Friday, June 5, 2015

उलझन

उलझन
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एक डुबकी और
इस ठन्डे नदी के पानी में।
मन ही नहीं हो रहा 
बाहर निकलने का।
थरथराता सा हौले हौले
उतारा (था) अपने आपको
फिर (होगी) वही थरथराहट
बाहर निकलते ही।

बहता आ रहा - टुकड़ा एक काठ का
लहरों से आँख मिचौली करता
एक लकीर स्याह सी
नदी पर बनती, मिटती।
थोड़ी धूप छलके 
तो कोहरा छँटे।
गुनगुनी धूप, चुभती ठण्ड
आँखों को भी आराम
शरीर को भी राहत।
पर नहीं।

काली स्याह- लकड़ी
रंग और भी गहराता जा रहा।
काठ का टुकड़ा-
लगता तो नहीं।
ओह-लाश है एक।
हाथ -पाँव सुन्न से हो गए
लाश-किसकी?
कब से- कहाँ से
बही चली आ रही?
जाने सवाल कितने
गुजर गए जहाँ से।

मछलियाँ नोच रही होंगी
इसीलिए पानी में गोता लगा रही
वो जो दिख रहे थे पंछी
गिद्ध , चील कौवे थे- उड़ जाते
फिर बैठ नोचने लगते।
नहीं होंगे अंतिम संस्कार को पैसे - बहा दिए 
और बाह गयी यह।
यह तो इधर ही आ रही-
जल्दी से बाहर निकलूँ
या इसे बाहर निकाल
यहीं पास में क्रियाक्रम करूँ
कुछ तो अच्छा होगा।
पुण्य कमाने की आस
प्रबल होने लगी मन में।
उचक कर चाहा देखना- पर
फिर डूब चुकी थी।
उभरी तो- कुछ परे नज़र आयी
इशारा किया एक नाव को
नकार दिया उसने।
शायद डर गया होगा
कौन पड़े पुलिस के झमेले में
फिर कोर्ट, कचहरी- समय पैसे  की बर्बादी
कहाँ किसके पास-
एक गुमनाम, अनजान- लाश के लिए।
देखता रहा दूर तक उसे
आँखों से ओझल होते हुए।
झल्ला कर बाहर निकाला
अब नहीं लग रही थी ठण्ड
पर रोष और खिन्नता से
भरा था मन।


धीरे धीरे पाँव बढ़ाये
माथा टेक मंदिर में
जल चढ़ाया जल तुलसी को।
दिन भर के काम- तैर रहे थे
आँखों क सामने।
इसी राह के आगे मोड़ एक
उसी के पास बाग़
उधर से होकर जाऊंगा
विचलित मन - थोड़ा बहलेगा
वक़्त थोड़ा और लगेगा।
बचा खुचा पानी लौटे का
छोटी सी फूलों की क्यारी में
उंडेल आगे बढ़ने की सोचा।
पर उंगलियां अनायास ही
सहलाने लगी पत्तियाँ।
कभी फूलों को हथेलियों में रखता
तो कभी रंग बिरंगे फूलों पर
हाथ हौले हौले फिराता।
मिली जुली फ़ूलों की सुगंध
मन को हिलोरें देतीं।

कुछ पल बीते ही थे कि
बारिश की हल्की बूंदों ने
स्वप्निल ख्वाब तोड़े।
अब- अचानक- बारिश!
तेजी से - एक पेड़ के नीचे
लगा खुद को सुखाने।
पत्तों, फूलों और फलों से भरा
छतरी जैसा पेड़।
बारिश की बूँदें - जाने कहाँ
हो जाती ओझल।
कोई पत्ते छोटे, कोई बड़े
कहीं कोंपले उग रहीं
कहीं पीलापन लिए, झड़ने को तैयार।
पर- सब हवा संग डोल रहे
एक ही तरंग में, एक ही लय में।
कोई गिरता भी तो- झूमता सा
लहराता सा, भँवर बनाता
धीरे से- उत्फुल्ल
माटी पर लोट पलोट होता।
अनेकों फूल- बिखेर रहे
अपनी मंद सुगंध।
लुभा रहे मधुमखी तितलियों को
और वो भी रस स्वाद कर रहे।
अनेकों फल- कोई कच्चे तो कोई पक्के
संजो रखे अगिनत बीज गर्भ में।
जाने कितनों की भूख मिटायें
जाने कितने और को आसरा दें।
चारों तरफ अपने
बिछा रखा शाखाओं का जाल।

पीछे बहुत छूट गयी
वो थरथराहट, साथ
वो भय, वो रोष, वो खिन्नता।
अभी राम गया मन- इस बाग़ में
इस सरल, सरस प्रकृति में।
इन पत्तों से छन कर
आने लगी अब धूप।
छँट बदली, निखर रहा सूरज
शुरू हो गया नया दिन।
चलूँ घर - और अनेकों काम
पूरे करने- उलझते सुलझते
इस मन की तरंगो पर।
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04June 2015

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