Tuesday, June 17, 2014

गुलदस्ता

गुलदस्ते में सजे फूल
काट-छांट कर सजाये हुए।
कट गयी हैं जड़ें किसी की
तो कट गयी- शाख, पत्ती किसी की।
खुशबू से सरोकार नहीं किसीको
सब हैं रंगों को देख बेकाबू।

कभी नहाते थे फूल यही- 
रौशनी सूरज चाँद की में
अब चुंधिया से जाते-
देख टिमटिमाती दुकान की रौशनी।
आंधी, तूफ़ान, बिजली-
देख कभी ना ये लरजे।
अब काँप से जाते-
देख मंडराते भौंरे, तितली।
कोइ सिहर सा जाते, कोई लजा सा जाता 
पाकर हल्का सा स्पर्श।
जाने कौन देश इनका
जाने कौन सी मिट्टी पानी-
रंग बिखेरते सब,
सजे यहाँ - एक गुलदस्ते में।

खाना - पीना मिलता,  मुस्कुराने भर को
इजाजत नहीं मुरझाने की।
बाजार भरा खरीददारों से,
नीलामी कहीं, तो कहीं होते मोलभाव।
मतलब निकल जाने भर का इन्तजार
खरीददारों को- गुलदस्ते से।
फिर फेंक देते सजाने- ढेर कचरे के।

क्यों सिहर जाता मैं- क्यों मुस्कुराते तुम
देख दुकान पर- रंग बिरंगा गुलदस्ता।
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