Tuesday, July 21, 2015

प्रेम

प्रेम

30  04  15

शाम का धूँआ-धूँआ स
घाटी के चारों तरफ पहाडियाँ
अधनंगे से नीले काले धरे रूप
काट ली गयी फसलें।
कुछ इंसानों के काम संजोई गयीं
तो कुछ मवेशियों के लिए।
बचे रह गए ठूँठ
उड़ रहे -पंछी चहकते से
होड़ लगाने टुकड़ी बदली के
बस कुछ देर की बात
फिर सन्नाटा ही सन्नाटा।
गुबार सा उठता, उफनता-घुल जाता हवाओं में
बुलबुले सा पल में-मिल जाता पानी में
छोड़ जाता हल्की सी कंपन
समो लेती धरती-थरथर्रा जाती
बहा ले जाती हवाएँ-थरथर्राहट
टकरा पहाड़ियों से गूँज बन उभरती।

धर्म


धर्म
30  04  15
जाल एक बिछा रास्तों का
क्या गगन, क्या जमीन, क्या सागर।
मंजिल की धुन में
हर तरफ-चले जा रहे काफिले
कुछ सवार हो तो कुछ पैदल
मंजर से बेखबर।
मंजिलें कब किसे मिली
रास्ते कब किसी के हुए
फिर भी नहीं चूकते-जोर आजमाने से।
बहुआयामी बहुरंगी -चक्र एक घूम रहा
पल-पल रंग आकार नए दे रहा
कोई विस्मित,तो कोई अचंभित।
टटोलते फिर रहे हथेलियों से अपनी
हथेली जो उगा रखी पांच उंगलियाँ
बिछा रखी जाल लकीरों का
बंद हो कभी भींच जाती उंगलियाँ
ढाँप देती सारी लकीरें।
बसा नाखूनों पर- पाँच सिरों का सर्प
बँधी मुठ्ठियों की शक्ति में
कुलबुलाता, गुदगुदाता।
खुलते ही मुठ्ठी-अपना रंग दिखाता
सारे फन खोल फनफनाता
उगलता गरल विकट
कर देता सारा तन सुन्न
देख पंचमुखी सर्प - हर कोई
सम्मोहित सा उसके वशीभूत।
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दर्शन

दर्शन
30  04  15

कागजों पर खींच लकीरें आड़ी तिरछी
निहोरते अपलक-उभरे कोई तस्वीर
थपथपाते रहे हवाओं को बदहवास
सुनाई दे कोई संगीत।
तस्वीर कोई भी उभरे-बेखबर
सुर कोई भी सजे-अनजान।
लकीरों के बीच से -उतार लेते तस्वीर
खामोशियों से ही-सजा लेते संगीत।
अपनी ही तूली से अपने ही रंग सजाते
अपने ही शब्दों से अपनी ही तरंग।
कुछ वक्ता तो कुछ श्रोता तो कुछ दर्शक
इन्हीं का बना जमघट।

एक और...



एक और...
24. 05. 15

ढूँढ रहा समरांगण में
क्षत विक्षत भीष्म
अपना एक कोना।
डगमगाते कदम- ढोते बोझ अपना ही
थरथराते होंठ-कुछ कहने को तत्पर।
जब तब ना सुना
अब सुने कौन?
विस्मित समय की चाल पर
जो गुजर गया चाल नदी की चल
अब बस मुहाने पर
मिल हो जाना विलीन।

गोद में इस अनंत सागर
हिलोरें ले रहा अनवरत
भेज रहा लहरें अगिनत
इंतज़ार एक रहा  - युग इन्हें
इस मधुर मिलन की वेला का।
Xxxx XXXX XXXX
ठोकर लगी पाँव से 
लुढ़कता देखा सर किसी का
देखने भर को अब मन नहीं
मिलते थे कभी आलिंगन तत्पर
निगाहें फेर देखा- 
कहीं कोई कृष्ण ना दिख जाए
सुनाने लगे, फिर गीता के वचन।
अब भी गूँज रहे -
विकल कर रहे मन।
अमृतमय लगे - इस महासमर से पहले
उन्हीं पर परवाज चढ़
दी तिलांजली -सारे रिश्तों को
भूलाया सारा -अपनापन।
सब उसका खेल- हम निमित्त मात्र
सब उसी में समोना-हम तृण समान
सब उसी का रचा-हम तूली सम।
एक नशा सा भर दिया
सारे रग-रग में
परत एक बिछा दी-उन बातों ने
इन ज्ञानेन्द्रियों के चहुँ ओर
सब कुछ हो गया सुन्न
अब सब कुछ शून्य।
लुढ़क जाने दो सर
जो मर गए - शायद तर गए
जो बच गए- उनसे बदतर।
XXXXX.   XXXXXXX    XXXXX
टप-टप कर बह रहा रक्त
जाने कितना भरा पड़ा-इस तन
जो ढूँढ रहा अब तक
विश्राम करने- अपना एक कोना।
जीवन भर फिरता रहा बेचैन
पिरोता रहा मोतियों की माला।
जब कभी चटख जाते धागे 
बिखर जाते मोती इधर उधर
जोड़ता धागे, बाँधता गाँठें।
रह गयी अधूरी आस मेरी
माला एक पिरोने की।
अब लगा लाशों का अंबार
कोई डूब गयी, कोई तैर रही
रक्त की इस गहरी धार।


