Friday, December 20, 2013

The Tunes

I like the tunes
Not the words.
Did You set it
With a purpose?
My eyes-  brimming with tears
And mind, deluged with joy.
Will it be the same -
If, I change the words?

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20/12/13

जुआरी

जुआरी एक बना
भेज दिया इस बाजार में।
तेरे ही खेल, तेरे ही नियम,
तेरे ही परिणाम, तेरे ही बाज़ार।
मैं बस मदमस्त।
सारे माहौल में- बिखेर दिया
नशीला धुँआ ।
कहीं खेल हो रहा
कहीं नाच, गाने
तो कहीं तमाशे।
कहीं कहकहे, तो कहीं अट्टहास।
कोई गुमसुम , तो कोई धुत।
सब पर तेरी तीखी नज़र।
नशा सा छा रहा, जहाँ में सारे-
ना कोई सोच, ना कोई उम्मीद।
लत एक लगा दी
बस हारने की।
मैं हारता जाता,
तू खेले जाता।
अजीब सा रचा-
खेला तूने।
कहाँ से सीखा, कहाँ से लाया
खेल इतने।
कहीं तू भी तो
कभी ना कहीं 
रहा- एक जुआरी तो नहीं।
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15/12/13

The Lovely Song

My destination is coming closer
I have to alight from this bus, and
This song has just started playing.
It's one of my favourite.
So many songs, that I Iistened to 
In the course of my not so long journey
Some sprinted the time 
Eternal, melodious and harmonious they are
That Iost in the tapestry and ignored
The virgin beauty passed by.
And some, just do not worth any words.
But this song has just started, but
I have to leave.
My stop is there and I have to move on 
To my waiting destination.
Adieu my lovely song, I will
Utter you on my walk
I will never miss you
I will never miss my journey
..........
19/12/13

The Important Paper

I was looking for a paper
As it suddenly became important.
It must be burried deep in one of my pocket.
But I found:
Bills, business cards, credit cards
And some other crumbled papers.
I also found bunch of keys, some change.
But where is that paper;
Which is so important at this point of time.
It was just a paper with some scribbling, but
Now I need it, and became untraceable,
In the heap of these items, which are;
Lying on the tables scattered.
So much of stuff, no doubt
My wallet is buldged, so are my pockets
My feets feel the heat, hurting my back
I never realized and kept stuffing
Whatever came on my palm.
The key rings have keys,
Whose lock I cannot recall.
The multipurpose tiny swiss army 
Which I ever used that I can think of,
The tiny flashlight with dead batteries
Never ever needed to find anything.
So much clutter, for how long
Have been hibernating.
Now I know the reason of my lateness
The heavyness, the strange intumesce.
Can I separate these, as per importance
Or priority or needfulness.
But I need that piece of paper
My train of thoughts is swaying.
I have to focus, to locate the paper
Time never stopped;
To alleviate the priority
It just creates the importance and sneak by.
It will never create a vacuum
Neither will it rein the thoughts.
Did I loose it ?
Is it - somewhere else;
May be in another pant,
Or in the house or the car or anywhere.
I have to go through all the clutter
That I accumulated everywhere,
In anticipation, that one of them will;
Miraculously - become alive just like this paper
At particlar point of time.
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19/12/13


