Wednesday, June 25, 2014

शाम सवेरे

यह शाम
सुहानी कितनी लग रही।
बहने लगी फिर से-
मंद सुगंध हवा और साथ
चहचहाने लगीं चिड़ियाँ।
रंग क्षितिज पर इन्द्रधनुषी सा
बिखर पास अपने बुला रहा।

थकान दिन भर की,
पसीने दुपहरी के
सब घुल मिल - सिरहन सी दौड़ा रहे।
बस पानी देना रहा बाकी
कहते फूल बगिया के मेरे।

हौले-हौले तन जायेगी
चादर काली रात की।
जगमगा उठेंगे जुगनूओं से
टिमटिमाते चाँद तारे।
फिर ढल रात, निखरेगी
एक नए  सवेरे में।

सोचता हूँ-सुस्ता लूं थोड़ा
एक नए दिन के लिए
जो आयेगा उम्मीदें नयी लिए।
पर फर्क कहाँ नजर कोई आया
शाम हो या सवेरा
एक ढलता तो दूजा चढ़ता
मेरे इस सफर में।
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रूढीयाँ



सारे घर में घूमती रहती
निःसंकोच, निर्भय;
पैरों में बंधे घुंघरू,
बजते रहते-छन, छन, छन।
एक पल भी बैठती नहीं
पास मेरे चैन से-
बीच कदमों से निकल भागती।
खाना दो तो-कतरा जाती,
जाने कुछ ढूंढ रही, घर में मेरे
बस घूमती ही रहती बेचैन सी
छन, छन, छन।

अनायास ही कूद खिड़की
जाने कहाँ चली जाती। 
धीरे-धीरे आवाज़ घुंघरूओं की
कमजोर पड़ने लगती-
बस दूर तक-देखता उसे मैं
ओझल होते लाल-पीले फूलों से
दूर लहलहाती झाड़ियों की ओट से।
काले, भूरे चितकबरे रंगों की
सफ़ेद स्याह, वह बिल्ली।

फिर अचानक चौंक कर
उठ पड़ता- गहरे स्वप्न से
देखता पास खड़ी
घूरती-लाल  लाल आँखों से
अजीब सी, डरावनी-
पर भोली-भाली, प्यारी बिल्ली।
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25 जून 2014

Tuesday, June 24, 2014

तबाही

पहाड़ों पर बारिश-
इतनी तो हुई ही नहीं ।
फिर नदी यह
उफन रही - क्यों इतनी?

तोड़ किनारे अपने सब
रास्तों को लगी बहाने,
ढहाने लगी दीवारें घरों की
डुबो रही खेत खलिहान।

कहते हैं- सदियों पहले
उठे थे लपलपाते शोले
इन पहाड़ों पर बसे जंगलों से।
काले भयावह धुंए ने
 ढांप दिये सूरज चाँद।
चारों तरफ फ़ैल गयी चादर अंधियारी
ना कुछ दिखता, ना ही सूझता।
कुछ झुलस स्वाहा हुए
और कुछ घुट बदहवास।

लगता है- धूंआ वही अब
बादल बन बरस रहा।
वरना नीयत ही नहीं -
नदी की किनारे तोड़ने की।
ना ही नीयति गावों की
देर सबेर बह जाने की।
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24-06-14

Tuesday, June 17, 2014

लोग तो -

लोग तो हाथ दोनों उठाकर भी, झूठ सफ़ेद बोल देते हैं,
तुम एक हाथ उठा देख, किस सच की उम्मीद लगाए बैठे हो।

लोग तो गले मिल कर भी, ज़ख्म गहरा दिल पर लगा देते हैं,
तुम सर झुका देख उनका, किस वफ़ा की तलाश में बैठे हो ।

लोग तो कहकहों से, आँसू हज़ार दामन में बिखेर देते हैं,
तुम हल्की सी मुस्कान पर किसकी, दुनिया अपनी लुटाये बैठे हो ।

