Thursday, January 1, 2015

समय के पार



बचपन में देखा मैंने
बैलगाड़ी का पगडंडियों से गुजरना।
वो बैलों के गले की घंटियाँ
सुनाई देती थी दूर दराज मोड़ों से।
रोक साईकिल अपनी
रास्ता देता गुजर जाने उनको।
देर तक देखता
एक गुबार हल्का सा धूल का।

बीतते समय के साथ
साईकिल छूटी स्कूटर आया।
बैलगाड़ी ने किया किनारा
मोटर कारें दौड़ी और
छिपा दी पगडंडियाँ
लंबी चौड़ी सड़कों ने ।
किनारा अब भी कर देता
देखता जब उगलता धूंआ जहरीला।
समा जाता, रग रग में मेरे
भाग रहा समय के साथ
ना धूल ना धूँआ
बस बदहवास।

आज- एक युग सा बीत गया
जमीन से ना जाने कितने ऊपर ।
रूई से उड़ रहे बादल इर्द गिर्द
ना कोई सड़क ना ही पगडंडी ।
ना कोई धूल ना ही वो घंटी
बस देख रहा नीचे
इस विमान से नीचे
खेत खलिहान, नदी तालाब
रंग बिरंगी बिछी एक चादर
बिंदु मात्र नज़र आ रहे सब कुछ।
धीरे-धीरे ओझल हो जाते
उस बैलगाड़ी की तरह
जो बस छोड़ जाती
कंपन घंटी की
सारे तन मन में
बिखेर जाती धूल भरे गुबार
जो बसे अब भी मेरे रग रग।
--------------------------- 
18/11/2014

बर्फ़ीली हवाएं



सूनी राहें-
टूटी शाखें-
बिखरा घोंसला,
निहारती चिड़िया।
चली गयी,
सर्द हवा-
चीरती जंगलों को।

वीरान नहीं,
मंजर आगे,
बस्ती बंजारों की
बस रही अभी।
टिमटिमाते सितारे
सिहर रहे-बादलों की ओट।
-------------------------------------------
18/11/2014

अंधेरे चेहरे



इस डाल से उस डाल
छनक छनक आरही रौशनी
नदी एक ढूंढ रही
आगे चलने का रास्ता।

कशिश एक मिलन सागर से
बनती जाती गहराईयाँ
पटते जाते अनजान रास्ते।
-----------------------------------