Monday, February 24, 2014

मुसाफिर

परियों के देश से
जब भी आता वह-
पिश्ते, बादाम, खजूर के साथ
कथा परियों की सुनाता जाता।

आजकल बड़ा उदास रहता वह
पूछो तो -
मुठ्ठी भर रेत उड़ाता और
रूह तक मेरी
रुला जाता वह।
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14 Feb 14

Friday, February 14, 2014

सपने

परियों के देश से
जब भी आता वह-
पिश्ते, बादाम, खजूर के साथ
कथा परियों की सुनाता जाता।

आजकल बड़ा उदास रहता वह
पूछो तो - रूह तक मेरी
रुला जाता वह।
-----------
14 Feb 14

Thursday, February 13, 2014

मनमीत

हाय री किस्मत-

बोल पर मेरे मत जाओ 
अचानक मिले जो तुम,
चौंका दिया मुझे
आज पहली बार।

रोता बिलखता छोड़ 
जाने कहाँ गुम हो गए - निर्मोही ।
आज साथ ले जाने को
इतने क्यों तत्पर ?

जाने गिले - शिकवे कितने,
कितने किस्से अधूरे- कहने तुमसे ।
कहाँ-कहाँ भटकता, ढूँढता
नहीं फिरा मैं।
कोई पता भी ना दिया
पूछूं  तो किससे पूछूं  ।
ना मुझे कोई यहाँ जानता,
ना तुम्हें कोई पहचानता,
कहो - कहाँ ओझल हो गए तुम?

मनमीत मेरे-
मैं ही जानता - कटे कैसे मेरे दिन रात।
वो निश्छल चेहरा तुम्हारा, वो कोमल स्पर्श 
वो मीठे बोल , वो सपने सुहाने
समय की धार पर - सब धुलते गए।
जाने कितनों से मिला और कितनों से बिछड़ा
कितना संजोया, और लुटाया
कभी मुस्कुराता तो कभी पोंछता आँसू
जहां भी रहा - एक टीस सी रही 
मन के अन्दर
और मन के  कोने में
इंतज़ार तुम्हारा।

आंसूओं पर मेरे मत जाओ
मुझे ही नहीं मालूम
घुले हैं इनमें ना जाने 
कितने खुशी और कितने गम।
देख तुम्हें आज अचानक यहाँ
इतराऊँ  या कोसूं किस्मत अपनी?
साथ अपने ले चलने का
कर रहे हो वादा या
फिर किसी और मेले में
छोड़ बिलखता-
ओझल होने का तो 
नहीं कोई इरादा?
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12 Feb14



Tuesday, February 11, 2014

Let it Go


Let it go
My friend
The moment has gone.
So sweet so ephemeral
Yet precious.
How long should we wait 
Chances that life gives
Chances that it takes away
In a blink of eye
And 
Why did I choose this path.
..But it will be all the same...
You said, He said
Its all the same.
Shadows from forest
Flying upwards 
Darkening the clouds

Raising waves to engulf
And embrace.
Life with all its vastness
Pristinity and love.

.