Sunday, December 8, 2013

अन्तःपुर की व्यथा कथा - 6



अंक २
कुन्ती:
पधारो भवभयभंजनहारी-
स्वागत आपका जो बनाया हमें विजयी
कुरुवीर लोट रहे कुरुक्षेत्र की भूमि पर.
जीत हमारी कर दी सुनिश्चित उस दिन
जब बन सारथी, डोर संभाली.
हे गोविन्द, हे माधव,हे मुरलीधारी
जो प्रतीत था असंभव- सहज किया
हर अपमान का लिया प्रतिशोध
हर लिया कुरुक्षेत्र ने, हमारा सारा आक्रोश.
यह विजय नहीं हमारी, धरोहर है आपकी
यह खुशी, यह आनंद- अनुग्रह आपका.
फिर भी अपनों का देख बिछोह
मन क्लांत हमारा.
कैसे रहें दूर - माया मोह भरा संसार
धिक्कारती, हमें ममता हमारी
हे प्रभु- शरणागत हम सब
कैसे संभालें राज हस्तिनापुर का
किंकर्तव्यविमूढ़ है मति हमारी.
कृष्ण:
हे माते कुन्ती
व्यर्थ अब यह सोच सबकी.
जिस समय से होकर गुजरे हैं पांडुपुत्र
जिस राह पर चल पड़े थे कुरुपुत्र
यह महासमर तो था अनिवार्य.
हर भीष्म, द्रोण, कर्ण को होना था धराशायी
कर्तव्यच्युत हो जायें जब ऐसे युगदृष्टा
धर्म मार्ग पर पग डोले,जब ऐसे गुरुओं के
राज्नीति की ओट मेम खेलें कूटनीति
अपनों के स्वार्थ की ओट में रचाएं षडयन्त्र
निमंत्रण दे महासमर को
धराशायी होंगे कुरुसमर.
देखी अभी कर्तूत भीम की
झलक दिखलायी दुर्योधन की पल में.
देख अभिमान भीम का
रोम-रोम भय से थर्राता.
एक पल में मस्तक बरबरीक के
रोष में किये टुकड़े हज़ार.
सिर्फ इतना ही कहा बरबरीक ने
इस युद्धभूमि मे नहीं देखा कोई योद्धा महान.
कालचक्र  एक घूम रहा था
कर दिया कुरु सेना का संहार.
कोइ पांडुपुत्र दिखा नहीं
जो कर रहा हो इस युद्ध में प्रहार.
अभिमानी भी, सह ना सका-
किया गदा से एक प्रहार.
अशोभनीय बर्ताव भीम का
भविष्य दिखा रहा – पूर्ण अंधकार
कुरुवंशियों का नाश किया पांडुपुत्रों ने
कौन रोकेगा- गर बने दुराचारी पांडुपुत्र.
राजवासी हस्तिनापुर के
कैसे रोकेंगे यह हाहाकार?
जीत के जश्न में मत भूलो लक्ष्य अपना
उत्तरदायीत्व निभाना, अब संयम नियम से
नहीं प्रजा को भयाकुल बनाना.
एक दूसरे का बन सहारा,
अंकुश लगानी दिशाहीन शक्ति को
लक्ष्य नहीं प्रतिस्पर्धी बनना, न बनो प्रतिरोधी
गूंथ एक दूसरे से मजबूत रहना
प्राणस्त्रोत बन, बनें सभी सुपथगामी.
कुन्ती:
जो सुना प्रभु, कानों विश्वास नहीं
नहीं देख सकती उद्दंड शक्ति भीम की.
क्यों प्रभु - शक्ति दे, हर लेते मति?
क्यों प्रभु भोगविलास में, कर देते हो दुःखी?
जब वर्तमान हम दुःखी
तो कैसे रह पाएंगे भविष्य मे सुखी?
कृष्ण :
नहीं माते! मैं नहीं हरता किसी की मति
न मैं करता किसे सुखी, न करता किसे दुःखी
वक्त के साथ जब बदल देता मापदण्ड
हर सीढ़ी चढ़, और चाहता मानव नये शिखर
इसी होड़ में, करता वर्तमान दुःखी
जिन विषयों को देख, पाकर होना चाहता सुखी
क्षणभंगुर वो सब, कैसे हो सकता पा उन्हें सुखी.
कर्मफल आस में, भूल जाता ध्येय अपना.
यह शरीर दिया नहीं भोगविलास के लिये
मनुष्यत्व के बाद देवत्व का स्थान
यह है परिक्षा, मनुष्य की देवत्व प्राप्ति की
मोह माया, काम, क्रोध अभिमान
गुजरना पड़ेगा तुम्हें इन सब से
अग्नि परिक्षा देने होगी तुम्हें.
जो गुजर सकेगा ऐसे भवसागर से,
वही प्राप्त कर पायेगा देवत्व.
बंधनमुक्त होकर नहीं करना जीवन यापन,
कर्तव्यपरायण बन धर्म की रक्षा करो
धर्मपरायण बन भवसागर तरो.
स्वार्थी बन कोई नहीं हो सकता परमार्थी
जो दायीत्व निभाना तुम्हें पाकर देवत्व 
उसका देना होगा प्रमाण तुम्हें,
कर मानव जीवन सफल.
कितनी योनियों से गुजर - तुमने पाया यह शरीर
भोग विलास मे डूब, मत भूलो अपनी मंजिल
जो पा सकते, धर यह मानव रूप
मत गंवाओ उसे, डूब इस भवसागर.
छोटे-छोटे दुःखों में उलझ, मत होना दुःखी
अनदेखा मत करो, वो अनगिनत सुख की घड़ी.
हर पल जो साथ चलती, बन साया तुम्हारे,
बड़े सुख की चाह में, भूलो मत नन्हे लम्हे सुख के.
हर पल संजोकर, पूरा करो ध्येय अपना.
देवत्व की ओर बढ़ो
मत गंवाओ अनमोल जीवन अपना.
जो घट गया कुरुक्षेत्र की धरती पर
नहीं कोई अनजान.
मन तुम्हारा धरा कुरुक्षेत्र का
घट रहा हर क्षण संग्राम.
धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, पाप-पूण्य
हर पल ले रहे, तुम्हारा इम्तिहान
मैं हर पल बनूंगा, सारथी तुम्हारा
डगमगाये न विश्वास, मुझमें तुम्हारा.
डोर इस चंचल मन की, थामे मैं
विजय पथ पर, ले चलूंगा रथ तुम्हारा.
अपने स्वार्थ पर, चलाने होंगे तीर तुम्हें
अपने विकारों को, करना होगा धराशायी
देनी होगी बलि, अपने अहं की
काट छिन्न- भिन्न, करना होगा मोह का जाल,
मैं तो सिर्फ बनूंगा –
सारथी ,पथ प्रदर्शक, मध्यस्थ,
कर्म सारे, करने होंगे तुम्हें
यदि जीतना है कुरुक्षेत्र अपना.
लड़ना होगा विकारों से अपने
सारथी नहीं तुम, सिर्फ युद्धरत.
कर्तव्यनिष्ठ बनो तुम, धर्मरत रहो तुम
मत घबराओ, देख विकट समरांगण
ऐसे महासमर में रहो एकाग्रचित्त
विनाशकारी नहीं, तुम विकाशकारी
माया, मोह, अधर्म, कुकर्म का विनाश
होता सदैव कल्याणकारी.
रक्षक बनो धर्म के, कर पूण्य काज
भक्षक बनो अधर्म के, कर मान अभिमान परित्याग.
मनुष्य पहचाना जाता अपने कर्मों से
राजा की पहचान - होती नीति नियमों से.
कर्मच्युत मानव को फल मिलता अपने दुष्कर्मॊं का
