पहाड़ों पर बारिश-
इतनी तो हुई ही नहीं ।
फिर नदी यह
उफन रही - क्यों इतनी?
तोड़ किनारे अपने सब
रास्तों को लगी बहाने,
ढहाने लगी दीवारें घरों की
डुबो रही खेत खलिहान।
कहते हैं- सदियों पहले
उठे थे लपलपाते शोले
इन पहाड़ों पर बसे जंगलों से।
काले भयावह धुंए ने
ढांप दिये सूरज चाँद।
चारों तरफ फ़ैल गयी चादर अंधियारी
ना कुछ दिखता, ना ही सूझता।
कुछ झुलस स्वाहा हुए
और कुछ घुट बदहवास।
लगता है- धूंआ वही अब
बादल बन बरस रहा।
वरना नीयत ही नहीं -
नदी की किनारे तोड़ने की।
ना ही नीयति गावों की
देर सबेर बह जाने की।
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24-06-14
इतनी तो हुई ही नहीं ।
फिर नदी यह
उफन रही - क्यों इतनी?
तोड़ किनारे अपने सब
रास्तों को लगी बहाने,
ढहाने लगी दीवारें घरों की
डुबो रही खेत खलिहान।
कहते हैं- सदियों पहले
उठे थे लपलपाते शोले
इन पहाड़ों पर बसे जंगलों से।
काले भयावह धुंए ने
ढांप दिये सूरज चाँद।
चारों तरफ फ़ैल गयी चादर अंधियारी
ना कुछ दिखता, ना ही सूझता।
कुछ झुलस स्वाहा हुए
और कुछ घुट बदहवास।
लगता है- धूंआ वही अब
बादल बन बरस रहा।
वरना नीयत ही नहीं -
नदी की किनारे तोड़ने की।
ना ही नीयति गावों की
देर सबेर बह जाने की।
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24-06-14
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