बदलते मौसम

उस दिन मौसम बर्फीला रहा
धीमे- धीमे आसमान से
गिर रहे थे अगिनत बर्फ के फोहे।
रंग सारे घुल सफेदी में ढल रहे
चादर सफेदी की तन रही चहुँ और।
खिड़की से नजारा साफ़ नज़र आता
किलकारियां बच्चों की मन को मगन कर रही
कोई बरफ के  गोले फेंकता
कोई घरोंदे बनाता
सब हिलमिल आनंद में झूमते।
अचानक आसमान पर देखा किसीने
सभी झुंड में भागते नजर आये
मैंने भी नज़र उठाई-देखा ध्यान से
एक पंख लहराता झोंके पवन के संग
धीरे धीरे नीचे उतर रहा।
रंग पंख का नज़र नहीं आ रहा
चारों तरफ फोहे बरफ के  चिपक रखे
कुछ उड़ जाते तो, कुछ और चिपक जाते
कभी तेजी से नीचे आता तो
अगले ही पल थोड़ा ऊंचा उड़ जाता।
होड़ सी मच रही सारे बच्चों में
कभी आगे भागते, कभी रुक जाते
फिर ऊपर ही देखते देखते पीछे को होते
कोई गिर जाता तो अगले ही पल
बरफ झाड़ उसी उत्साह से फिर भागने लगता ।
पर पंख इन सबसे अनजान
हवा के  संग संग अठखेलियाँ खेलता
अपनी ही धुन में दूरी तय कर रहा।
आसमान पर देखा मैंने , सबकुछ साफ़
ना कोई चिड़िया, ना कोई पखेरू
फिर पंख यह कहाँ से आया?
शायद बाज़ कोई दबोच किसी को
नोच दिया पंख, भूख अपनी मिटाने
उड़ गया दूर कहीं, बैठा होगा
किसी एक पेड़ पर।
पर बच्चों को इन सबसे क्या
वो तो इसी इन्तजार में- कब यह हाथ लगे
और पकड़ इसे दूर तक भागें
जैसे भागता खिलाड़ी कोई
जीत ट्राफी खेल के मैदान में।
आंखमिचोली हवा की बढाती बेचैनी बच्चों की
मैं भी इसी इन्तजार में
किसके  हाथ पंख यह लगे।
अभी अभी जो हिलमिल खेल रहे
जुट गए जाने कैसी होड़ में।
पंख को देर है अभी
कोई जल्दी नहीं- जमीन को छू ने
पर भगदड़ सी मची जमीन पर।
पर देखता रहा खिड़की से मैं
बदलता मौसम,बदलते अंदाज।
सोचता रहा मन कहाँ से आया पंख
इस बर्फीले तूफ़ान में चिड़िया कोई
भूल अपना नींड़, भटक तो नहीं रही
झटक पंखों से बरफ- हल्की हो
बेचैन सी, बेबस दिशाहीन
पर दूर तक  क्षितिज पर- सब कुछ शून्य।
ठीक से दिखता भी कहाँ
मौसम ही कुछ ऐसा - मिजाज अपना बना बैठा।
शोर अचानक सुन कर ध्यान मेरा बंटा
बच्चे एक के  ऊपर एक बेतहास
जाने किसके हाथ पंख लगा
या बस यूं ही जमीन कुरेद रहे।
नहीं- कोई तो हाथ ऊपर कर
पंख दिखा भाग रहा-पर
किसी दूसरे ने उसे धक्के से दिया गिरा
छीन पंख वह बहादुरी अपनी दिखा रहा
साथ हो लिए दो तीन और
दूसरों से उसे बचा रहे।
देखते देखते गुट दो बन गए
बर्फ के  गोले कुछ पल पहले
एक दूसरे पर शैतानी से फेंक रहे
वही अब निशाने साध जाने दुश्मनी कोई निकाल रहे।
गूँजती किलकारियाँ चीख चिल्लाहट में बदल गयीं।
कोई ताने कास रहा तो कोई खीजा रहा
कोई मूंह चिढ़ा रहा तो कोई हूंकार भर रहा
मैदान खेल का रणभूमी में बदल गया।
एक दूसरे पर आपस में लगे झपटने
कोई कपड़े खींच रहा, कोई बाल
कोई थप्पड़ मार रहा, कोई मुक्का।
मैं हक्का-बक्का सा खिड़की पर खड़ा
तेजी से दरवाजे को भागा
दो तीन पड़ोसी और अपने अपने घरों से निकले
खेल खेल में वक़्त ने कहाँ से कहाँ ला पहुंचाया।
कोई बच्चा रो रहा, तो कोई शिकायत करता
कोई कपड़े झाड़ रहा, तो कोई आँखें दिखा रहा।
धीरे धीरे घर को अपने सब पहुंचे।
पल में ही मैदान सारा सूना
किलकारियां खामोशियों में ढल गयीं
वापस घर को मुड़ा तो
देखा पंख बरफ के गोले से झाँक रहा
हाथ में ले उसे, बरफ उसकी झाड़ी
रंग रूप पर उसके ध्यान ही कहाँ गया
दूर दूर तक नज़र पहुंचाई
दूर पेड़ एक पर शायद आँखें दो नज़र आयीं।
कहीं यही वो बाज़ तो नहीं , भूख अपनी मिटा