नीतिहीन राजा का - करती बहिष्कार प्रजा,
कर घोर समर.
फूलों के धागे में पिरो, बना लेते माला
फूल वही, खुशबू वही - पर प्रयोग अलग अलग
उसी तरह मानव धर्म - पिरो माला में,
बनते समाज के नियम
नियमों की माला - सजाती, संवारते-
देश की नीतियाँ
इन्हीं सब से बँधा – राज्यभार चलाता शाषक
स्वधर्म से ऊँचा समाज धर्म
और सर्वोपरी राजधर्म, जो टिका राजनीति पर
बलि चढ़ जाते राजवासी, यदि दूषित हो राजनीति.
न्योछावर हो जाते ज्ञानी, वीर
धर्मी, कुशली, विवेकी
जब घिर षडयन्त्रियों से होती राजनीति.
नीतियाँ तय होतीं, रख राजहित सर्वोपरि
जनकल्याण से होता सारा राज्य सुखी.
नहीं होती तय नीतियाँ,
रख स्वार्थ एक समुदाय का सर्वोपरि.
बीज बोती हिंषा, असहिष्णुता, विद्रोह का
कमजोर करती राजबल,
अराजकता में लपेटती राज्य को.
नीतियाँ जब ढालती
मन, कर्म वचन राजा के
तारतम्य इन तीनों में, सुदृढ़ करता राजपाट.
दुष्ट, स्वार्थी, षडयंत्रकारी, शत्रु
परे रहते ऐसे राज से.
प्रजा खुशहाल, राजकोष भरपूर
रहते ऐसे राज .
जिस दौर से होकर गुजरे पितामह भीष्म
कल्पना नहीं की अत्याचार-दुराचारी कुरुवंशियों की.
जन्मांध धृतराष्ट्र, मदांध दुर्योधन
कामांध दुःशाषन - उस पर
धर्मांध पांडुपुत्र – शिकार होते रहे शकुनि का
सक्षम की अक्षमता, होती बड़ी मर्मांतक
देख दुराचार चुप रहना महारथी का-
होता बड़ा मर्मभेदी.
जो भी बीत रही पांडुपुत्रों पर-
सारे अत्याचार, सारे अन्याय
घाव गहरे लगते रहे सीने पर-
बार-बार सहते आघात
तीर बन रणभूमि में भेद गये सारा शरीर
उनकी पीड़ा, रुधिर बन झर गयी,
जब किया, प्राणों का त्याग?
अब कोई नहीं समक्ष तुम्हारे
धर्म, न्याय, प्रेम, विश्वास के स्तंभों पर
भोगो हस्तिनापुर का राज.
धरोहर पितामह की, रखना तुम्हें मान
बलिदान पितामह का खोना नहीं तुम्हें.
अभेद्य हस्तिनापुर का स्वप्न,
अदृश्य पाषाण हाथों में
कैसे सौंप देते पितामह?
सबसे पहले दी अपनी बलि
जब देखा पूरा होता सपना अपना.
द्रौपदी:
हे सखा कृष्ण!
इस घोर समर में कैसे रहे - आप मध्यस्थ?
जिन मूल्यों की रक्षा करने
किया अपनों का बलिदान.
उन्हीं मूल्यों को रख ताकपर
कैसे करेंगे – प्रारंभ अपना अभियान?
धर्मक्षेत्र की आड़ ले,सबने किया अधर्म,
जीत की लालसा में
अब हो गया इतिहास कलंक.
कृष्ण:
सुनो कृष्णे! यह अब भी ठहरा धर्मक्षेत्र
जो चल रहे थे, अस्त्र महासमर में
अहं हो रहा था भस्म.
लोट भूमि में प्राण तजे महारथी
नहीं हो रहा कोई अधर्म.
ईर्ष्या, द्वेष, बैर, शत्रुता-
युद्धभूमि पर, पहुँचते अपने उत्कर्ष.
अधर्म से कभी नहीं, लड़ता कोई धर्म
न पाप से होता, कभी पूण्य का अंत
अंधकार मिटा नहीं सकता, श्रोत प्रकाश का
मृत्यु मुक्त नहीं कर सकती, किसी भी प्राण का.
शक्तिश्रोत हैं यह सब, बदलते रहते रूप अपना.
कोई किसी का नहीं बैरी, न कोई किसी से सर्वोपरी.
युग बदलते ही बदल जाते धर्म- अधर्म के मापदंड
समय की चाल पर,बस सब थिरकते रहते.
कोसते क्यों तुम खुद को - बन कर दुःखी?
मन बदलते ही, बदल जाता मंजर
पर कहाँ, कब कुछ बदलता-
सब कुछ देख मन डोलता.
जो वेदना देख रहा, यह शिविर
जो लहर छा रही, चेहरों पर
देखी मैंने कुरुक्षेत्र के महासमर.
चल रहे थे,  तीर महारथी भीष्म के
फूल से बरस रहे थे पांडुपुत्रों पर
जयजयकार कर रहे जब उठाया यह कदम.
मैंने देखी भीष्म की वो शिकन
जब प्रतिज्ञा मेरी तोड़ने, किया मुझे विवश
रथचक्र उठा लिया मैंने, ठहर थम गया समय.
चाहते भीष्म ऐसा होना, समझ आया उस पल.
यह था भीष्म का महासमर, उन्हीं का था संदेश
प्रभु अब तो उठाओ अस्त्र,
मत रहो मध्यस्थ.
वेदना भीष्म की, नहीं सह सकता कोई
उनकी चुप्पी, उनकी भक्ति हस्तिनापुर की
विरले ही समझ सकते, नहीं समझ सकता कोई.
बगिया हस्तिनापुर की उजड़ रही
घुट - घुट जी रहे हस्तिनापुरवासी
निरुपाय भीष्म सब देख सह रहे
चालें शकुनि की, करतूत दुर्योधन मूढ़मति की
चाहते भीष्म, पल में पलट सकते पासा
पर वह न था नीतिसम्मत, न ही मांग समय की
फिर कोई नया शकुनि, चला षडयंत्र की चालें
संवारता, रंगता किसी और दुर्योधन को.
महासमर ऐसा रचा, देख समय भी थर्रा गया
दस दिनों तक अकेले, चलाया महासंग्राम
साथ अपनी ही मृत्यु का, दिखा कारण
किया उन्होंने विश्राम.
अपनों के हाथों, अपनों की देना बलि
होता बड़ा विकट, नहीं अति सहज काम.
कुन्ती:
प्रभु - प्रभु! क्या सब कह डाला आपने
वेदना पितामह की, क्या सिर्फ सही उन्होंने?
पांडुपुत्रों ने सही, हस्तिनापुर ने सही,
धृतराष्ट्र ने सही, गांधारी ने सही
सबने सही, प्रभु.
अकर्मण्यक, अनदेखी, जड़ता-
ज्ञानी ध्यानियों की
सहता सारा समाज.
युगजीवी - होते नहीं ऐसे.
जिनके कंधों पर चलते युग,
वही हो जाएं शिथिल अगर
ढह जाता सब कुछ.
कहिए प्रभु – आप तो थे मध्यस्थ
देख सकते थे सब कुछ - कर सकते थे बहुत कुछ
फिर भी बने रही मध्यस्थ.
सवाल कई पूछेगा - आने वाला युग
व्यर्थ बली चढ़े रथी महारथी
और – तर्क-कुतर्क में उलझ
पेंगे लेते रहा अधर्म.
आने वाला समय –
कहाँ देखेगा ऐसे महारथी.
किसका पूर्वाभाष दिया आपने,
खेला नहीं, ऐसे ही ऐसा खेल.
गूढ़ प्रयोजन आपका-नहीं देख पा रहे हम
कुछ अंदेशा तो मिले
बढ़ा सकें हिम्मत से-
ये अपने डगमगाते कदम.
कृष्ण:
