Wednesday, February 5, 2014

नींव

रोज कहाँ जा पाता हूँ -
इस घर के  हर कमरे में ?
थका हारा, काम से चूर
शाम के  वक़्त तक,
बस नहाने भर की -
बची रहती है ताक़त।
फिर भोजन और टीवी-
रोज ही होता ऐसा।

जुटा लिया सामान मैंने-
सजा दिया हर कोने में....
कहाँ उपभोग कर पाता हूँ ,
जीवन की इस आपा धापी में ?
कभी टीवी देखते समय ,
तो कभी खाने के वक़्त-
बच्चे राग अपना अलापते,
स्कूल के , दोस्तों के , फरमाईशों के  ।
सुन अनसुनी सा कर देता ,
तो झुंझला से जाते ।
कहाँ वक़्त दे पाता हूँ
उनके  खिलखिलाते सपनों को ?

इस मशीनीकरण के  युग में
सब कुछ यंत्रचालित सा घूम रहा।
रिश्तों की लड़ी, नाज़ुक मोड़ पर।
ना मुझे कोई समझ  रहा ,
ना मैं समझा पा रहा।
वक़्त ही कहाँ रहा
पाटने रिश्तों की दरार को ?

पर एक अद्दृश्य हाथ
सब कुछ संभाले जा रहा।
कमरे सारे बुहारता,
साजो सामान यथावत रखता, और
बचपन से - कड़ी मेरी संजोये रखता ।
अपार शक्ति से भरपूर -
स्पर्श जिसका पाकर ,
नवस्फूर्ती मचलती,
नित नवकलेवर मेरा,
होता थके  हारे शरीर में।
फिर भी हरकोई इसे,
देख कर भी अनदेखा -
किये जा रहा ?
----------


No comments:

Post a Comment