Friday, December 26, 2014

स्याह साए

कठपुतली से चलते देखा मैंने
कदम से कदम मिलाते
कोई आहट नहीं 
सन्नाटे में और सन्नाटा घोलते।
रौशनी के छिपते ही
लिपट गए मुझसे
स्याह साए-
धीरे धीरे साँसों में घुलते 
और रग रग में मेरे रम रहे।

चिंगारियाँ रुक रुक कर उठतीं
तराशती इन्हें
पर रंगों को चुरा
फिर छिप जाते अंधेरों में।

सूरज चाँद तारों के  इर्द गिर्द
मंडराते फिरते रहते
आकाशगंगा से थिरकते
क्षितिज के इस छोर से उस छोर तक।

दीवारों, रौशनदान से रिसते
चिमनियों से उतरते
दरवाजे, खिड़कीयों तक अधिकार जमा रखा
बिखरे हुए अब हर कोने में।

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