Friday, December 26, 2014

सन्नाटा

टूट गया नाता
सदियों निभाया जिसे हमने।

चीर सीना धरती का
लहलहाते नहीं अब खेत,
मचल-मचल कर नदियाँ
सींचती नहीं कोई धरती,
कोई लपट उठती नहीं
दूर दराज पहाड़ों पर,
कोई आवाज गूंजती नहीं
उजड़े हुए जंगलों से।
 
हर तरफ एक सन्नाटा
गूँज रहा बेताल नागरी में,
हर तरफ गहराता धूंआ बदली बन
टपक रहा हर एक छत से।
वीरान हो गए कच्चे घर
सूनी गलियां तरस रहीं
पनिहारनों की चाल।
अब तो शाम शहर बस 
गहराता जाता सन्नाटा
बस रह रह कर गूँज जाती कोयल की चहक
देख संपोलों की सरसराहट।

No comments:

Post a Comment