Wednesday, June 25, 2014

शाम सवेरे

यह शाम
सुहानी कितनी लग रही।
बहने लगी फिर से-
मंद सुगंध हवा और साथ
चहचहाने लगीं चिड़ियाँ।
रंग क्षितिज पर इन्द्रधनुषी सा
बिखर पास अपने बुला रहा।

थकान दिन भर की,
पसीने दुपहरी के
सब घुल मिल - सिरहन सी दौड़ा रहे।
बस पानी देना रहा बाकी
कहते फूल बगिया के मेरे।

हौले-हौले तन जायेगी
चादर काली रात की।
जगमगा उठेंगे जुगनूओं से
टिमटिमाते चाँद तारे।
फिर ढल रात, निखरेगी
एक नए  सवेरे में।

सोचता हूँ-सुस्ता लूं थोड़ा
एक नए दिन के लिए
जो आयेगा उम्मीदें नयी लिए।
पर फर्क कहाँ नजर कोई आया
शाम हो या सवेरा
एक ढलता तो दूजा चढ़ता
मेरे इस सफर में।
----------

No comments:

Post a Comment