आनंद ले रहा कोलाहल का
पलक झपका झपका कर देख रहा
आनंद मगन बच्चों का समरांगण।
वो भटकी चिड़िया तो नहीं
थकी हारी बैठ पेड़ पर
भीतत्रस्त देख कोलाहल।
गोला बरफ का मैंने भी एक बनाया
फेंकना चाहा पेड़ की डाल पर
हाथ अनायास ही रुक गए
ओझल होगयीं आँखें गुम हो गया पेड़
छूट  हाथ से गिरा बरफ का गोला
वहीं कहीं दब कर रह गया पंख
चुपके से घर में दाखिल हुआ
देखने लगा फिर
फोहे सी गिरती बरफ
अब मैं भी ज़रा सा डरा सहमा
फिर नज़र ना आ जाए कोई पंख
शून्य से गिरता, हवा में झूमता
बोझिल अपने ही भार में
बंद कर लूं खिड़की और
फेर लूं मूंह सत्य से
कितना बेकल कर रहा मन को मेरे
अभी अभी जो इतना रहा प्रफुल्ल
और हो गया इतना व्याकुल।
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4feb14
बसंत पंचमी

कोरा कागज

कोरा कागज़ लिया फिरता
आंकता जब भी तस्वीर कोई
साँसे भरता उनमें
और ओझल हो जाती-अगले पल।
बस मुस्कुरा कर देखता
हवा में तैरती-
धुआँ बन लहराती तस्वीर।

अब भरने लगा कागज कोरे
ख्यालों में उभरते बोल
गूँजते रहते काली गुफा में
गम हो जाते सूरज के उगते
और रह जाता कोरा कागज
कोरा का कोरा।

सूना है आजकल फिर रहा
वीरान रेगिस्तान में बन एक मरीचिका
आड़ी तिरछी खींचता रहता लकीरें
कभी दूब तो कभी बादल
कभी सितारे तो कभी ताल तलैया
आँकता रहता
भर रहा साँसे उनमें
यायावरी में बिखेरता गया
बस अब भी साथ उसके
अनेकों ख्याल और कोरा कागज़।
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10 Feb 14

तरकश

बींध छलनी कर दिया
हर तरफ से चलते शब्दों के बाण।
जहर में सने- तीर जहरीले
सन-सन कर आते 
कर देते सब कुछ सुन्न।
भावहीन, अर्थहीन, संज्ञाहीन-
चले जा रहे हर दिशा।
ना ही लक्ष्य ना कोई पथ
बवंडर सा मचा रखा सबने।

सरों की शैय्या पर लिटा
चारों तरफ घेर रखा मुझे
चापलूस, मतिहीन, स्वार्थी
लगे हैं अपना पौरुष जताने।
किस बाण ने आहत किया
किसने लगाया मरहम
संवेदनहीन शरीर - सबसे अनभिज्ञ,
सारी इन्द्रियाँ निष्क्रिय।

कोई अर्थ बटोरने में
कोई पोटली धर्म की खोले
कोई सपने विकाश के दिखा रहा
कोई कोरे ज्ञान मांज रहा।
सब कुछ देख सकता मैं
पर एक लकीर शिकन की माथे पर नहीं
ना ही लबों पर तैरती मुस्कान।
बस पुतलियाँ इधर से उधर
देख रही अगिनत चलते बाण।

एक लचीला धनुष
छिपा रखा जाने कहाँ तरकश
अनर्गल बौछारें करता जा रहा
जैसे बूंदे टपकती बारिश से।
जमीन पर एक गिरती
तो हजारों उसमें से फिर उछलती
परत दर परत छलनी कर रहीं
उग्र से उग्रतर होती जा रहीं।
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10 Feb 14

