Thursday, April 2, 2015

बदलते मौसम

उस दिन मौसम बर्फीला रहा
धीमे- धीमे आसमान से
गिर रहे थे अगिनत बर्फ के फोहे।
रंग सारे घुल सफेदी में ढल रहे
चादर सफेदी की तन रही चहुँ और।
खिड़की से नजारा साफ़ नज़र आता
किलकारियां बच्चों की मन को मगन कर रही
कोई बरफ के  गोले फेंकता
कोई घरोंदे बनाता
सब हिलमिल आनंद में झूमते।
अचानक आसमान पर देखा किसीने
सभी झुंड में भागते नजर आये
मैंने भी नज़र उठाई-देखा ध्यान से
एक पंख लहराता झोंके पवन के संग
धीरे धीरे नीचे उतर रहा।
रंग पंख का नज़र नहीं आ रहा
चारों तरफ फोहे बरफ के  चिपक रखे
कुछ उड़ जाते तो, कुछ और चिपक जाते
कभी तेजी से नीचे आता तो
अगले ही पल थोड़ा ऊंचा उड़ जाता।
होड़ सी मच रही सारे बच्चों में
कभी आगे भागते, कभी रुक जाते
फिर ऊपर ही देखते देखते पीछे को होते
कोई गिर जाता तो अगले ही पल
बरफ झाड़ उसी उत्साह से फिर भागने लगता ।
पर पंख इन सबसे अनजान
हवा के  संग संग अठखेलियाँ खेलता
अपनी ही धुन में दूरी तय कर रहा।
आसमान पर देखा मैंने , सबकुछ साफ़
ना कोई चिड़िया, ना कोई पखेरू
फिर पंख यह कहाँ से आया?
शायद बाज़ कोई दबोच किसी को
नोच दिया पंख, भूख अपनी मिटाने
उड़ गया दूर कहीं, बैठा होगा
किसी एक पेड़ पर।
पर बच्चों को इन सबसे क्या
वो तो इसी इन्तजार में- कब यह हाथ लगे
और पकड़ इसे दूर तक भागें
जैसे भागता खिलाड़ी कोई
जीत ट्राफी खेल के मैदान में।
आंखमिचोली हवा की बढाती बेचैनी बच्चों की
मैं भी इसी इन्तजार में
किसके  हाथ पंख यह लगे।
अभी अभी जो हिलमिल खेल रहे
जुट गए जाने कैसी होड़ में।
पंख को देर है अभी
कोई जल्दी नहीं- जमीन को छू ने
पर भगदड़ सी मची जमीन पर।

पर देखता रहा खिड़की से मैं
बदलता मौसम,बदलते अंदाज।
सोचता रहा मन कहाँ से आया पंख
इस बर्फीले तूफ़ान में चिड़िया कोई
भूल अपना नींड़, भटक तो नहीं रही
झटक पंखों से बरफ- हल्की हो
बेचैन सी, बेबस दिशाहीन
पर दूर तक  क्षितिज पर- सब कुछ शून्य।
ठीक से दिखता भी कहाँ
मौसम ही कुछ ऐसा - मिजाज अपना बना बैठा।
शोर अचानक सुन कर ध्यान मेरा बंटा
बच्चे एक के  ऊपर एक बेतहास
जाने किसके हाथ पंख लगा
या बस यूं ही जमीन कुरेद रहे।
नहीं- कोई तो हाथ ऊपर कर
पंख दिखा भाग रहा-पर
किसी दूसरे ने उसे धक्के से दिया गिरा
छीन पंख वह बहादुरी अपनी दिखा रहा
साथ हो लिए दो तीन और
दूसरों से उसे बचा रहे।
देखते देखते गुट दो बन गए
बर्फ के  गोले कुछ पल पहले
एक दूसरे पर शैतानी से फेंक रहे
वही अब निशाने साध जाने दुश्मनी कोई निकाल रहे।
गूँजती किलकारियाँ चीख चिल्लाहट में बदल गयीं।
कोई ताने कास रहा तो कोई खीजा रहा
कोई मूंह चिढ़ा रहा तो कोई हूंकार भर रहा
मैदान खेल का रणभूमी में बदल गया।
एक दूसरे पर आपस में लगे झपटने
कोई कपड़े खींच रहा, कोई बाल
कोई थप्पड़ मार रहा, कोई मुक्का।
मैं हक्का-बक्का सा खिड़की पर खड़ा
तेजी से दरवाजे को भागा
दो तीन पड़ोसी और अपने अपने घरों से निकले
खेल खेल में वक़्त ने कहाँ से कहाँ ला पहुंचाया।
कोई बच्चा रो रहा, तो कोई शिकायत करता
कोई कपड़े झाड़ रहा, तो कोई आँखें दिखा रहा।
धीरे धीरे घर को अपने सब पहुंचे।
पल में ही मैदान सारा सूना
किलकारियां खामोशियों में ढल गयीं
वापस घर को मुड़ा तो
देखा पंख बरफ के गोले से झाँक रहा
हाथ में ले उसे, बरफ उसकी झाड़ी
रंग रूप पर उसके ध्यान ही कहाँ गया
दूर दूर तक नज़र पहुंचाई
दूर पेड़ एक पर शायद आँखें दो नज़र आयीं।
कहीं यही वो बाज़ तो नहीं , भूख अपनी मिटा
आनंद ले रहा कोलाहल का
पलक झपका झपका कर देख रहा
आनंद मगन बच्चों का समरांगण।
वो भटकी चिड़िया तो नहीं
थकी हारी बैठ पेड़ पर
भीतत्रस्त देख कोलाहल।
गोला बरफ का मैंने भी एक बनाया
फेंकना चाहा पेड़ की डाल पर
हाथ अनायास ही रुक गए
ओझल होगयीं आँखें गुम हो गया पेड़
छूट  हाथ से गिरा बरफ का गोला
वहीं कहीं दब कर रह गया पंख
चुपके से घर में दाखिल हुआ
देखने लगा फिर
फोहे सी गिरती बरफ
अब मैं भी ज़रा सा डरा सहमा
फिर नज़र ना आ जाए कोई पंख
शून्य से गिरता, हवा में झूमता
बोझिल अपने ही भार में
बंद कर लूं खिड़की और
फेर लूं मूंह सत्य से
कितना बेकल कर रहा मन को मेरे
अभी अभी जो इतना रहा प्रफुल्ल
और हो गया इतना व्याकुल।
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4feb14
बसंत पंचमी