लोग तो मौका मिलते ही, याराना सदियों का भुला बैठते हैं
तुम पल पल याद कर, कोशिश में किसे भूलाने बैठे हो ।

उसके लिए-

वो जानता - कहाँ सजाना मुझे
शब्द एक मैं उसके लिये -
नित नए भावों में सजा मुझे
कविता अपनी निखार रहा ।

तलाश कर रहा वह - एक नयी धुन
स्वर एक मैं, उसके  लिये -
साज पर अपने तरंगों में सजा
कविता में प्राण नए फूंक रहा ।

देखा है मैंने उसे - खींचते आड़ी तिरछी रेखाएं
रंग एक मैं,  उसके लिए -
तूली पर अपनी सजा
सपनों को आकार इन्द्रधनुषी दे रहा ।

लहरों सा बार बार भेजता मुझे
कभी सीपी देकर, तो कभी मोती
सब कुछ किनारे धर बेकल सा मैं 
बार बार लौट - समा जाता उसमें ।

हाय री किस्मत-

बोल पर मेरे मत जाओ
अचानक मिले जो तुम,
चौंका दिया मुझे
आज पहली बार।

रोता बिलखता छोड़
जाने कहाँ गुम हो गए - निर्मोही ।
आज साथ ले जाने को
इतने क्यों तत्पर ?

जाने गिले - शिकवे कितने,
कितने किस्से अधूरे- कहने तुमसे ।
कहाँ-कहाँ भटकता, ढूँढता
नहीं फिरा मैं।
कोई पता भी ना दिया
पूछूं  तो किससे पूछूं  ।
ना मुझे कोई यहाँ जानता,
ना तुम्हें कोई पहचानता,
कहो - कहाँ ओझल हो गए तुम?

मनमीत मेरे-
मैं ही जानता - कटे कैसे मेरे दिन रात।
वो निश्छल चेहरा तुम्हारा, वो कोमल स्पर्श
वो मीठे बोल , वो सपने सुहाने
समय की धार पर - सब धुलते गए।
जाने कितनों से मिला और कितनों से बिछड़ा
कितना संजोया, और लुटाया
कभी मुस्कुराता तो कभी पोंछता आँसू
जहां भी रहा - एक टीस सी रही
मन के अन्दर
और मन के  कोने में
इंतज़ार तुम्हारा।

आंसूओं पर मेरे मत जाओ
मुझे ही नहीं मालूम
घुले हैं इनमें ना जाने
कितने खुशी और कितने गम।
देख तुम्हें आज अचानक यहाँ
इतराऊँ  या कोसूं किस्मत अपनी?
साथ अपने ले चलने का
कर रहे हो वादा या
फिर किसी और मेले में
छोड़ बिलखता-
ओझल होने का तो
नहीं कोई इरादा?
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अधूरा स्वप्न

एक अधूरा स्वप्न, हो तुम.
साथ साथ मेरे - फिर भी 
रोम रोम मेरे सिहर रहे.
मैं जहां भी रहूँ - जो भी करूं 
संग मेरे - रहते हो तुम.

अभी अभी  - जो छू कर गयी 
अभी अभी - जो छल कर गयी 
नित नए रंगों में ढल, आते - जाते 
पल पल नूतन - स्पर्श हो तुम. 

कोई मेरे आगे, कोई मेरे पीछे
भीड़ में मैं , मुझमें भीड़ 
कोई कहता कुछ , कोई सुनता कुछ
मन का मेरे शांत - कोलाहल हो तुम.  

ना मैं तुमसे अछूता , ना तुम मुझसे 
परे परे रहकर भी , एक दूसरे को निहोराते 
सब कुछ संजोया मेरा- बिखर सा जाता 
दर्पण में छिपा , एहसास मेरा हो तुम.
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जीवन कल

बार बार भेजता
सागर लहरों के रेले. 
किये थे जिन्होंने 
कभी पर्वतों को 
रेतीले टीले . 
अब सर धुनता सागर 
जब सोख लेते , 
हर लहर 
वही रेतीले टीले. 
परिसीमित कर दिया 
सागर का अहम्, 
समय के फेर ने.

