Thursday, June 4, 2015

ख्वाब-ग़ज़ल

ख्वाब एक हसीं मंजर का, परवान चढ़ रहा था,
सिसकियों ने जाने किसकी, मंजर ही सारा पलट दिया।

उम्मीद पर अभी अभी, संभले थे जानिबे मंजिल
हकीकत ने फिर से,  जखम दिल का हरा कर दिया।

लौट आने का वादा, खूब किया निगाहों ने तेरे
दरो दीवार के सायों ने, तनहा ना हमें रहने दिया।

रौशनी उनकी आँखों की, क्या बताएं हम तुम्हें
रात देर तक हमें, सोने चैन से एक पल ना दिया।

कहते थे बातें हमारी, सुकून दिल को उन्हें देती हैं
महफ़िल में चुरा कर नज़रें हमसे, अजनबियों से वास्ता उन्होंने किया।

बेतकल्लुफ़ी का गिला कब था इस दिल को
बेरुखी ने  उनकी, अब ज़िंदा ना रहने दिया।

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