पहेली

काका मामा यासा रामे
हामा मारा दारा गासा
लापा सेना पाशा सामा
यानीष्टोमा दामा दारा।
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रामानाथा भारा सारा
धारा बारा गोपाधारा
धारा धारा भीमाकारा
पाराबारा सीतारामा।
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संस्कृत में पारंगत मित्रों के  लिए :
ऊपर लिखित पंक्तियाँ काफी सालों से रह रह कर परेशान कर रही हैं। अब बरदाश्त के परे। पहली चार पंक्तियाँ कंकण बन्ध रामायण कहलाती हैं। जिस पंडित ने ये लिखी उसने राजा से कहा की हर एक शब्द से शुरू कर आप वापस उसी शब्द तक पहुंचेगे तो एक श्लोक होगा और ऐसे 32 श्लोक इन चार पंक्तियों से बनेंगे। अब आप हर श्लोक को उल्टा पढेंगे तो 32 और श्लोक होंगे। इन पूरे 64 श्लोकों में पूरी रामायण वर्णित होगी।
उसी तरह एक दूसरे पंडित ने दूसरी चार पंक्तियाँ लिखीं। उसके अनुसार आप हर शब्द के  स्वर और व्यंजन से श्लोक लिखेंगे तो  128 श्लोक होंगे जो रामायण का वर्णन करेंगे। इसे उसने महाकंकन रामायण का नाम दिया।
मुझे अभी तक एक श्लोक भी नहीं मिला। यदी कोई फेसबुक के मित्र अपना ज्ञान कौशल से कुछ पंक्तियाँ बनायें और अर्थ निकालें तो अनुकंपा होगी। 
यह श्लोक मैंने कवि सम्राट उपेन्द्र भंज के  ऊपर लिखी गयी पुस्तक " भंज समीक्षा' से ली है। इसके लेखक स्व गौरी कुमार ब्रह्मा हैं, जो भंज साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे। उपेंद्रभंज शब्द चातुरी में माहिर थे। उन्होंने एक कविता ऋतू वर्णना पर लिखी। कहते हैं, यदि उस कविता के  हर वाक्य से पहला  शब्द निकाल दें तो ऋतू बदल जाती हाई। वैसे ही मझला शब्द निकाल दें तो फिर एक और ऋतू का वर्णन होता है। इस तरह उनहोंने सारी ऋतुओं का वर्णन एक ही कविता में कर डाला। उन्होंने एक काव्य लिखा जिसमें कोई मात्रा नहीं थी। एक और काव्य "वैदेही विलास " लिखा जिसमे हर पंक्ति का पहला शब्द 'व' से शुरू होता है। उन्होंने उड़िया में ही अपनी रचनाएँ लिखीं पर संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। इसी कारण शब्द चातुरी में उनका कोई सानी नहीं।
पर ऊपर लिखे दोनों श्लोक संस्कृत में है। यदि इसके बारे में कोई और सामग्री है तो अवस्य बताएं। 

A Traveller from Yesterday

I am-
A traveller from yesterday
Wandering and
Searching for a tomorrow
With a candle of
Present in my hand.

I don't know how many
Seasons passed by
In front of my eyes
Dreaming for the tomorrow.

A strange delusion it is
With shimmerig sceneries, and
Floating hopes
All vanishing in a flash
Before I reach.
So much meandering is the 
Voyage of life  
Weaved in the shackels of moments.
The flowing time - incessantly,
Wrapping itself with
The coming next moment .
Your own voice -  in these ruins, 
echoing sometimes
And resonating.
At times vanishing 
In the forests.
Still I am waiting
For the - revisit of yesterday.
Till then - I am restless
So is mine relentless desire.

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Soulmate


Valleys filled with flowers,
Adorned in colorful beds.
With fragrance swiming in the winds,
And the countless butterflies.
Descering as if ....
The rainbow is ascending 
To touch these alluring valleys.

As far as I can see-
I dream of capturing
The swimming fragrance
In its own sinuous exaltation,
And the sun hidden behind the cloud
Playing hide and seek
With the snowy mountain peak
Beaming innumerable questions.

