Tuesday, February 11, 2014

तरकश

बींध छलनी कर दिया
हर तरफ से चलते शब्दों के बाण।
जहर में सने- तीर जहरीले
सन-सन कर आते 
कर देते सब कुछ सुन्न।
भावहीन, अर्थहीन, संज्ञाहीन-
चले जा रहे हर दिशा।
ना ही लक्ष्य ना कोई पथ
बवंडर सा मचा रखा सबने।

सरों की शैय्या पर लिटा
चारों तरफ घेर रखा मुझे
चापलूस, मतिहीन, स्वार्थी
लगे हैं अपना पौरुष जताने।
किस बाण ने आहत किया
किसने लगाया मरहम
संवेदनहीन शरीर - सबसे अनभिज्ञ,
सारी इन्द्रियाँ निष्क्रिय।

कोई अर्थ बटोरने में
कोई पोटली धर्म की खोले
कोई सपने विकाश के दिखा रहा
कोई कोरे ज्ञान मांज रहा।
सब कुछ देख सकता मैं
पर एक लकीर शिकन की माथे पर नहीं
ना ही लबों पर तैरती मुस्कान।
बस पुतलियाँ इधर से उधर
देख रही अगिनत चलते बाण।

एक लचीला धनुष
छिपा रखा जाने कहाँ तरकश
अनर्गल बौछारें करता जा रहा
जैसे बूंदे टपकती बारिश से।
जमीन पर एक गिरती
तो हजारों उसमें से फिर उछलती
परत दर परत छलनी कर रहीं
उग्र से उग्रतर होती जा रहीं।
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10 Feb 14

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