Sunday, December 8, 2013

अन्तःपुर की व्यथा कथा -5



युद्ध के पश्चात

द्रौपदी:
जीत गये! हरा दिया हमने
कौरवों ने पायी दुष्कर्मों की सजा

गूँज उठा पांचजन्य कृष्ण का,
युद्ध का अंत हुआ.
कहाँ हो माते?
स्वप्न जो देखा हम सबने
मिलजुल भोगेंगे राजसुख
प्रतिशोध लेंगे, अपमान हमारा,
वो लाक्षागृह, वो शकुनि की चालें
वो अज्ञातवास, वो चीरहरण
सबका प्रतिशोध – लिया पांडुपुत्रों ने
बहा अधर्मी कुरुवंशियों का लहू.
तड़पते, सिसकते, कुलबुलाते कीड़े की तरह
देखा पापी, दुराचारी दुर्योधन.
जांघों को चीर मैंने
सींचे केश अपने-पूरा किया प्रण.
सुन रही हो माते-
अब किसका इंतजार-
अठारह दिनों से विचलित मन मेरा
अब ले रहा शांतिवके झोंके.
हस्तिनापुर हो गया - दुराचारियों, षडयंत्रियों से मुक्त
अब चलेगा धर्म का रथ,
नहीं रहेगा भयभीत कोई
सब भयहीन, सब स्वतंत्र.
आओ उत्तरा! तुमने भी सुना?
यह घड़ी तो आनी ही थी,
सखा कृष्ण, जो थे साथ हमारे.
जाने कितने-बलिदान दिये हमने
जाने कितनी – घड़ियाँ बिताई सांसें रोक.
सुबह विदा करते - अश्रुपुरित नयन
पता नहीं शाम तक - सांसें चलती रहें
या रुक, लहू बन, हमारी आँखों से बहने लगे.
सच ही कहा था कृष्ण ने
जीतेगा धर्म - जीतेगा जो रहेगा धर्म के साथ.
वही कर दिखाया - लोट रहेभूमि पर
दंभी, अधर्मी - कुरु सैन्यगण.
फिर जीत गया धर्म, हरा अधर्म.
क्यों माते- ठीक कहा न मैंने
कहीं उलूल - जुलूल तो नहीं कह रही,
जीत के आवेश में.
कुन्ती:
हाँ - सुना मैंने - समाचार जीत का
जीत गये - इस पल
हार गया अधर्म - इस घड़ी,
कुरुवंश धुमिल - इस युग.
पर कब तक रहेगा-
यह पल, यह घड़ी, यह युग.
विजय का उल्लास, डुबो रहा हम सब्को
भुला रहा बलिदान हमारा.
अजीब होता अहसास विजय का
भर दिया सूनापन - इस अधीर मन में
जिसे पाने को किया – इतना जतन
उसे ही पाकर- सब कुछ लग रहा शून्य !
सारी चाह हो गयी पूरी
सारे स्वप्न साकार हुये
अब नहीं करना कोई प्रयास.
जिसकी चाह में झुलसते रहे - इतने साल,
आज पूरी हो गयी - क्यों न हों मगन.
व्यर्थ नहीं गयी-पुत्रों की शिक्षा
साकार हो गई –अपनों की बली.
कुरुक्षेत्र की भूमी, रक्त रंजित हो कर भी
मुस्कुरा रही - उगते हुए सूरज सी
अभिवादन कर रही पांडुपुत्रों का.
पूरी कर लो – चाह अपनी
संवारो अपने कर्मों से
साकार कर लो स्व्प्न अपना,
संचार करो धर्म का,संस्कृति का
विकाश करो –नई सभ्यता का.
पाँच गाँव न मिले तो क्या-
सारा साम्राज्य अपना लो हस्तिनापुर का
नई सांठ-गांठ कर बढ़ाओ सीमाएँ
पनपाओ नये राजकीय नीयम.
यह विजय का उल्लास
साथ ला रहा नई चुनौतियाँ
नई बाधाएँ, नई नीतियाँ.
यह जीत तो शुरुआत हमारी,
अभी जीतने - कितने और युद्ध
अभी आएंगी उल्लास की घड़ियाँ
सुख की घड़ियाँ,
साथ मिल बाँटने की घड़ियाँ.
