Wednesday, June 25, 2014

रूढीयाँ



सारे घर में घूमती रहती
निःसंकोच, निर्भय;
पैरों में बंधे घुंघरू,
बजते रहते-छन, छन, छन।
एक पल भी बैठती नहीं
पास मेरे चैन से-
बीच कदमों से निकल भागती।
खाना दो तो-कतरा जाती,
जाने कुछ ढूंढ रही, घर में मेरे
बस घूमती ही रहती बेचैन सी
छन, छन, छन।

अनायास ही कूद खिड़की
जाने कहाँ चली जाती। 
धीरे-धीरे आवाज़ घुंघरूओं की
कमजोर पड़ने लगती-
बस दूर तक-देखता उसे मैं
ओझल होते लाल-पीले फूलों से
दूर लहलहाती झाड़ियों की ओट से।
काले, भूरे चितकबरे रंगों की
सफ़ेद स्याह, वह बिल्ली।

फिर अचानक चौंक कर
उठ पड़ता- गहरे स्वप्न से
देखता पास खड़ी
घूरती-लाल  लाल आँखों से
अजीब सी, डरावनी-
पर भोली-भाली, प्यारी बिल्ली।
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25 जून 2014

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