Thursday, June 4, 2015

गलियारे


गलियारे
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गुज़रते देखा है मैंने
रास्ते शहरों के बीच।
किनारा कर लेते
ईंट गारों के मकान।

कुछ रास्ते गुज़र जाते 
गावों की ओट से
बाँधे रखती उनको
गलियाँ, धागों से बिखरती।

ओझल होती गलियाँ
इन्हीं अनजाने रास्तों पर
भटकती फिरती-
सोचती रहतीं, 
ये रास्ते अनजाने
जाने कहाँ ओझल होते।

मैं भी निकला मंजिल पर अपनी
गलियों से होते, गुज़रते इन्हीं रास्तों पर।






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