Perhaps it was my dream
Still intact - with your gentle touch
Even after my awakening 
From deep sleep.
The chain of dream to reality
Still unbroken.
As you are closer to me.

Mine uncountable sorrows
Vanishes when
Your subtle smile 
Coalesce in my thoughts.
But the clouds starts darkening
Meander like dark shadow
Breaking all the cords of mind
As I see a hairy line of fret
On your glimmering face.

Are you not that rainbow
Or the sun playing hide and seek with the clouds
Who made me colourful
By staying closer at every moment.
Are you not that waterfall
Cascading down uninterrupted
Innundating the barren landscape.
With its own flustering noise
Playing multitude tunes
In this lonely wilderness life.

Your dalliance as if butterflies 
on sinuous winds
Radiating its own colour 
Every songs of mine 
Weaved by you in melodious tunes
You decorated them and
Every dreams of mine 
You  made them lively.

Whenever you waltz
By disappearing and hiding
I convince myself
And whisper to you- in sublime tone
Will you be my side again?


---------

Wednesday, February 5, 2014

बगिया मेरी

शाम का वक़्त सुहावना
मैं बरामदे में  बैठा 
देख रहा- बगिया अपनी ।
रंग बिरंगे फूल सुहावने
भीनी भीनी उनकी खुशबू।
हरी भरी घास, बिछी बिछोने सी
मानो नीला आकाश रंग बदल
निखार रहा बगिया नन्ही मेरी ।
एक कोने पर दहकता अमलतास
दुसरे पर महकता चंपा ।
बीच में कतार देवदार 
चारदीवारी सी बना, घेरे बगिया को मेरी।
सब झूम रहे - मदमस्त पवन संग
साथ हिलोरे लेता मेरा मन ।
 Xxxxx   xxxxxx xxxxxx 
देख रहा मैं 
बैठा इस कुर्सी पर 
जाने कब से रखी -
इस, बरामदे में मेरे ।
बगल में बगिया के
सर्पीली सी चाल चलती सड़क
ठहर ठहर - हुजूम सा एक गूंजता
फिर सब सुनसान ।
कोई नहीं  रुक कर 
देखता बगिया मेरी ।
हर कोई अपनी ही कोई 
अजीब सी उलझन 
लिए अपने ही जहन में 
चले जा रहे अनवरत ।
वहीं छोर एक पर - बसा मैदान।
कभी कभी
बच्चे आ जाते-
उचक फांदते  दीवार - लेने गेंद अपनी, 
ले, चुपके  से भागते ।
कभी - कभी देखी है मैंने
कतार उनकी दीवार पर ।
कभी फूलों को देखते तो
कभी उड़ती तितलियों को,
भौंरों को, चिड़ियाओं को ।
एक दूसरे को कर इशारे
खिलखिलाते , मगन हो जाते ।
किलकारियां - खेलते बच्चों की
मन मेरा हर लेती ।
एक दो पत्थर भी फेंकते, और मैं
मस्कुरा देता
देख उनकी कौतूकता ।
सुना है- तड़के - तड़के  
कोई चुरा ले जाता फूल मेरी बगिया से।
मैं - सुन मुस्कुरा भर देता
रूप नादानियों का देख ।
xxxxxx     xxxxx      xxxxx xxxxx
आंसू मेरे बह, बने पसीने
निखार ले रहे बगिया में ।
कहीं रंग बन बिखर रहे
कहीं खुशबू बन महक रहे ।
किसी की खिलखिलाती हंसी में
तो किसी की चंचल चपलता में ।
एक सफ़र लंबा किया मैंने तय
इस शहर में इस बगिया संग ।
सिहरन सी होती सारे अंग
सोच बैठता क्या होगा-
जब निकल पडूंगा इक और नए शहर ।
कोई अज़नबी मुशाफिर - रूक
निहारेगा बगिया मेरी
या फिर देखेगा
उजड़ी वीरान झाड़ी ।
सफर में मैंने भी - इसी शहर में
रूककर देखी अनेक ऐसी -
कहीं सजी संवरी
तो कहीं खण्डहर सी ।
कतारबद्ध ना कोई बालक
ना ही देवदार के  पेड़ ।
पर मैं एक यायावर-
ना दर्द - ना गुमान 
बाद मेरे इस शहर में
सराहे इसे या उजाड़े ।
जाने शहर कितने बदले मैंने
बनाई होंगी बगिया कितनी
कोई धुंधली सी तस्वीर भी नहीं ।
फिर भी अब जाने क्यों -
बगिया मेरी रोक
रही मेरे सफर को ।
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17/12/13








