Friday, December 26, 2014

जाने कब बने?



जाने कब बने?

अब तो याद भी नहीं
किसने खरीदी यह जमीन
कब खोदी यह नींव?
बस जुनून भर रहा सब में
घर एक बनाने का।

बीत गये मौसम जाने कितने
रहते इस झोंपड़ी तले।
जहाँ तक नज़र दौड़ाउँ
बस झोंपड़े ही झोंपड़े
साथ कुच टूटी फ़ूटी दीवारें
जिनके इर्द गिर्द
बिखर रहीं कुछ गलियाँ।

दीवार एक चढती दिन में
तो सुबह ढही मिलती।
कभी अपने ढहा देते
तो कभी कोई अजनबी।
चूने, ईंटे गारे- समय के साथ
बहे मिले जा रहे माटी में।
उड़ जाते पन्ने किताबों के
दरारे गहराती जाती तराशे पत्थरों मे।

रोज सुबह एक नयी आस
रोज शाम एक नया सपना
देखता रहता- दुबक झोंपड़ी में अपनी
घर यह जाने कब तक बने।
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घर कब बनेगा?

जमीं तो पूर्वजों ने मेरे
कब से खरीद रखी
नींव एक बनाने का जुनून
सब में सदियों रहा।
ईंट, गारा, चूना- सब आता
दीवार एक खड़ी होने से पहले
जुट जाते छत की तैयारी में।
ढह जाती दीवार- समय के साथ
शुरु होता सिलसिला- फ़िर से
नींव पर घर बनाने का।

जाने कितने मिल गये मिट्टी में
इन्हीं ईंट, चूने गारों के साथ।
सड़ गल गयी लकड़ियाँ
जंग लग बरबाद हुये-लोहे के सरिये
पर कोई नामोंनिशान नहीं-
इस घर के बनने में।

दुबका मैं- अपनी ही ही झोंपड़ी में
बिता रहा समय अपना
गुजर जाते मौसम
धूप, बारिश और ठंड।
गुजारे हैं इसी झोंपड़े में
मौसम जाने कितने।
देखे हैं मैंने, पूर्वजों के संग
ढहती दीवारें, माटी होती मेहनत
उड़ते पन्ने किताबों से
धीरे-धीरे बहते अक्षर
गहराती दरारें तराशे पत्थरों से।

बचपन हमने गुजारा
रेत के टीलों पर उछलते
ईंटों के पीछे लुक्का छिप्पी करते।
कभी रेत उड़ाते एक दूसरे पर
तो कभी फ़ेंकते ईंट पत्थर
कोई रोता-आँखों की धूल पर
तो कोई कराहाता-पत्थरों की चोट पर।

जाने गुजर गया- समय कितना
बस गलियाँ ही गलियाँ
बिखरी हुई झोंपड़ियों के इर्द गिर्द
सब दुबक जाते इन्हीं में
सांझ के सर उठाने पर।

इस नींव पर बनेगा एक घर नया
रंगीन होंगी दीवारें इसकी
जिनपर टंगी होंगी
तस्वीरें पूर्वजों की।
पूजा होगी, आजान होगी घरों में
झूलेंगी झिलमिलाती लड़ियाँ
दीवाली, ईद किसमस पर।
रंगीन होंगी, गलियाँ
होली के रंगों पर।

पर यह घर - कब बनेगा ?
रोज यही सोचता रहता
मैं झोंपड़ी की छत से
देखता जब भी सितारों को।
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