हे प्रिय माते!
अब मत करो कोई दोषारोप
जो भी सोच रही तुम – प्रतीत हो रहा तुम्हें
आभाष आने वाले युग का.
फिर से दोहराता मैं, बार-बार
कुछ नहीं गलत, कुछ नहीं सही
यह जो कह रहे , पाप-पूण्य, धर्म – अधर्म
सब कुछ मुझसे जन्म लेते
न कोई प्रिय, न अप्रिय
मैं स्थितप्रज्ञ, तुम सब विचलित.
जिसे तुम कह रहे - अधर्म, अन्याय, पाप
एक युग दिये जा रहा इन्हें
निर्भय करेंगे राज-
प्रजा रहेगी मायामोह में ओतप्रोत
अर्थ के होंगे अनर्थ, पर नहीं कोई रोष.
सब ढूंढेंगे स्वार्थ में परमार्थ.
नियम बनेंगे शिखंडियों से,
वार करेंगे छिप कर अर्जुन - पितामह पर,
सारी व्यवस्था नाचेगी शकुनि की चालों पर.
जिसे तुम समझती अराजकता -
राज करेगी जनमानस पर.
ज्ञानियों के ज्ञान, दूरदृष्टाओं की दृष्टि
सीमित रह घुट-घुट
सहेंगे वेदना भीष्म.
व्यवस्थाओं की अदला - बदली,
करेगी प्रजा देकर अपनी बलि.
निगल जाएंगे
नए संपोले नयी व्यवस्थाओं को,
भूलेंगे अपनों की बलि.
पर सब मगन रहेंगे - नशेमेंअपने
मायामोह के पाश में - कुछ ना होगा एहसास
आसक्त हो अर्थ के – भोंगेंगे चरमसुख.
जिसे तुम कह रही आज
सत - असत, पाप – पूण्य
परिभाषा इनकी बदल जायेगी,
आ रहा ऐसा राज.
इतिहास पर अपने गर्व करंगे-
सीखना उससे कुछ नहीं
प्रपंच रचेंगी और रहंगे दुःखी.
दुर्योधन, दुःशासन उत्पात करेंगे
दे धृतराष्ट्रों को राज.
शकुनि अपने बुनेंगे ताने बाने
जकड़ शिथिल हो जायेंगे पितामह
पर कहाँ दे सकेंगे अपनी बलि.
जो घाव दर्द नहीं देता- होता बड़ा घातक
ऐसे जख्म अपने कुरेद-कुरेद
जीयेगा आने वाला युग.
सभी आततायी, चलेंगे भेड़ चाल – कुपथी
अधर्म को उढ़ा धर्म का लिबास-
उलझेंगे कर कुतर्क.
आसक्त बन - स्वार्थ का
ढोंग करेंगे परमार्थी
समाजसेवी का रुप सजा - फिरेंगे
चहुँओर नरभक्षी.
अंधकार में गुजरेगा जीवन,
बंद हो जाएँगी आँखें, देख ज्ञान की किरण.
जो कर गुजरेंगे प्रपंची - उसके समक्ष
यह कुरुक्षेत्र - तो कुछ भी नहीं
यह षड्यंत्र - तो सिर्फ खेला मात्र
यह चीरहरण - तो दिखावा मात्र
यह लाक्षागृह की आग – प्रतीत होगी बर्फीली.
होंगे रोज नए षडयंत्र, हिंसा की आँच में
खींचेंगे चीर धर्म का, असूलों की वेदी पर
रचेंगे कुरुक्षेत्र, नवयुग निर्माण को चढ़ाकर सूली
उठेंगी लपटें लाक्षागृह की
तिलांजलि दे व्यवस्थाओं की.
झूठे मापदंडों पर नाप अपनी प्रगति
दुंदुभी बजा विजय नाद करेंगे.
सारथी बन जो गुजरा हूँ, इस कुरुक्षेत्र से
अंदेशा दिये जा रहा आने वाले तूफान का
सुन रहा निनाद, अर्धसत्य का
नहीं सुनेगा सत्य, असह्य होगा प्रतीत.
समाज रचा जायेगा ऐसी ही विविधताओं पर
विधाएं होंगी, न होगा संतोषी कोई
सुनहरे कल की होड़ में, उजाड़ेंगे वर्त्तमान सभी.
संतोष की मृगतृष्णा के पीछे – फिर रहेंगे मगन
तारतम्यता मन, कर्म, वचनों की होगी छिन्न-भिन्न.
दोषी होंगे खुद, पर दोषारोप में लिप्त रहेंगे प्रमादी.
कल्पना शक्ति होगी चरम सीमा पर,
फिर भी कलपते रहेंगे कल्पना में-
न लगेगा हाथ कुछ
सुलझाएंगे एक - उलझाएंगे दस
इसी उलझ - सुलझ में रहेंगे व्यस्त.
लकीर के बन फकीर, औचित्य ठहरायेंगे चीरहरण
न्यायसंगत बताएंगे अपने अन्यायों को.
समाज, परिवार, रिश्ते - सिर्फ रेत के महल
सजा, संवार- दंभ भरेंगे अपनी संस्कृति का.
सत्य को कर अनदेखा, असत्य पर पग धरेंगे
जो चिरंतन –तजेंगे, क्षणभंगुर को जोहेंगे.
ऐसा युग गुजरेगा इस धरा से
सो जायेगी मानवता - ओढ़ तमस की चादर
ढोंगी, प्रपंची - रचेंगे इतिहास अपना.
यह युग होगा - कलि का युग
अलि - अलि में, होगी कलि.
धर्म, सत्य, पूण्य - थक चूर
लेंगे नींद - प्रेम की छांव तले.
राग, द्वेष, जलन ,हिंसा
रग-रग में बस, करेंगे राज अपना.
विभिन्न अंगों में सजा रहूंगा मैं
देख मुझे विचलित होंगे.
मेरे अपनेपन को भूल-
बारबार वार करेंगे - मदमस्त , उन्मत्त.
जिसे तुम कह रही अधर्म, पाप, असत्य
वही बनेंगे मार्गदर्शक- ऐसा होग भयावह युग.
इन सबका खेल रचने में
पूरा समर्पित होगा वह युग.
जब थक चूर हो जयेंगे
समेट लूंगा - लीन कर लूंगा
फिर जाग उठेंगे - सत्य, धर्म, पूण्य
ऐसा ही रचा होता युगचक्र.
धर्म ही कर्म की पहचान कराता
कर्म ही धर्म की लाज रखता.
कर्म में नीयत, होती अति महान
यही नीयत तय करती, नियति कर्म की.
यदी आग लगी साड़ी का चीरहरण करता -
बचाता प्राण द्रौपदी के,
वही दुर्योधन महान कहलाता.
पर कामुक नीयत - कुरु महारथी-
किये अनगिनत कुकर्म,
उसी नीयत ने दिखाये – हम सबको ये दुर्दिन.
हम सब शाख, फूल, पत्ते मानवता के
और फूलेंगे, फलेंगे, फैलाएंगे शाख अपनी
नए धर्म, नए नियम बना
मजबूत करेंगे यह वृक्ष अपना.
सब जुड़े एक से- नहीं कोई भिन्न,
पवन नियम की, पानी प्रेम का,
तपन सहिष्णुता की, जड़ें धर्म की.
इनसे बनाएंगे- अजर, अमर
रखेंगे चिरहरित यह कल्पवृक्ष.
तुम व्यर्थ चिंतित - आनेवाले युग से
मत डगमगाओ कदम अपने
जो वर्तमान सौंप रहा - शिरोधार्य करो
कर्मी कुशल बन, संभालो राज्य अपना.
कुन्ती:
अवश्य प्रभु!
जो आपकी इच्छा - हमें शिरोधार्य.
जो आपकी कृपा – हम शरणागत.
जो आपकी शक्ति - न्योछावर इस नभ मंडल.
शांति दें, संतोष दें; हे कृपानिधान
अब जो सोचेंगे, कहेंगे, करेंगे
आशिर्वाद आपका - हे करुणानिधान.

