Sunday, February 19, 2012

परिचय

अनिल  कुमार पुरोहित का जन्म कटक, ओड़िसा में हुआ ।बलांगीर और भुबनेश्वर में पढ़ाई के बाद भोपाल के  IIFM से वन प्रबंधन में उपाध्युत्तर डिप्लोमा लिया। कुछ समय ओड़िसा वन निगम में सेवा के बाद ICFAI हैदराबाद में अध्यापकी तथा प्रबंधन दोनों कार्य किये। सम्प्रति टोरोंटो में सरकारी सेवा में हैं।
बचपन से ही कविता में रुची रही है। स्कूल,  कालेज की पत्रिकाओं में प्रकाशित लघु कविताओं ने सबका
ध्यान आकर्षित किया । स्वभाव से संकोची होने के कारण उनका पहला संकलन " शहर की पगडंडी" आने में काफी समय लगा।अत्यंत संवेदनशील मन स्वातंत्र्योत्तर भारत का परिदृश्य देख कर चकित हो
जाता है। मानवीय मूल्यों की स्थिति से वह अचकचा जाताहै। लगता है अभी भी हम अपनी परम्परा के बल
पर सही लकीर पकड़ सकते हैं। कवि का यह आशा स्वर अनेक घात प्रतिघातों के बाद उनकी लम्बी
कविता "अन्तःपुर की व्यथा कथा"   में उभर कर आया है। उन्हें धर्म और जात पांत, स्थानीयता और
 वन्शोद्भवता जैसी चीजें आज के वैश्वीकरण के दौर में अपना अर्थ खोती जान पड़ती हैं। अतः कवि मन नए समीकरण और नए मूल्यों की नींव  तलाश रहा है।


Friday, February 17, 2012

आधुनिक कवि की दृष्टी में महाभारत के "अन्तःपुर की व्यथा कथा"

                                                                                प्रो. डा. रामदेव शुक्ल
                                                                                गोरखपुर (उ. प्र.)

दो भारतीय महाआख्यान - रामायण और महाभारत- में युग युग की सर्जनात्मकता ऊर्जा को अनुप्राणित करते रहने की क्षमता है। कोई भी उसमें रच सकता है देश - विदेश में इसके प्रमाण भरे पड़े हैं. ओडिया साहित्य श्रीजगन्नाथमय है।  श्री जगन्नाथ अर्थात महाभारत।  काव्य हो या कथा , महाभारत के बिम्ब नित नूतन आलोक वृत्त में उपस्थित होते हैं। प्रख्यात कथा शिल्पी प्रतिभा राय ने द्रौपदी को याज्ञसेनी के रूप में रचकर यही किया है। ओडिया- हिन्दी के पचास ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद करके , अनेक का हिन्दी से ओडिया में भी , शंकरलाल पुरोहित इन दोनों भाषाओं के संवेदना - सेतु बन गए हैं। एक सुखद संयोग है कि उन्हीं के पुत्र अनिल कुमार पुरोहित ने महाभारत के द्रौपदी- प्रसंग को आधुनिक मानव में घुला कर एक लम्बी कविता लिखी है, "अन्तःपुर की व्यथा कथा"।

महाभारत-महासमर घोषित हो गया है. रात बीतते ही अगले दिनारम्भ के साथ सर्वविनाशक संहारलीला आरम्भ हो जायेगी।  दोनों वर्गों  के उन्मत योदधा  आतुर प्रतिक्ष   कर रहे हैं महायुद्ध की। अनिल पुरोहित वीरों की इस आतुरी का मनोवैज्ञानिक ( और शरीर वैज्ञानिक भी) बताते हैं- क्षत्रिय हैं, सब नशे में चूर, रोज के अभ्यास - कभी अखाड़े में कभी वन में- और लग गयी लत।  अब पल में उतरे कैसे - यह नशा।  अन्तःपुर में जाग रही है द्रौपदी, उसकी सखी, गांधारी , और कुंती. स्त्रियाँ हैं ये। पुरुषों को नशा चाहे युद्ध का हो या जुए का, हारती है सिर्फ स्त्री. गांधारी के पास सखी से सन्देश भेज कर उत्तर लाने वाली सखी की प्रतिख्सा में बेचैन द्रौपदी सोचती है-

युद्ध करें या दांव लगायें
बार बार पीसी हूँ मैं .

