Friday, December 26, 2014

कैद में उसके

जाने कैसे सफर में,वह
एक बार जो गुज़रा-सदियों पहले
लौटा नहीं अब तक।
इसी कुँए से-बुझाई प्यास अपनी
प्रतिबिंब अपना -बना मुझे
तकता रहा-देर तक थिरकते पानी में
कैद हो रह गया मैं 
अर्धविकसित, अक्षम अशक्त।
 परत दर परत बढ़ते पानी संग
बढ़ता रहा धीरे धीरे मैं।
कभी तरंगों सा मचल उठता
तो कभी आसमान सा शांत।
जाने वाला जाने कब
लौटे इस और।

जाने परछाईयाँ कितनी उसकी
गुजर जा रही हवाओं पर।
जिधर भी दौड़ाऊँ नज़र अपनी
सब प्रतिबिंब से क़ैद उसके।
कहीं रिस रहा समय - सुईयों की टिकटिक से
कहीं झर रहा सागर अनंत - बादल की बूंदों से
पर बिखर रहा इंद्रधनुष
सूरज की किरणों से।

बस वही एक - सफर में
मगन, उन्मुक्त, निर्लिप्त।
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