सारे शब्द बींध गए
शरीर को मेरे
कभी बही थी स्वेद धार
अब बह रही रक्त धार।
XXXXX.   XXXX. XXXX
मैं बींधा अगिनत बाणों से
सिर्फ देख पाया नपुंसक एक
बना दिया मुझे कर्तव्यच्युत
भूल गया वचन गीता के
और पार होते गए तीर।
सारा अतीत फिर रहा
इन आँखों के समक्ष
पता नहीं एक दुःस्वप्न या सुस्वप्न।
कितनी राहों से गुजरा मैं
उनके अपने ही उतार चढ़ाव
कभी नहीं ठिठका देख
कोई दुराहा या चौराहा।
बल, बुद्धि, सामर्थ्य-
इन्हीं के मेलजोल से
तय करता रहा फासले
हर समय एक समर
और आ पहुँचा इस महासमर।
मिल ओझल हो जाती पगडंडियाँ
कभी उभरती खिली खिली दूब के ओट
तब्दील हो जाती रास्तों में
फिर गुम जाती पेड़ो के झुरमुट।
समय ही कब मिला
सराहने कोई पगडंडी
उलझा दिया रास्तों ने
जो कभी किसी से ना मिले।
मजबूत होती गयी पगडंडियाँ
कमजोर होते गए रास्ते
बँट जाते देख दोराहे
बिखर जाते देख चौराहे।
मैं ही सारथी, मैं ही रथ
मैं ही घोड़ा, मैं ही चाबुक
,मैं ही शस्त्र, मैं ही ढाल
बस रौशनी जुगनुओं के साथ।
XXXXX.   XXXXX.  XXXXX
मेरी आशाएं, मेरी अभिलाषाएँ,
मेरे स्वप्न, मेरे यतन
धूआँ बन तैरते रहे- मेरे इर्द गिर्द
धीरे-धीरे गहराते गए
ढँक दिया आसमान-
छनने ना दी कोई किरण हल्की।
कोई हवा का झोंका तक नहीं
गुजरा मुझे छूकर
तलाशता रहा -अपने आपको
मेरे इस वीरान सफर।
सुनता रहा आवाज काफिलों की
कोलाहल हमसफरों का
बिछड़े देख -बिखरते रास्ते।
काश रौशनी सूरज-चाँद की
तय कर पाती सर्पीले रास्ते
पहुँच जाती क्षितिज से जमीन।
XXXXX.   XXXXX.  XXXXX


लकड़ियाँ जंगलों से बिछड़ गयीं
कुछ दीवारों पर, कुछ खिड़कियों पर
कुछ कमरों की शोभा बनी तो कुछ छतों पर
नंगे पहाड़ों को ढाँपते रहे पत्थर
जो देखते देखते मैदान बन गए।
तराश लिए गए पत्थर
दीवारों, छतों परकटों में
ढाल रह गए पर्वत विशाल।
बसने वाले लोग इनमें, नहीं रहे अछूते
समो ली जंगल की बास
उतार ली पत्थरों की बेरूखी
और बस गए इन मैदान
बन पाषाण, नरभक्ष पशु।
साथ समय की धार
सूने हो गए परकोटे
ढह गयी दीवारें, टूट गयी छतें
ढह गए परकोटे
लग गया लाशों का अंबार
गुम गए लहलहाते जंगल घने
पट गयी अठखेलियाँ करती नदियाँ
अब बस-गूँज रही खामोशियाँ।
वही धुंआ साथ मेरे
वही छिपता सूरज
वही खोया चाँद
और ठोकर में- जाने किसका सर।
XXXXX.   XXXXX.    XXXXX