जंगल

जंगल की तलाश-
एक चाह थी उसको।
पूछता फिर रहा
राह में, जो भी मिला।
अजीब से - रास्ते सभी बताते
फिरता रहा उन्हीं पर
तय करता गया-
जाने कितने ताल तलैया
नदी, पहाड़, रेगिस्तान।
फिर अचानक - घड़ी एक
नज़र  आया- झुरमुट पेड़ों का।
खुद बी खुद बढ़ते गए कफाम
उस ओर।
रास्ता तो कोई ना था
ना कोई हमसफर।
बीहड़ बीयाबान जमीन
और बढते कदम।
XXXXXX XXXXX  XXXXX
क्या यही है वो जंगल
तलाशता रहा मन- सदियों।
सुनसान, भयावह कभी
तो रमणीय, मद्मस्य कभी।
यहाँ भी कोई राह नहीं,
कुछ पगडंडीयां दिखतीं
पर कुछ दूर जा गम हो जातीं।
कहीं सरसराहट तो कहीं गूँज
आवाजें अजनबी चेहरों से।
अति अद्भुत चहूं ओर
विविधता जंगल की
देख मंत्रमुग्ध।
अति विचित्र जानवर यहाँ
कोई रेंग रहा, कोई उड़ रहा,
कोई उछल रहा, कोई भाग रहा।
विचित्र जंगल, विचित्र उसके वासी
भयभीत हो- चाल तेज़ कर ली।
कई और देखे जिनमें
कोई गुनगुना रहा,
कोई रूदन करण कर रहा
तो कोई अनर्गल कहे जा रहा।
क्या ये सब भी
तलाशते रहे - जंगल।
भूख लगती तो फल फूल खाते
या फिर शिकार कर कच्चा चबा जाते
पानी पी झरनों का- प्यास अपनी बुझाते।
XXXXX   XXXXX  XXXXXXX
पर जंगल कहाँ?
ये पेड़, पत्ते , झरने, पहाड़,
जल थल और गगन विशाल।
इन्हीं में कहीं जा बसा
या ये सब बस बना रहे-
जंगल।
अब आ पहुँचा इस जंगल में
तलाश मंजिल की ख़त्म हुई।
अब -
एक नई तलाश, नई मंजिल
मन के कोने से उभर रही ।
गुजर पार करे कैसे-
यह जंगल
जो कभी अपना सा लगता
तो कभी पराया।
कभी हंसाता, तो कभी डराता
कभी शातं करता
तो कभी विचलित।
अब घुटन सी होने लगी,
मन बेचैन -
जो मनःस्तिथी - जंगल से पहले
वही जंगल में भी आ पहुंची।
शायद शांत हो मन
यहाँ से निकल बाहर।
किसे है होश जो बतलाये
राह सही और सटीक।
सब चल रहे सूनी सुनाई राहों पर
कहाँ जाती ये पगडंडीयां-
किसे मालूम।
कोई लौटे - तो बताये।
सब भटक रहे - दिशाहीन
ना सुन रहा कोई
ना बोल रहा कोई।
घुटने लगा दम उसका
बैचैनी ने बढ़ा दी छटपटाहट।
जो अभी- अभी रहा
सुंदर, रमणीय
हो रहा वही भयावह, विकराल।
सब कुछ मिलजुल आभाष
अजीब सा दे रहे।
इसी अनुभूती को तरसता रहा
सदियों मन उसका।
सागर होता तो लहरें उछाल
फ़ेंक देता किनारे।
यह तो जंगल
फिर कैसे लगे किनारे?
किससे पूछे, कौन बताये
सब मदमस्त।
समय एक ऐसा फिर आया
खुद को जंगल के  कगार पर पाया
जैसे जंगल उसने पाया
वैसे आज उससे बाहर आया।
शांत मन को करने की चाह
विकल हो रहा- मन उसका।
अजनबी एक बैठा यहाँ
पूछ बैठा उससे यकायक
कैसा रहा सफ़र जंगल का
ढूंढ रहे थे जिसे विकल
पाकर उसे ज्यों बेकल।
सांस लंबी भरी एक
अज़नबी को सारा हाल सुनाया
जो दूर से दिख रहा सुहाना
पास आकार बना भयावक।