काँप गया , 
तूफ़ान का जोर 
बिजली सी दौड़ा दी ,
आसमान में 
जब देखा 
हल्की सी हवा में 
टूटते पत्ते को 
मिट्टी बन , 
मजबूत करते जड़ों को. 

हर महाविनाश पर , 
बोया जा रहा 
बीज नया 
संचार होता नवजीवन 
रोक नहीं पाया कोई 
निर छल, निर्मल , 
पावन-पल पल 
समय की 
मद्धम धार
अविरत , 
अनंत और अगाध.
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महक
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महक मेरे मन की - 
अब तक छिपी हुई - 
सीप में मोती सी.
कभी निकलने को बेकल 
कभी डरी सहमी सी- 
गुमसुम. 
मुठ्ठी में क़ैद - 
एक जुगनू बिखेरता 
चमक अपनी. 
बेखबर क़ैद से-
अनजान दिन से . 
जाने कहाँ तक 
फैले खुशबू.
जाने कब तक 
रहे चमक. 
ना रोके रुकती खुशबू 
ना बांधे बंधती चमक. 
कोई होड़ नहीं खुशबूओं में 
मदमस्त बहती  
तरंगों पर हवाओं 
के साथ छिप जाती 
कलि में फिर
फूल से बिखरती . 
चमक चमकती पेड़ों पर 
अनजान अपनी ही 
पहचान से. 
महक मेरे मन की 
बेकल-छिपी हुई... 
बेकल बिखरने को ..

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गुलदस्ता

गुलदस्ते में सजे फूल
काट-छांट कर सजाये हुए।
कट गयी हैं जड़ें किसी की
तो कट गयी- शाख, पत्ती किसी की।
खुशबू से सरोकार नहीं किसीको
सब हैं रंगों को देख बेकाबू।

कभी नहाते थे फूल यही- 
रौशनी सूरज चाँद की में
अब चुंधिया से जाते-
देख टिमटिमाती दुकान की रौशनी।
आंधी, तूफ़ान, बिजली-
देख कभी ना ये लरजे।
अब काँप से जाते-
देख मंडराते भौंरे, तितली।
कोइ सिहर सा जाते, कोई लजा सा जाता 
पाकर हल्का सा स्पर्श।
जाने कौन देश इनका
जाने कौन सी मिट्टी पानी-
रंग बिखेरते सब,
सजे यहाँ - एक गुलदस्ते में।

खाना - पीना मिलता,  मुस्कुराने भर को
इजाजत नहीं मुरझाने की।
बाजार भरा खरीददारों से,
नीलामी कहीं, तो कहीं होते मोलभाव।
मतलब निकल जाने भर का इन्तजार
खरीददारों को- गुलदस्ते से।
फिर फेंक देते सजाने- ढेर कचरे के।

क्यों सिहर जाता मैं- क्यों मुस्कुराते तुम
देख दुकान पर- रंग बिरंगा गुलदस्ता।
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सुलगती जिन्दगी...

मन के ख्यालों से
उठता है धुँआ-
सब कुछ कर देता धूमिल।
सूझने समझने की कोशिशे
घुट सी जाती।

इसी धूएँ की परत दर परत ऊपर
बिखरे हैं बादल सपनों के-
उजले सफ़ेद जगमगाते से दिखते
जब भी किरण आशा की
छन कर आती इनसे।

बरसेंगे बादल, यकीन है मुझे-
चल रही मंद सुगंध
मेरी चाहत की हवा।
छट जाएगा धुँआ
दूर हो जायेगी बेचैन घुटन।

थोड़ा सा इन्तजार,
थोड़ा सा सब्र
भर रहा हूँ साँसों से
अपने इस-सुलगते जीवन में।
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09जून 14