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अन्तःपुर की व्यथा कथा -5



युद्ध के पश्चात

द्रौपदी:
जीत गये! हरा दिया हमने
कौरवों ने पायी दुष्कर्मों की सजा

गूँज उठा पांचजन्य कृष्ण का,
युद्ध का अंत हुआ.
कहाँ हो माते?
स्वप्न जो देखा हम सबने
मिलजुल भोगेंगे राजसुख
प्रतिशोध लेंगे, अपमान हमारा,
वो लाक्षागृह, वो शकुनि की चालें
वो अज्ञातवास, वो चीरहरण
सबका प्रतिशोध – लिया पांडुपुत्रों ने
बहा अधर्मी कुरुवंशियों का लहू.
तड़पते, सिसकते, कुलबुलाते कीड़े की तरह
देखा पापी, दुराचारी दुर्योधन.
जांघों को चीर मैंने
सींचे केश अपने-पूरा किया प्रण.
सुन रही हो माते-
अब किसका इंतजार-
अठारह दिनों से विचलित मन मेरा
अब ले रहा शांतिवके झोंके.
हस्तिनापुर हो गया - दुराचारियों, षडयंत्रियों से मुक्त
अब चलेगा धर्म का रथ,
नहीं रहेगा भयभीत कोई
सब भयहीन, सब स्वतंत्र.
आओ उत्तरा! तुमने भी सुना?
यह घड़ी तो आनी ही थी,
सखा कृष्ण, जो थे साथ हमारे.
जाने कितने-बलिदान दिये हमने
जाने कितनी – घड़ियाँ बिताई सांसें रोक.
सुबह विदा करते - अश्रुपुरित नयन
पता नहीं शाम तक - सांसें चलती रहें
या रुक, लहू बन, हमारी आँखों से बहने लगे.
सच ही कहा था कृष्ण ने
जीतेगा धर्म - जीतेगा जो रहेगा धर्म के साथ.
वही कर दिखाया - लोट रहेभूमि पर
दंभी, अधर्मी - कुरु सैन्यगण.
फिर जीत गया धर्म, हरा अधर्म.
क्यों माते- ठीक कहा न मैंने
कहीं उलूल - जुलूल तो नहीं कह रही,
जीत के आवेश में.
कुन्ती:
हाँ - सुना मैंने - समाचार जीत का
जीत गये - इस पल
हार गया अधर्म - इस घड़ी,
कुरुवंश धुमिल - इस युग.
पर कब तक रहेगा-
यह पल, यह घड़ी, यह युग.
विजय का उल्लास, डुबो रहा हम सब्को
भुला रहा बलिदान हमारा.
अजीब होता अहसास विजय का
भर दिया सूनापन - इस अधीर मन में
जिसे पाने को किया – इतना जतन
उसे ही पाकर- सब कुछ लग रहा शून्य !
सारी चाह हो गयी पूरी
सारे स्वप्न साकार हुये
अब नहीं करना कोई प्रयास.
जिसकी चाह में झुलसते रहे - इतने साल,
आज पूरी हो गयी - क्यों न हों मगन.
व्यर्थ नहीं गयी-पुत्रों की शिक्षा
साकार हो गई –अपनों की बली.
कुरुक्षेत्र की भूमी, रक्त रंजित हो कर भी
मुस्कुरा रही - उगते हुए सूरज सी
अभिवादन कर रही पांडुपुत्रों का.
पूरी कर लो – चाह अपनी
संवारो अपने कर्मों से
साकार कर लो स्व्प्न अपना,
संचार करो धर्म का,संस्कृति का
विकाश करो –नई सभ्यता का.
पाँच गाँव न मिले तो क्या-
सारा साम्राज्य अपना लो हस्तिनापुर का
नई सांठ-गांठ कर बढ़ाओ सीमाएँ
पनपाओ नये राजकीय नीयम.
यह विजय का उल्लास
साथ ला रहा नई चुनौतियाँ
नई बाधाएँ, नई नीतियाँ.
यह जीत तो शुरुआत हमारी,
अभी जीतने - कितने और युद्ध
अभी आएंगी उल्लास की घड़ियाँ
सुख की घड़ियाँ,
साथ मिल बाँटने की घड़ियाँ.
हाँ द्रौपदी हम जीते- अनगिनत युद्धों से
यह पहला युद्ध
द्वार नया खुला-प्रवेश करना हम सब को साथ
मुकाबला करना-नई चुनौतियों से
बलिदान देना अपना-नया इतिहास रचने में.
यह जश्न, यह हर्षोल्लास
दे रहा, हमें नया जीवन
कर रहा, उत्सुक मन
नशा भर रहा, उन्मुक्त कर रहा
सारे तन, मन
भुला सकें – जो सब खोया-पाने यह पल.
कष्ट मुक्त कर रहा.
नई ऊँचाईयाँ छूने  -कर रहा हमें बेकल.
उत्तरा:
सबने कुछ न कुछ खोया
तब पाया यह समय.
परिणाम से नहीं थे, हम अनजान.
हम सब थे तैयार – दांव पर लगाया सर्वस्व अपना
हारे नहीं बाजी इस बार
प्रभु कृष्ण – सारथी हमारे
इतने भयंकर समर में-
आसान नहीं धैर्य को बनाये रखना
अधीर नहीं होने दिय
वाक्पटुता दिखा अपनी - सब कुछ कर दिया समर्थ
सबका साहस बढ़ाया - दुगुना किया
मनोबल पल - पल किय सुदृढ़
हरते रहे वे सब की अधीरता
विषपान से भी कठिन - यह दुःखों का हरण
आधार बन सशक्त किया
स्वप्न जीत का.
जो भी खोया हमने इस महासमर में
अतूलनीय, पर फलदायक.
असहनीय, पर सुखकारी.
अपरिहार्य, पर युगोपकारी.
वीरों की बलि पर - अशोभनीय रुदन
जिन कारणों से दी बलि सबने
जिन मूल्यों को बचाने - मिटाया खुद को
नहीं कर सकती अनदेखा - आने वाली पीढ़ी.
