Wednesday, February 5, 2014

तन्हाई

कुछ भी तो नहीं
इर्द गिर्द मेरे।
एक तन्हाई-इस अँधेरे में
और इसमें छिपा 
दुबका कोने में मैं ।

दूर से बवंडर कोई उठ रहा
साँय-साँय हवा चल रही
ठिठुर रहा जाड़े में।
रौशनी हल्की सी - दीये की
पल पल काँपती और
साथ मुझे सिहरा देती।
उठकर संभालूं दीये को
हिम्मत नहीं इतनी ।
कोई भी नहीं इस घर में
एक तन्हाई और उसमें
छिपा मैं।

बीते युगों की यादें
टकराती इन खोखली दीवारों से
सायों सी उभरती-ओझल हो जाती
गुनगुनाता मैं- पर आवाज
दब रह जाती-गरजते बादलों बीच।
घुट रह जाती लौ दीये की
कौंधती देख बिजलीयाँ।
पल भर को देख लेता
बिखरा सामान घर के हर कोने
कभी संजोया था बहा पसीना अपना
अब तो सब कुछ कोरा सा लगता।
समेट लेगा तूफ़ान- किसी भी पल
बहा ले जाएगा- हौले हौले बढ़ता पानी।
गहराता ही जा रहा अंधियारा
सूना रह जाएगा कमरा
बुझा रह जाएगा दीया।
बस बहता रहेगा पानी
गरजते रहेंगे बादल
सिहराता रहेगा तूफ़ान और टकराती रहेंगी यादें।
छिपा रह जाऊँगा मैं
साथ अपनी तन्हाई।
------------------
बसंत पंचमी-----4feb 2014

No comments:

Post a Comment