Friday, June 5, 2015

मेरा गाँव

मेरा गाँव
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मेरा गाँव अब शहर हो गया
कब देखी इसने काली लंबी नागिन सड़कें
कब छुए बिजली के तार।
रोज जो- सना रहता मिट्टी, गोबर में
अब महकाते रंगीन बाजार।
मंदिरों की घंटियाँ, मस्जिदों के अजान
दब रह जाते, लाउडस्पीकरों में
पट गयी बू गाँव की, शहर की खुशबूओं में।
चौपालें- बाँटती थी सबके सुख दुःख
दंग देख मदिरालय की चालें।
पनघट पर जाती- छमछमाती गँवारने
थम गयी घर के नलकों पर।
हरियाली से लहलहाते खेत
दब गए कारखानों के बोझ तले।
जो शाम होती - धूल से नहाता आसमाँ
अब घर में दुबक सांस थाम रहे गँवार।
बारिश में उछलती नन्ही नदियाँ
बहती रहीं घर के बरामदों से।
पाट दिया शहर की सड़कों ने
ढाँप दिया नालियों ने।
किलकारी मार बच्चे -भाग पकड़ते मेंढक
तैराते थे नावें अपनी - जाने कितनी दूर तक डोलती।
सोख ली शहर ने नदी, चुप कर दी किलकारियाँ
पानी शहर का गांव पर मेरे
चढ़ने लगा बड़ी तेजी।
रंगीन शहर के स्वनिल सपने
देख हिंडोले लेता गाँव मेरा।
माँपदंड गाँव के मूल्यहीन हुए
नए दाँव पेच सीखा रहा शहर।

यह कौन - काफिला लेकर आया
इतने दिनों बाद कोई गाँव के कपड़े पहने देखा
ढोल, नगाड़े, करतल ध्वनी गूँज रही।
क्या है इसका काम?
किससे इसे सरोकार?
बखान रहा शहरी गाँव की उन्नति।
क्या है माजरा - या सब?

झूठ पर खड़ा शहर - उचक बैठ गया 
मेरे गाँव के कन्धों पर।
उतारो इसे
बोझ झूठ का- कभी नहीं सहा गाँव ने मेरे।
झूठ पर खड़े होते - सिर्फ लाक्षागृह।
क्या होगा जब जल जाएगा शहर
मिटा देगा गाँव को मेरे अपने साथ।
शायद फिर एक सदी लगे
बसने मेरे गाँव को?

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उलझन

उलझन
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एक डुबकी और
इस ठन्डे नदी के पानी में।
मन ही नहीं हो रहा 
बाहर निकलने का।
थरथराता सा हौले हौले
उतारा (था) अपने आपको
फिर (होगी) वही थरथराहट
बाहर निकलते ही।

बहता आ रहा - टुकड़ा एक काठ का
लहरों से आँख मिचौली करता
एक लकीर स्याह सी
नदी पर बनती, मिटती।
थोड़ी धूप छलके 
तो कोहरा छँटे।
गुनगुनी धूप, चुभती ठण्ड
आँखों को भी आराम
शरीर को भी राहत।
पर नहीं।

काली स्याह- लकड़ी
रंग और भी गहराता जा रहा।
काठ का टुकड़ा-
लगता तो नहीं।
ओह-लाश है एक।
हाथ -पाँव सुन्न से हो गए
लाश-किसकी?
कब से- कहाँ से
बही चली आ रही?
जाने सवाल कितने
गुजर गए जहाँ से।

मछलियाँ नोच रही होंगी
इसीलिए पानी में गोता लगा रही
वो जो दिख रहे थे पंछी
गिद्ध , चील कौवे थे- उड़ जाते
फिर बैठ नोचने लगते।
नहीं होंगे अंतिम संस्कार को पैसे - बहा दिए 
और बाह गयी यह।
यह तो इधर ही आ रही-
जल्दी से बाहर निकलूँ
या इसे बाहर निकाल
यहीं पास में क्रियाक्रम करूँ
कुछ तो अच्छा होगा।
पुण्य कमाने की आस
प्रबल होने लगी मन में।
उचक कर चाहा देखना- पर
फिर डूब चुकी थी।
उभरी तो- कुछ परे नज़र आयी
इशारा किया एक नाव को
नकार दिया उसने।
शायद डर गया होगा
कौन पड़े पुलिस के झमेले में
फिर कोर्ट, कचहरी- समय पैसे  की बर्बादी
कहाँ किसके पास-
एक गुमनाम, अनजान- लाश के लिए।
देखता रहा दूर तक उसे
आँखों से ओझल होते हुए।
झल्ला कर बाहर निकाला
अब नहीं लग रही थी ठण्ड
पर रोष और खिन्नता से
भरा था मन।


धीरे धीरे पाँव बढ़ाये
माथा टेक मंदिर में
जल चढ़ाया जल तुलसी को।
दिन भर के काम- तैर रहे थे
आँखों क सामने।
इसी राह के आगे मोड़ एक
उसी के पास बाग़
उधर से होकर जाऊंगा
विचलित मन - थोड़ा बहलेगा
वक़्त थोड़ा और लगेगा।
बचा खुचा पानी लौटे का
छोटी सी फूलों की क्यारी में
उंडेल आगे बढ़ने की सोचा।
पर उंगलियां अनायास ही
सहलाने लगी पत्तियाँ।
कभी फूलों को हथेलियों में रखता
तो कभी रंग बिरंगे फूलों पर
हाथ हौले हौले फिराता।
मिली जुली फ़ूलों की सुगंध
मन को हिलोरें देतीं।