धिक्कार उस समय को, उस सभ्यता को
जो देकर दुहाई बलिदान की
कुचले सारे मूल्यों को
होकर स्वार्थ में ओतप्रोत.
सरे युद्ध - सारे बलिदान
बरकरार रखते मूल्यों की प्रतिष्ठा.
वही हुआ आज हस्तिनापुर में
वही होगा कल
यदि अपमान हुआ इन्हीं मूल्यों का.
ऐसे हे कुचले जायेंगे - अहंकारी, अधर्मी, पाखंडी.
अनदेखा नहीं कर सकता-कोई समय
हस्तिनापुर का - यह महायुद्ध
मर्मांतक कहे कोई –
पर अचूक, अवश्यंभावी-
नहीं रह सकता कोई अछूता
यदि दोहरायेगा इतिहास कुरुवंशियों का.
युद्ध का परिणाम - हो सकता भयावह इतना
कोई नहीं जीतता - ऐसे युद्ध,
सिर्फ अट्ठहास करते - गिद्ध, सियाल, चील, भेड़िये
होड़ लगाते - चीर फाड़ करते
उन्हीं कुकर्मियों, विवेकहीनों के शिथिल शरीर.
मैं देख रही-
कालिख पुता सारा गगन-
चील कौवों से भरा
रक्त रंजित भेड़िये - भाग रहे इधर उधर
भर रहे पेट लोलुप.
शिथिल बेबस – निर्जिव
जिन्होंने किया मूल्यों को अनदेखा
वही आज धराशायी.
जिन्होंने दिया साथ अधर्म का
वही आज अंगहीन.
गूंज रहा गगन सारा – इन्हीं अट्टहासों से
यही गूंज - गूंजती रहेगी, सदियों तक समाज में
मूल्यों की रक्षा करने, धर्म के मार्ग पर चलने
नीति सम्मत व्यवस्था बनाने
प्रेरित करेगी सारे समाज को.
झकझोरेगी बुद्धिजीवीयों को.
जीत का नशा, कितना उन्मत्त
कर रहा मेरे मन को.
सारे आक्रोश मेरे बह रहे- आँसूं बन
युद्ध की बाजी जीत.
जब नहीं रहा बैरी कोई, तो अब बैर कैसा?
नहीं रहा अपमानी, तो प्रतिशोध कैसा?
नहीं रहा,प्रतिद्वंदी तो अहं का प्रदर्शन कैसा?
सच कहा माते आपने
सूनापन भर रहा, धीरे - धीरे इस मन में.
क्या – यही सब भरा था – इतने सालों से
यदि था, तो क्यों?
कुन्ती :
नहीं पुत्री- उत्तरा
जो सब उकसा रहा था
जो अधीर कर रहा था
वो सारी बेबसी, प्रतिशोध, अपमान,
अधिकार, अभिलाषा
सब कुछ रीत गये- पाकर मंजिल अपनी
भस्म हो गये - पाकर विजय कुरुवंशियों से.
ऐसा ही होता - हर किसी से
मंजिल पाकर - दूर हो जाती सफर की थकान.
सुस्ता मंजिल पर दो घड़ी - संचार होती नवशक्ति
फूंकता मन नये प्राण
फिर दिखलाता – एक नया पड़ाव.
और चल पड़ता - यह जीवन एक नया सफर.
यह महायुद्ध - सिर्फ एक पड़ाव
किसने देखी - मंजिल अभी
जाने कितने पड़ाव - जाने कितने सफ़र.
हर पड़ाव पर- हल्का होता एक बोझ
फिर उठा नया एक बोझ-
चल पड़ते हम नऎ सफ़र को.
माया, मोह, अहं में ओतप्रोत – यह जीवन
बार – बार समझता- हर पड़ाव को मंजिल अपनी.
जब समझता - फिर चल पड़ता नए सफर पर.
हमारी विजय, कुरुवंशियों की हार
कौन कह सकता-किसने क्या खोया
कौन कह सकता-क्या थी रणनीतियां
पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण की?
किसने पहचानी- चालें कृष्ण की?
दुर्योधन तो - शिकार पहले से हो चुका था
चालें अधूरी थीं शकुनि की-जब हराया पांडुपुत्रों को
अब पूरी हो गयीं - इस महासमर में.
सही कहा - पुत्री उत्तरा तुमने
कोई नहीं जीतता - ऐसे महायुद्ध.
जो बलि चढ़ गया – वो तर गया
जो मना रहे जश्न जीत का
वही जानते- घाव कितना है गहरा !
नहीं भरने वाला सारे जीवन
इसीसे बहेगी धार रक्त की,
यही वेदना देगा, पल-पल सारे जीवन
मांगेंगे मृत्यु - पर मजबूर करेगा जीने,
यह जश्न जीत का – इसीलिये मना रहे हम सब
यह हर्षोल्लास, यह जश्न
ले जायेगा माझी बन, धार समय की पार.
द्रौपदी :
हाँ माते- और माझी अपने स्वंय कृष्ण
कौन डुबो सकता नाव हमारी.
अब तो दिखा भी दिया स्वंय सखा ने
कितने चतुर, कितने कुशल - वो सारथी.
पल में धराशायी किये, सारे महारथी
कुरुवंशियों का विनाश.
मन दहल जाता पल में सोच,
यदि चुन लेता उन्हें दुर्योधन
छोड़ पराक्रमी सेना उनकी!
हर बार दोराहे पर – खड़ा करते प्रभु
मजबूर करते चुनने - नयी राह.
दुर्योधन की मति हार गयी
जब देखी पराक्रमी सेना.
लालच में भर चुन ली सेना उसने
छोड़ दी प्रभु की शक्ति.
हर दुराहे पर - चुनो नयी राह
छोड़ लालच का साथ
देकर स्वार्थ की बलि
तभी करोगे, पूरी शक्ति अपनी
नहीं समझ पाया सीख प्रभु की,
अब धराशायी, समर में आततायी.
उत्तरा:
सारा महायुद्ध – सार प्रपंच जीत का