नींव

रोज कहाँ जा पाता हूँ -
इस घर के  हर कमरे में ?
थका हारा, काम से चूर
शाम के  वक़्त तक,
बस नहाने भर की -
बची रहती है ताक़त।
फिर भोजन और टीवी-
रोज ही होता ऐसा।

जुटा लिया सामान मैंने-
सजा दिया हर कोने में....
कहाँ उपभोग कर पाता हूँ ,
जीवन की इस आपा धापी में ?
कभी टीवी देखते समय ,
तो कभी खाने के वक़्त-
बच्चे राग अपना अलापते,
स्कूल के , दोस्तों के , फरमाईशों के  ।
सुन अनसुनी सा कर देता ,
तो झुंझला से जाते ।
कहाँ वक़्त दे पाता हूँ
उनके  खिलखिलाते सपनों को ?

इस मशीनीकरण के  युग में
सब कुछ यंत्रचालित सा घूम रहा।
रिश्तों की लड़ी, नाज़ुक मोड़ पर।
ना मुझे कोई समझ  रहा ,
ना मैं समझा पा रहा।
वक़्त ही कहाँ रहा
पाटने रिश्तों की दरार को ?

पर एक अद्दृश्य हाथ
सब कुछ संभाले जा रहा।
कमरे सारे बुहारता,
साजो सामान यथावत रखता, और
बचपन से - कड़ी मेरी संजोये रखता ।
अपार शक्ति से भरपूर -
स्पर्श जिसका पाकर ,
नवस्फूर्ती मचलती,
नित नवकलेवर मेरा,
होता थके  हारे शरीर में।
फिर भी हरकोई इसे,
देख कर भी अनदेखा -
किये जा रहा ?
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तन्हाई

कुछ भी तो नहीं
इर्द गिर्द मेरे।
एक तन्हाई-इस अँधेरे में
और इसमें छिपा 
दुबका कोने में मैं ।

दूर से बवंडर कोई उठ रहा
साँय-साँय हवा चल रही
ठिठुर रहा जाड़े में।
रौशनी हल्की सी - दीये की
पल पल काँपती और
साथ मुझे सिहरा देती।
उठकर संभालूं दीये को
हिम्मत नहीं इतनी ।
कोई भी नहीं इस घर में
एक तन्हाई और उसमें
छिपा मैं।

बीते युगों की यादें
टकराती इन खोखली दीवारों से
सायों सी उभरती-ओझल हो जाती
गुनगुनाता मैं- पर आवाज
दब रह जाती-गरजते बादलों बीच।
घुट रह जाती लौ दीये की
कौंधती देख बिजलीयाँ।
पल भर को देख लेता
बिखरा सामान घर के हर कोने
कभी संजोया था बहा पसीना अपना
अब तो सब कुछ कोरा सा लगता।
समेट लेगा तूफ़ान- किसी भी पल
बहा ले जाएगा- हौले हौले बढ़ता पानी।
गहराता ही जा रहा अंधियारा
सूना रह जाएगा कमरा
बुझा रह जाएगा दीया।
बस बहता रहेगा पानी
गरजते रहेंगे बादल
सिहराता रहेगा तूफ़ान और टकराती रहेंगी यादें।
छिपा रह जाऊँगा मैं
साथ अपनी तन्हाई।
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बसंत पंचमी-----4feb 2014