Tuesday, February 11, 2014

कोरा कागज

कोरा कागज़ लिया फिरता
आंकता जब भी तस्वीर कोई
साँसे भरता उनमें
और ओझल हो जाती-अगले पल।
बस मुस्कुरा कर देखता
हवा में तैरती-
धुआँ बन लहराती तस्वीर।

अब भरने लगा कागज कोरे
ख्यालों में उभरते बोल
गूँजते रहते काली गुफा में
गम हो जाते सूरज के उगते
और रह जाता कोरा कागज
कोरा का कोरा।

सूना है आजकल फिर रहा
वीरान रेगिस्तान में बन एक मरीचिका
आड़ी तिरछी खींचता रहता लकीरें
कभी दूब तो कभी बादल
कभी सितारे तो कभी ताल तलैया
आँकता रहता
भर रहा साँसे उनमें
यायावरी में बिखेरता गया
बस अब भी साथ उसके
अनेकों ख्याल और कोरा कागज़।
------------
10 Feb 14

No comments:

Post a Comment