महारथी,ज्ञानी, मुनी, ब्रह्मर्षी सबकी उपस्थिती में भरी सभा में अपने साथ हुए अभूतपूर्व अन्याय,
अत्याचार का  स्मरण करती द्रौपदी गांधारी से आशा करती है की वे इस युद्ध की अनुमती नहीं देंगी ।
क्योंकी वे स्त्री हैं और जानती हैं की-

जीते कोई भी- हार तो हमारी ही ठहरी
पीड़ा तो भोगनी -हो भले ही
कितनी असहनीय

सखी से गांधारी का सन्देश सुनकर द्रौपदी उनके पास जाने के लिए उत्साहित होती है, तभी कुंती उसके पास आती है।  युद्ध का अनर्थ रोकने के लिए द्रौपदी माता कुंती से याचना करती है तो कुंती युद्ध को 'कर्मभूमी और अंतिम निर्णायक' मान कहती है-

कोई नहीं चाहता विनाश- पर निश्चय
इससे उपजता नया समाज...
अनिवार्य है युद्ध- मिटाने अर्थहीन रूढ़ियाँ
जलाने सदियों का अहम्

कर्तव्य ने "धर्मयुद्ध और कर्मयुद्ध ' से आगे बढ़ कर अनिवार्य युद्ध को 'सागर मंथन' के रूप में
देखा है -

एक और 'सागर मंथन'
यहीं से मिलेगा अमृत

यहीं से विष भी निकलेगा जो कलंकित कल  को धोने के लिए उत्पातियों का विनाश करेगा । द्रौपदी युद्ध को अपने विवेक से परिभाषित करती है-

युद्ध तो मात्र है निमित्त
विनाश का , नपुंशकता का
विवेकहीनता का
या फिर अहं उगलने का 

इस अवसर पर कवि स्त्री और स्त्रीत्व को विश्व की कोमल भावनाओं को धारण करके , विकसित करने वाली और तमाम जटिल ग्रंथियों को सुलझाने वाली शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है -

अर्धांगिनी हैं हम - मूक वधिर नहीं
जननी हैं / श्री हैं / लक्ष्मी हैं
कैसे अलग रख सकें
साया से काया
सुख से दुःख / नहीं दिन से रात

द्रौपदी आसन्न विपत्ती की गुत्थी को सुलझाने को तत्पर है।  वह गांधारी से मिलकर उन्हें भी इस अभियान में साथ लेना चाहती है।  कुंती उसे आशीष देती है -

तुम बनो द्रष्टा / तुम बनो स्रष्टा

द्रौपदी गांधारी - मिलन को कवि  दो ऐसी सतियों की भेंट के रूप में चित्रित करता है, जो भावी विनाश को देख कर त्रस्त हैं किंतु निर्णय उनके हाथ में न हो कर युद्धोन्मत पुरुषों के हाथ में है।  गांधारी द्रौपदी से कहती हैं -

तुम क्या रूठी , विमुखी हुई
सब कुछ लुट गया, श्रीहीन हो गया
हमारा हस्तिनापुर
षडयन्त्रकारी चापलूसों से घिरा हस्तिनापुर जर्जर
शौर्यहीन, निर्वस्त्र हो गया है.

गांधारी कहती है - द्रौपदी ! दे दो इसे थोड़ा - सा  मति वस्त्र !

कवि ने मति- वस्त्र के रूप में कितनी व्यंजना भर दी है। जिसे राजसभा ने भरी सभा में द्रौपदी को - सकल स्त्रीत्व को - निर्वस्त्र करना चाहा , वही आज स्वयं निर्वस्त्र हुआ पड़ा है। उसके नंगेपन को ढांकने की शक्ति किसमें है? सिर्फ द्रौपदी की मति में में। पूरी दुनिया के स्त्री विमर्श की चिंता के यहाँ कवि का एक सन्देश है - स्त्रीत्व की मति का (सम्मति का) वस्त्र ही पुरुष वर्चस्व के कारण निर्वस्त्र हुए समाज के नंगेपन को ढँक सकता है।

इस प्रसंग में कवि ने गांधारी के मर्म में दिए उन घावों का प्रभावशाली वर्णन किया है, जिनकी ओर लोगों का ध्यान नहीं जाता. अपने अनुभव के आधार पर ही गांधारी वर्तमान की पहचान करती है-

भविष्य चल रहा पंगु / पंगु वर्तमान के कन्धों पर-

यह पंगुता - विकलांगता- कहाँ से आयी है ? गांधारी अपने पुत्रों के विषय में कहती है -

राजनीति में सीखी सिर्फ दुर्नीति / यही बनी नींव
इसी पर बढाया इनका साम्राज्य / टेढ़ी मेढ़ी जिसकी दीवारें
छत तक कोई पहुँच नहीं पाए
जमीन पर बिछी छत - जाने कब
इन दीवारों पर चढ़े
*******
छल कपट , माया मोह में ओत प्रोत
मोड़ा सत्य को , निर्णय जो भी किये
पक्ष पाती / सबूतों की बली चढाकर
इस महायुद्ध का बीज बोया गया

गांधारी उस दुर्नीति का जो  चित्र  उपस्थित करती है, क्या आज के भारत का नहीं है?
द्रौपदी और गांधारी को कवि एक ऐसे धरातल पर ला खड़ा करता है, जहाँ दोनों को एक दूसरे का दुःख अपने से बड़ा लगता है। यही मनुष्यता की धर्मभूमी  है जिसका सन्देश यह कविता संप्रेषित करती है। गांधारी ने मांस के लोथड़े को जन्म दिया था। बाद में उनको एक सौ खंडो में  विभक्त कर उनमें प्राणों का संचार किया गया था। एक सौ पुत्र की माता होने का उसे गौरव मिला था। वही गांधारी आज सोच रही है -

पुत्र मोह ने जकड़ रखा मुझे
जब जने थे मांस के लोथड़े
घड़े ने फूंके प्राण, पर
अब तक अर्धविकसित
तन से, मन से, कर्म से

गांधारी अपने पुत्रों को अर्धविकसित क्यों कहती है? इसलिए  की   उनमें मानवीय संवेदनाओं का विकास नहीं हुआ है। इस दृष्टि से आज इक्कीसवीं सदी के 'सब तरह से उन्नत' समाज क्या 'अर्धविकसित' नहीं है?

