कैसा समां यहाँ
तैर रहा झूठ, बन बर्फीला पहाड़,
सच के सागर में.
मंजर साफ़ नज़र आ रहा,
सज रही इमारत झूठ की
सच की नींव पर.
सजी संवरी बगीया दिख रही
खिलखिलाते फूल से- झूठ चहूँ ओर
मजबूत सच की जड़ों पर.
नहीं सराहता सच को
न बूझता, बस कतराता- हर कोई
देख सुहाना झूठ
मचल उठते, झूमते मगन
जैसे देखा कोई उन्मुक्त गगन .
जो समझ लेते-नाम सच का देते
अछूता, परित्यक्त, अनदेखा -
झूठ में ढाल देते.
अंधे लोग, धर अधूरा ज्ञान
भीड़ में, चलते अपनी पंगु चाल
सच से त्रस्त, झूठ की कोख ढूँढते.
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