फूलों से भरी घाटी-
रंगीन क्यारियों में सजी -
भीनी भीनी महक, हवाओं में तैरती,
और वो अनगिनत तितलियाँ- एहसास कराती
शायद इन्द्रधनुष इन वादियों को
छूने चला आया।
जहाँ तक देखता
कैद कर लेना चाहता
इस रंगीन खुसबू को -
जो लहराती अपनी ही उमंग में
उस बदली के ओट छिपे सूरज को -
जो अब भी आँख मिचोली कर रहा
वो दूर बर्फीली चोटी को -
जो जाने कितने सवाल कर रही ।
ख्वाब था मेरा शायद,
पर टूटा नहीं, तुमने जो छू लिया-
गहरी नींद से भी जाग कर।
ख्वाब से हकीकत की कड़ी-
बरकरार ।
तुम जो मेरे पास।
जाने कितने गम मेरे
गुमशुदा हो जाते...जब
तुम शामिल हो जाती
एक हलकी सी मुस्कान के साथ।
और घुट जाते बादल,
मंडराने लगते काले साए की तरह
छिन्न भिन्न कर देते - मन के तारों को
जब देखता एक हल्की सी शिकन।
कहीं तुम वो इन्द्रधनुष तो नहीं ?
या फिर बदली से आँख मिचोली करता सूरज -
कितना रंगीन कर दिया मुझे
रह मेरे पास-पास , मेरे साथ-साथ।
कहीं तुम वो झरना तो नहीं ?
झर झर करता निरंतर-
सींच रहा वीरान मंजर, और
अपनी ही कलरव से
छेड़ रहा- न जाने कितने स्वर
इस सुनसान बियाबान जीवन में ।
तितलियों की तरह हवाओं से इतराती-
अपने रंगों को बिखेरा है तुमने ,
हर गीत को मेरे, सुरीले स्वर में ढाला
तुम्हीं ने सजाया, सजीव किया
मेरे हर ख्वाब को।
जब भी खेलती हो अठखेलियाँ,
कभी छिपती, कभी ओझल हो जाती
खुद को समझाता, और तुमसे
सहमता सा पूछ बैठता -
फिर मिलोगे ना ?
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Sunday, February 14, 2010
Wednesday, February 3, 2010
अंदाज़
ताजमहल बनाया मैंने उन पत्थरों को चुन
जो फेंके थे ज़माने ने मोहब्बत पे मेरी
दफना दी नफ़रत, तहखाने में, अब
सुलगते परवाने का अंदाज़ जमाना देखे.
जो फेंके थे ज़माने ने मोहब्बत पे मेरी
दफना दी नफ़रत, तहखाने में, अब
सुलगते परवाने का अंदाज़ जमाना देखे.
वहां कौन
सदियों से यही प्रश्न
कौन रहता था वहाँ?
खिलते बनफूल-
लताओं के झुरमुट के बीच.
बाम्बियाँ होड़ लगाती-
जर्जर दीवारों से.
नित नए पाखियों का कलरव
यही सब संजो रखे इसे
पर यह - शांत शाश्वत.
कहानियाँ चली आ रही
पीढ़ी दर पीढ़ी
आशा- विश्वास की डोर
लटकती उस वट वृख्ष पर
जो भी गया उस द्वार तक
आंखे मूँद नतमस्तक
किसी ने कुछ देखा ही नहीं.
सुना है मैंने
सूरज की पहली किरण
गुजरती है यहीं से
हवाएं मचल उठती
एक हल्का सा सपर्श पा कर
सारी विधि यहीं से शुरू
पर निर्वाक.
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कौन रहता था वहाँ?
खिलते बनफूल-
लताओं के झुरमुट के बीच.
बाम्बियाँ होड़ लगाती-
जर्जर दीवारों से.
नित नए पाखियों का कलरव
यही सब संजो रखे इसे
पर यह - शांत शाश्वत.
कहानियाँ चली आ रही
पीढ़ी दर पीढ़ी
आशा- विश्वास की डोर
लटकती उस वट वृख्ष पर
जो भी गया उस द्वार तक
आंखे मूँद नतमस्तक
किसी ने कुछ देखा ही नहीं.
सुना है मैंने
सूरज की पहली किरण
गुजरती है यहीं से
हवाएं मचल उठती
एक हल्का सा सपर्श पा कर
सारी विधि यहीं से शुरू
पर निर्वाक.
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सफ़र में
सूरज उगता नहीं, ढल जाने के लिए
ज़िन्दगी दी नहीं उसने, सिर्फ गुजर बसर के लिए.
माँगना चाहूं उससे तो, बहुत कुछ मिल सकता है
पर लब सी लिए हैं मैंने, अभी कुछ सोचने के लिए.
रूख बदल सकती हैं, ये हवाएं अगर चलाने लगें
रुकी हुयीं हैं तो बस, उस बदली के बरसने के लिए.
भेज रहा है लहरें सागर, साहिल हिलोरें ले रहा
ख्वाब बुन रखें हैं मैंने, हकीकत में ढलनें के लिए.
आसमान ओढ़ लिया मैंने, धरती के बिछोने पर
एक उम्र काफी नहीं, यह सफ़र तय करने के लिए.
हकीकत से कहाँ गुजरती यह उम्र, ख्वाबों का सहारा था
गुलों ने रंगीन बस्ती सजाई है, चमन में खुसबू बिखेरने के लिए.
ज़िन्दगी दी नहीं उसने, सिर्फ गुजर बसर के लिए.
माँगना चाहूं उससे तो, बहुत कुछ मिल सकता है
पर लब सी लिए हैं मैंने, अभी कुछ सोचने के लिए.
रूख बदल सकती हैं, ये हवाएं अगर चलाने लगें
रुकी हुयीं हैं तो बस, उस बदली के बरसने के लिए.
भेज रहा है लहरें सागर, साहिल हिलोरें ले रहा
ख्वाब बुन रखें हैं मैंने, हकीकत में ढलनें के लिए.
आसमान ओढ़ लिया मैंने, धरती के बिछोने पर
एक उम्र काफी नहीं, यह सफ़र तय करने के लिए.
हकीकत से कहाँ गुजरती यह उम्र, ख्वाबों का सहारा था
गुलों ने रंगीन बस्ती सजाई है, चमन में खुसबू बिखेरने के लिए.
Monday, January 25, 2010
एक ख़याल है , जाने कब तक परवाज चढ़े
एक जूनून है , जाने कब तक रगों में दौड़े
एक जूनून है , जाने कब तक रगों में दौड़े
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