अधूरा प्रभु के प्रेम बगैर.
इस महायुद्ध में बने सारथी हमारे
अब आगे भी – क्या रहेंगे साथ हमारे?
क्या होगा जब लौट जायेंगे, नगरी अपने?
कौन बनेगा दिग्दर्शक अपना?
अभी वक्त लगेगा संभलने हमें.
हम नहीं – पूर्ण स्वावलंबी
कुछ दूर अभी तक साथ प्रभु का
अत्यावश्यक, जनहितकारी.
कैसे संभालेंगे - राजकाज ?
कैसे बनायेंगे - नीति सर्वसम्मत ?
मन बेचैन हो जाता – सोच कर यह सब
पूरा कैसे करेंगे – स्वप्न शक्तिशाली हस्तिनापुर.
माँ कुन्ती कुछ तो कहो
चुप्पी आपकी बेकल कर रही अन्तर्मन मेरा.
कुन्ती:
मत हो अधीर – पुत्री उत्तरा
साकार होगा स्वप्न हमारा.
प्रभु का साथ हर पल
जो उन्होंने किया, आत्मसात किया हमने
जो नीतियाँ सिखाई, जिन मूल्यों को सराहा
अपनाया हमने, उसी पर जीता महायुद्ध.
प्रभु नहीं रह सकते, अमर अजेय बन कर मानव
बीज बोय उन्होंने धर्म का,
जनहितकारी मूल्यों का.
धरोहर दी अपनी इस धरा पर
संजो बढ़ाना पनपाना, इस बीज को.
दक्ष, कुशल बनाया- देकर सबको ज्ञान
इसी पर बनायेँगे नयी व्यवस्था
जहाँ फूलेंगी मूल्यों की बगिया
सारे समाज में महकेगी खुशबू इसकी
यही खुश्बू रमाएगी-
प्रभु को जन-जन में.
जो ज्ञानचक्षु दिये प्रभु ने
उसी से देखेंगे पनपता सुखी समृद्ध राज्य हमारा.
तुम क्यों होती अधीर इतनी
हम सब अभी तक –एक साथ
रहेगा वरद हस्त शीश हमारे
नहीं डुबोंएंगे मझधार
पर नहीं बनेंगे सूत्रधार.
समझा दिया - जब बने सारथी
इस महासमर के.
वो समाये हर कण में
फिर भी हैं सबसे निर्लिप्त.
उन्हीं का रचा रचाया सारा मायाजाल,
पर वो रहे निर्विकार.
तुम महसूस कर सकती-हर पल
स्पंदन उनका.
न कोई उनसे परे, न वो किसी से परे
सोचने भर की देर और वो बन जाते –आधारभूत
तुम अधीर बन, मत समझो उन्हें निर्बल
वो ही तुम्हारे प्राण, वो ही तुम्हारा ज्ञान
वो तुम्हारा मान, वो तुम्हारा अभिमान.
हे पुत्री प्रभु तो बसते, चिंताधार बन तुम्हारी
उनके प्रेम की-अद्भुत सरिता
पत्थर तक तर जाते, तज अहं का भार.
तुम भी निकाल फेंको ’मैं’ का अहं
यही करता विचलित मन
तिनके की तरह डोलता, देख तनिक बाधा
यही करता निर्बल तुम्हें, देख क्षणिक दुविधा.
अहं का तेज- जला देता विवेक
ज्ञान चक्षु बंद हो जाते-देख अहं का दौरात्म्य.
कोई भी, कोई भी उपाय,
कोई भी हितैषी, कोई भी संदेश
आग में तेल की तरह - भस्म हो जाता
और तीव्र करती – अहं की ज्वाला.
यही मदांधता जला गयी - कुरुवंशियों को.
’मैं’ को ढालो ’हम’ की सोच में
फिर देखो कैसे जलता अहं का खांडव वन
सब कुछ हो जाता संभव.
संबल मन - ले पहुँचता नयी उँचाईयाँ.
मैं से हम का सफ़र – अति सहज
बस सोच बदलने की देर
और पल में बन जाते मित्र
जिनसे सदियों थे बैर.
प्रभु का सानिध्य सबको
पवन बन समाये सबके प्राण.
द्वार दिलों के बंद मत करो
स्वच्छ सुगंध पवन प्रभु की
बसा लो, रमा लो - फिर करो सारे काम.
अपनी इच्छा से ऊपर उठ कर
अपने स्वार्थ से हो कर परे
अपने अहं को तज कर,
साथ सभी के भरोसे
तुम जीत सकते- हर महासमर,
तुम तोड़ सकते – हर शत्रु कुचक्र.
यह विजय की घड़ी, यह पांचजन्य की गूंज
ओत प्रोत कर लो- अपना मन.
दौर भय का दूर हुआ
घड़ी संकट की बीत गई,
अब नया सूरज, नई कल्पनाऒं के साथ
उगने को बेकल, हस्तिनापुर क्षितिज पर.
आने वाला समय – देगा प्रमाण
कितना सटीक रहा- हमारा विजयोल्लास.
कितना फलदायक रहा – अपनों का बलिदान.
कितना सफल रहा – प्रभु का प्रभुत्व.
द्रौपदी:
सही उतरेगा - समाज की कसौटी पर
वंश हमारा देकर इतना बलिदान.
नहीं बनेंगे कर्तव्यहीन, न ही दुराचारी
दूर रहेंगे हर स्वार्थपूर्ण कार्य से
बनेंगे सर्वजनमंगलकारी,
रहेगा सशक्त योगदान- बनाने सुदृढ़ हस्तिना.
खरे उतरेंगे वंशज हमारे
समय की कोई भी हो कसौटी.
यह कुरुक्षेत्र का उल्लास,
नहीं भुला सकता बलिदान हमारा.
जाने कितने सुख - संजो रखे इतने सालों
जाने कितने स्वप्न - पिरो रखे आँखों ने हमारी
सब भोगेंगे, सब करेंगे साकार.
सोच मन मेरा होता अधीर.
इतना चंचल चपल होगा
कभी सोचा न था.
कुन्ती:
जाने कैसी - यह घड़ी
अपनों को कर दुःखी, हो रहे अपने सुखी
