Wednesday, February 5, 2014

बगिया मेरी

शाम का वक़्त सुहावना
मैं बरामदे में  बैठा 
देख रहा- बगिया अपनी ।
रंग बिरंगे फूल सुहावने
भीनी भीनी उनकी खुशबू।
हरी भरी घास, बिछी बिछोने सी
मानो नीला आकाश रंग बदल
निखार रहा बगिया नन्ही मेरी ।
एक कोने पर दहकता अमलतास
दुसरे पर महकता चंपा ।
बीच में कतार देवदार 
चारदीवारी सी बना, घेरे बगिया को मेरी।
सब झूम रहे - मदमस्त पवन संग
साथ हिलोरे लेता मेरा मन ।
 Xxxxx   xxxxxx xxxxxx 
देख रहा मैं 
बैठा इस कुर्सी पर 
जाने कब से रखी -
इस, बरामदे में मेरे ।
बगल में बगिया के
सर्पीली सी चाल चलती सड़क
ठहर ठहर - हुजूम सा एक गूंजता
फिर सब सुनसान ।
कोई नहीं  रुक कर 
देखता बगिया मेरी ।
हर कोई अपनी ही कोई 
अजीब सी उलझन 
लिए अपने ही जहन में 
चले जा रहे अनवरत ।
वहीं छोर एक पर - बसा मैदान।
कभी कभी
बच्चे आ जाते-
उचक फांदते  दीवार - लेने गेंद अपनी, 
ले, चुपके  से भागते ।
कभी - कभी देखी है मैंने
कतार उनकी दीवार पर ।
कभी फूलों को देखते तो
कभी उड़ती तितलियों को,
भौंरों को, चिड़ियाओं को ।
एक दूसरे को कर इशारे
खिलखिलाते , मगन हो जाते ।
किलकारियां - खेलते बच्चों की
मन मेरा हर लेती ।
एक दो पत्थर भी फेंकते, और मैं
मस्कुरा देता
देख उनकी कौतूकता ।
सुना है- तड़के - तड़के  
कोई चुरा ले जाता फूल मेरी बगिया से।
मैं - सुन मुस्कुरा भर देता
रूप नादानियों का देख ।
xxxxxx     xxxxx      xxxxx xxxxx
आंसू मेरे बह, बने पसीने
निखार ले रहे बगिया में ।
कहीं रंग बन बिखर रहे
कहीं खुशबू बन महक रहे ।
किसी की खिलखिलाती हंसी में
तो किसी की चंचल चपलता में ।
एक सफ़र लंबा किया मैंने तय
इस शहर में इस बगिया संग ।
सिहरन सी होती सारे अंग
सोच बैठता क्या होगा-
जब निकल पडूंगा इक और नए शहर ।
कोई अज़नबी मुशाफिर - रूक
निहारेगा बगिया मेरी
या फिर देखेगा
उजड़ी वीरान झाड़ी ।
सफर में मैंने भी - इसी शहर में
रूककर देखी अनेक ऐसी -
कहीं सजी संवरी
तो कहीं खण्डहर सी ।
कतारबद्ध ना कोई बालक
ना ही देवदार के  पेड़ ।
पर मैं एक यायावर-
ना दर्द - ना गुमान 
बाद मेरे इस शहर में
सराहे इसे या उजाड़े ।
जाने शहर कितने बदले मैंने
बनाई होंगी बगिया कितनी
कोई धुंधली सी तस्वीर भी नहीं ।
फिर भी अब जाने क्यों -
बगिया मेरी रोक
रही मेरे सफर को ।
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17/12/13








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