गांधारी की संवेदना और आशीष पा कर द्रौपदी कुंती के पास लौटती है। कुंती द्रौपदी की पीड़ा सुन रही होती है की कृष्ण आ जाते हैं।  द्रौपदी उनकी सखी है।  उसे सृजन और संहार के रहस्य समझाते हुए कहते हैं की  -

इसी धरा में, नहीं टूटता तो
मेरा विश्वास / नहीं जलता तो
मेरा प्रेम / अटूट है रिश्ता
मेरा तुमसे, स्वजनों से।

कुंती एक बार फिर सारे अनर्थों का स्मरण कराकर कृष्ण से कहती है की यह महाविनाश तुम्हीं रोक सकते हो, फिर कहती है -

जो नियम तुमने बनाये
मान रखो उन धर्मों का
मत तोड़ना समय की चाल।

कृष्ण कर्म-अकर्म, धर्म-अधर्म, ज्ञान- अज्ञान का रहस्य (गीता की शैली में) कुंती और द्रौपदी के    समझाते हैं। सब कुछ जानते हुए भी समझौते का एक प्रयास का वादा करते हैं। इस प्रसंग में ध्रतराष्ट्र के पुत्र मोह के व्याज से कवि आज के पुत्रांध   पिताओं की उस नियति को रेखांकित करता है जो अपनी अतृप्त इच्छाओं की तृप्ति का माध्यम बनाकर पुत्र का (और अपना भी) जीवन नष्ट कर डालते हैं ।
अन्तिमचरण में कुंती द्रौपदी के माध्यम  से कवि आज के विश्व में व्यक्तियों और राष्ट्रों के अहम् के विष्फोट की तुछता पर प्रहार करता है-

जाने कितने अगणित ब्रह्मांड
देख रहा वो पालनहार
मुस्कुरा भर देता देख हमारा अहम्
बाँट लिया हमने जाती , धर्म,  भाषा
वर्ण, संस्कृति की देकर दुहाई
खिलखिला रहा रचयिता
देख हमारी  क्षणिक वाक्पटुता।
हमने बनाए नियम सारे
और बो दिए
धर्म-अधर्म, सत्य- असत्य के बीज।
जो दुराचारी डूब रहा असत्य के सागर में
वही देगा दुहाई सत्य की
जब मिटेगा इस समर में।

उपर्युक्त चित्र जितना महाभारत का है, उससे अधिक विश्व का है। अनिल कुमार पुरोहित टोरोंटो (कनाडा) में रहते हैं। एक ओर महाभारत आख्यान से सांस्कृतिक जुड़ाव उन्हें माता-पिता से मिला है, दूसरी ओर सर्वशक्ति संपन्न राष्ट्र होने के अमेरिकी दंभ को नग्न रूप में देख, सुन समझ रहे हैं। अपनी काव्य प्रतिभा और कल्पना शक्ति से उन्होंने यह मर्मस्पर्शी काव्य-रचना की है। इसकी चिंता राष्ट्रकवी रामधारी सिंह 'दिनकर' की अमर कृति 'कुरुक्षेत्र' की अगली कड़ी है।

















Monday, February 13, 2012

सच का झूठ


कैसा समां यहाँ
तैर रहा झूठ, बन बर्फीला पहाड़,
सच के सागर में.
मंजर साफ़ नज़र आ रहा,
सज रही इमारत झूठ की
सच की नींव पर.

सजी संवरी बगीया दिख रही
खिलखिलाते फूल से- झूठ चहूँ ओर
मजबूत सच की जड़ों पर.

नहीं सराहता सच को
न बूझता, बस कतराता- हर कोई
देख सुहाना झूठ
मचल उठते, झूमते मगन
जैसे देखा कोई उन्मुक्त गगन .

जो समझ लेते-नाम सच का देते
अछूता, परित्यक्त, अनदेखा -
झूठ में ढाल देते.
अंधे लोग, धर अधूरा ज्ञान
भीड़ में, चलते अपनी पंगु चाल
सच से त्रस्त, झूठ की कोख ढूँढते.

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एक चाह

तरसती रही, नदी एक
सागर से मिलने को -
छल छलाती पहाड़ों से , उतरती
और भाप बन उड़ जाती,  जब
जमीं तक पहुँचती .

पूरी कर दी, चाह उसकी
हवा के झोंके ने-
उड़ा बदली की टुकड़ी,
बूँद बना टपकाया, जब-
सागर की गोद .