सुख-दुःख – सब कुछ बँट सकता
हर सकता अपनों का दर्द.
अपनों ही ने समझा – अपनों को अपना,
धीरे-धीरे बिछड़ दूर हुए.
क्यों नहीं देखा वक्त ऐसा
प्रेम में विह्वल, अपने करते साकार – स्वप्न अपना
पांडुपुत्रों का दर्द, आँसूं बन छलकता कुरुपुत्रों में
विधि को नहीं था मंजूर.
महासमर में कह दिया कृष्ण ने
कर्मफल की आशा मत करो
आसान है कहना यह-
फिर यह महासमर क्यों रचाया?
जब मिलेंगे तो - पूछूँगी मैं
माया मोह के सागर में डाल
कहते फिर क्यों – इनसे रहो परे
कैसे रहे अछूता कोई - गुजर कर ऐसे भँवर से?
क्यों कहते फिरते-विरल मानव जीवन
मिल सकता - मोक्ष यही जीवन पाकर.
गुजर कर देखें – एक बार निर्मोही बन
नारी मन से होकर.
कहाँ रह गये - क्यों कर रहे देर इतनी
जरुर जान गये होंगे - उठेंगे सवाल
कैसे मनाऊँ मैं खुशी
कैसे बजाऊँ मैं जश्न की दुंदुभी
जब बहन गांधारी दुःखी
भ्राता ध्रितराष्ट्र – विषादी.
यह कैसी सुख की घड़ी
करती है और अधीर मुझे
सुनो द्रौपदी - सुनो उत्तरा
क्या तुम रह सकती कभी सुखी
चढ़ जायें जब अपने ही- स्वार्थ की बलि?
द्रौपदी:
संभालो माते….
व्यर्थ आपका यह रुदन
क्षत्राणी हैं आप- सबकी शक्ति आप
क्यों अब – होती हैं कमजोर
सब जान - चले महासमर को.
परिणाम नहीं अनभिज्ञ किसीसे
रिश्तों की डोर - तोड़ी नहीं हमने
सब कुछ निभाया - पर पाया सिर्फ अपमान.
रिश्तों का अपमान - दरार डाली कुरुपुत्रों ने
चटखाई डोर बार - बार, कर हमारा तिरस्कार.
गैर नहीं थे, पर बनाया गया
बैर नहीं था, पर पनपाया गया.
कितनी बार सहते यह अनादर
प्रेम नहीं, कमजोरी का प्रतीक
स्नेह नहीं, दुर्बलता का द्योतक,
माफी नही, भयारुता का प्रदर्शन.
क्या नहीं सहा हमने?
क्या नहीं किया अनदेखा?
उन्होंने ही नहीं निभाई रिश्तों की लाज
यही होता - डोर रिश्तों की तोड़ने का अंजाम.
शोभा नहीं देता शोक - अधर्मियों के अंत पर
अपमान पायेगी - अपनों की आत्माहुति.
जीत महासमर की - धर्म की विजय
जश्न इस जीत का - थर्रायेगी छाती अधर्म की
अभी आते होंगे – विजयी वीर हमारे
पधारेंगे सखा कृष्ण मेरे
जो स्वप्न दिखाया – पूरा किया
जो प्रण लिया- अधूरा नहीं छोड़ा
सारथी बन – सहज कर दी जीत हमारी.
साथ अपनों का अनिवार्य इस सफर में
ठोकर लगे तो संभालें, चोट लगे तो मरहम.
पाप के दलदल  में नहीं ठहरते राजमहल,
झूठ के प्रपंच से- नहीं संवरती व्यवस्थाएं
अधर्म के जोर पर- होती नहीं भयाकुल प्रजा,
भेदभाव से – नहीं कायम रहती एकता.
अनजान नहीं इन सब से कुरुवंशी,
जानते इनका परिणाम भयंकर
फिर भी चल पड़े ऐसे कुपथ पर.
अंधे के अंधे - न देखें, न सुने
जब उन्हें नही पछतावा,
तो हम क्यों करें पश्चाताप.
अधिकार अपना पाया, धरोहर पायी वापस
मिलजुल स्वागत करें, जो आयी ऐसी घड़ी.
जो शोक मनाया हमने इस समय,
अधर्मी, दुराचारी षडयंत्रीयों के अंत पर
तो अपमान होगा उनका,
जो भेंट चढ़े इस समर .
जो लिबास उन्हें पहनाया रिश्ते नातों का,
जो अनदेखा किया अपने अपमान का
जो अवज्ञा की नियम, विधान की.
यह हमारी जीत, हमारे विश्वास की जीत.
विषादग्रस्त हो खोना नहीं लक्ष्य हमारा
प्रमादमय हो लुटाना नही वर्चस्व अपना.
प्रजा हस्तिना की बाट जोह रही हमारा
नया लक्ष्य, नयी व्यवस्था, नये नियम
खुशहाल करेंगे, हरितमय करेंगे
हस्तिनापुर अपना, मातृभूमि अपनी,
स्वप्नभूमि अपनी, कर्मभूमि अपनी.
उत्तरा:
हे माते कुन्ती! तनिक विचलित न हों
सर्वनाश न समझें इसे, यह है सृजन नूतन
निर्णय के परिणाम पर, अनुचित होता विषादग्रस्त
हम सब हैं साथ, रचना है अब नया इतिहास.
इस सुख की घड़ी के लिये, काटे इतने दुःख
फिर क्यों नहीं हम सब खुश,
क्यों जल रहे - पश्चाताप की आग में?
क्या ढूँढ़ रहे - चिता की राख में,
जब सुख में न रह सकते हम सुखी
कैसे बन पाएँगे दुःख में सुखी ?
कैसी है यह जीवन धारा
दुःख के दुर्दिन बहती रहती
ठहर - स्थिर बन जाती, देख घड़ी सुख की .
दुःख के दिन खोजती फिरती सुख की घड़ी
पाकर सुखे, फिर बन जाती दुःख की विरही.
आएंगे कृष्ण तो पूछूंगी
कैसी यह – घड़ी जीत की?
जश्न मना रहे हम सब
बहा आँसुओं की लड़ी.