का।

जाने कितने मिल गये मिट्टी में
इन्हीं ईंट, चूने गारों के साथ।
सड़ गल गयी लकड़ियाँ
जंग लग बरबाद हुये-लोहे के सरिये
पर कोई नामोंनिशान नहीं-
इस घर के बनने में।

दुबका मैं- अपनी ही ही झोंपड़ी में
बिता रहा समय अपना
गुजर जाते मौसम
धूप, बारिश और ठंड।
गुजारे हैं इसी झोंपड़े में
मौसम जाने कितने।
देखे हैं मैंने, पूर्वजों के संग
ढहती दीवारें, माटी होती मेहनत
उड़ते पन्ने किताबों से
धीरे-धीरे बहते अक्षर
गहराती दरारें तराशे पत्थरों से।

बचपन हमने गुजारा
रेत के टीलों पर उछलते
ईंटों के पीछे लुक्का छिप्पी करते।
कभी रेत उड़ाते एक दूसरे पर
तो कभी फ़ेंकते ईंट पत्थर
कोई रोता-आँखों की धूल पर
तो कोई कराहाता-पत्थरों की चोट पर।

जाने गुजर गया- समय कितना
बस गलियाँ ही गलियाँ
बिखरी हुई झोंपड़ियों के इर्द गिर्द
सब दुबक जाते इन्हीं में
सांझ के सर उठाने पर।

इस नींव पर बनेगा एक घर नया
रंगीन होंगी दीवारें इसकी
जिनपर टंगी होंगी
तस्वीरें पूर्वजों की।
पूजा होगी, आजान होगी घरों में
झूलेंगी झिलमिलाती लड़ियाँ
दीवाली, ईद किसमस पर।
रंगीन होंगी, गलियाँ
होली के रंगों पर।

पर यह घर - कब बनेगा ?
रोज यही सोचता रहता
मैं झोंपड़ी की छत से
देखता जब भी सितारों को।
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