कुछ पल बीते ही थे कि
बारिश की हल्की बूंदों ने
स्वप्निल ख्वाब तोड़े।
अब- अचानक- बारिश!
तेजी से - एक पेड़ के नीचे
लगा खुद को सुखाने।
पत्तों, फूलों और फलों से भरा
छतरी जैसा पेड़।
बारिश की बूँदें - जाने कहाँ
हो जाती ओझल।
कोई पत्ते छोटे, कोई बड़े
कहीं कोंपले उग रहीं
कहीं पीलापन लिए, झड़ने को तैयार।
पर- सब हवा संग डोल रहे
एक ही तरंग में, एक ही लय में।
कोई गिरता भी तो- झूमता सा
लहराता सा, भँवर बनाता
धीरे से- उत्फुल्ल
माटी पर लोट पलोट होता।
अनेकों फूल- बिखेर रहे
अपनी मंद सुगंध।
लुभा रहे मधुमखी तितलियों को
और वो भी रस स्वाद कर रहे।
अनेकों फल- कोई कच्चे तो कोई पक्के
संजो रखे अगिनत बीज गर्भ में।
जाने कितनों की भूख मिटायें
जाने कितने और को आसरा दें।
चारों तरफ अपने
बिछा रखा शाखाओं का जाल।

पीछे बहुत छूट गयी
वो थरथराहट, साथ
वो भय, वो रोष, वो खिन्नता।
अभी राम गया मन- इस बाग़ में
इस सरल, सरस प्रकृति में।
इन पत्तों से छन कर
आने लगी अब धूप।
छँट बदली, निखर रहा सूरज
शुरू हो गया नया दिन।
चलूँ घर - और अनेकों काम
पूरे करने- उलझते सुलझते
इस मन की तरंगो पर।
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04June 2015

Thursday, June 4, 2015

ख्वाब-ग़ज़ल

ख्वाब एक हसीं मंजर का, परवान चढ़ रहा था,
सिसकियों ने जाने किसकी, मंजर ही सारा पलट दिया।

उम्मीद पर अभी अभी, संभले थे जानिबे मंजिल
हकीकत ने फिर से,  जखम दिल का हरा कर दिया।

लौट आने का वादा, खूब किया निगाहों ने तेरे
दरो दीवार के सायों ने, तनहा ना हमें रहने दिया।

रौशनी उनकी आँखों की, क्या बताएं हम तुम्हें
रात देर तक हमें, सोने चैन से एक पल ना दिया।

कहते थे बातें हमारी, सुकून दिल को उन्हें देती हैं
महफ़िल में चुरा कर नज़रें हमसे, अजनबियों से वास्ता उन्होंने किया।

बेतकल्लुफ़ी का गिला कब था इस दिल को
बेरुखी ने  उनकी, अब ज़िंदा ना रहने दिया।

दो लाईना



ये किस मुकाम पर आ गयी ज़िंदगी
 मरने से ज्यादा  जीने को डर लगता।

दरिया बन समुन्दर की चाहत में 
पत्थरों से जाने क्या निकले,
समुन्दर से मिले तो उसे
पत्थरों में ओझल होते  देखे।

गलियारे


गलियारे
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गुज़रते देखा है मैंने
रास्ते शहरों के बीच।
किनारा कर लेते
ईंट गारों के मकान।

कुछ रास्ते गुज़र जाते 
गावों की ओट से
बाँधे रखती उनको
गलियाँ, धागों से बिखरती।

ओझल होती गलियाँ
इन्हीं अनजाने रास्तों पर
भटकती फिरती-
सोचती रहतीं, 
ये रास्ते अनजाने
जाने कहाँ ओझल होते।

मैं भी निकला मंजिल पर अपनी
गलियों से होते, गुज़रते इन्हीं रास्तों पर।






सब कुछ चाहिए

इस बीज को - सब कुछ चाहिए।
इंतज़ार इसे
थोड़ी बारिश, थोड़ी गर्मी,
थोड़ी ठण्ड, थोड़ी गर्मी।
अभी चीर सीना धरती का
देखना गगन विशाल।

इस पौधे को - सब कुछ चाहिए।
थोड़ी हवा, थोड़ी ओस,
थोड़ी धूप, थोड़ी छाँव।
लहलहाता सा मुस्कुराता
खिले उठेंगी बांछें, सिमट जाएगा आकाश।

इस पेड़ को - सब कुछ चाहिए।
थोड़ी आँधी, थोड़ा सूखा, 
थोड़ी बिजली, थोड़ा तूफ़ान।
फूटती कोंपलें चूम रही गगन विशाल
बस रहे बसेरे, फल रहे बीज नए।

इस जीवन को भी सब कुछ चाहिए।
कभी मिलता ,
और कभी -
अधूरा सा छूट जाता।
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29/05/15

विवशता

सब कहते हैं-
यह लड़ाई धर्म की है।
फिर हर बार, हर तरफ
आदमी ही क्यूँ मर रहा?

गूँज रही हर दिशा
उखाड़ देंगे सत्ता झूठ की।
पर हर बार क्यूँ
उजड़ जाती - घास फूस की झोंपड़ियाँ।

कोई कहता मुझसे
चुप हो जाओ- अभी सुनोगे सुमधुर संगीत।
पर क्यों सुन नहीं पा रहा - वह
इस सन्नाटे में - वो सिसकियाँ।
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24 May 2015

दर्द/अहसास

टूटी टहनी,
बिखरे पत्ते,
उजड़े नीड़,
बिलखती नन्ही सी चिड़िया।
कब देखा पलटकर
दूर जाते उस
मदमस्त हवा के झोंके ने?
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08 May 2015