हाँ द्रौपदी हम जीते- अनगिनत युद्धों से
यह पहला युद्ध
द्वार नया खुला-प्रवेश करना हम सब को साथ
मुकाबला करना-नई चुनौतियों से
बलिदान देना अपना-नया इतिहास रचने में.
यह जश्न, यह हर्षोल्लास
दे रहा, हमें नया जीवन
कर रहा, उत्सुक मन
नशा भर रहा, उन्मुक्त कर रहा
सारे तन, मन
भुला सकें – जो सब खोया-पाने यह पल.
कष्ट मुक्त कर रहा.
नई ऊँचाईयाँ छूने  -कर रहा हमें बेकल.
उत्तरा:
सबने कुछ न कुछ खोया
तब पाया यह समय.
परिणाम से नहीं थे, हम अनजान.
हम सब थे तैयार – दांव पर लगाया सर्वस्व अपना
हारे नहीं बाजी इस बार
प्रभु कृष्ण – सारथी हमारे
इतने भयंकर समर में-
आसान नहीं धैर्य को बनाये रखना
अधीर नहीं होने दिय
वाक्पटुता दिखा अपनी - सब कुछ कर दिया समर्थ
सबका साहस बढ़ाया - दुगुना किया
मनोबल पल - पल किय सुदृढ़
हरते रहे वे सब की अधीरता
विषपान से भी कठिन - यह दुःखों का हरण
आधार बन सशक्त किया
स्वप्न जीत का.
जो भी खोया हमने इस महासमर में
अतूलनीय, पर फलदायक.
असहनीय, पर सुखकारी.
अपरिहार्य, पर युगोपकारी.
वीरों की बलि पर - अशोभनीय रुदन
जिन कारणों से दी बलि सबने
जिन मूल्यों को बचाने - मिटाया खुद को
नहीं कर सकती अनदेखा - आने वाली पीढ़ी.
धिक्कार उस समय को, उस सभ्यता को
जो देकर दुहाई बलिदान की
कुचले सारे मूल्यों को
होकर स्वार्थ में ओतप्रोत.
सरे युद्ध - सारे बलिदान
बरकरार रखते मूल्यों की प्रतिष्ठा.
वही हुआ आज हस्तिनापुर में
वही होगा कल
यदि अपमान हुआ इन्हीं मूल्यों का.
ऐसे हे कुचले जायेंगे - अहंकारी, अधर्मी, पाखंडी.
अनदेखा नहीं कर सकता-कोई समय
हस्तिनापुर का - यह महायुद्ध
मर्मांतक कहे कोई –
पर अचूक, अवश्यंभावी-
नहीं रह सकता कोई अछूता
यदि दोहरायेगा इतिहास कुरुवंशियों का.
युद्ध का परिणाम - हो सकता भयावह इतना
कोई नहीं जीतता - ऐसे युद्ध,
सिर्फ अट्ठहास करते - गिद्ध, सियाल, चील, भेड़िये
होड़ लगाते - चीर फाड़ करते
उन्हीं कुकर्मियों, विवेकहीनों के शिथिल शरीर.
मैं देख रही-
कालिख पुता सारा गगन-
चील कौवों से भरा
रक्त रंजित भेड़िये - भाग रहे इधर उधर
भर रहे पेट लोलुप.
शिथिल बेबस – निर्जिव
जिन्होंने किया मूल्यों को अनदेखा
वही आज धराशायी.
जिन्होंने दिया साथ अधर्म का
वही आज अंगहीन.
गूंज रहा गगन सारा – इन्हीं अट्टहासों से
यही गूंज - गूंजती रहेगी, सदियों तक समाज में
मूल्यों की रक्षा करने, धर्म के मार्ग पर चलने
नीति सम्मत व्यवस्था बनाने
प्रेरित करेगी सारे समाज को.
झकझोरेगी बुद्धिजीवीयों को.
जीत का नशा, कितना उन्मत्त
कर रहा मेरे मन को.
सारे आक्रोश मेरे बह रहे- आँसूं बन
युद्ध की बाजी जीत.
जब नहीं रहा बैरी कोई, तो अब बैर कैसा?
नहीं रहा अपमानी, तो प्रतिशोध कैसा?
नहीं रहा,प्रतिद्वंदी तो अहं का प्रदर्शन कैसा?
सच कहा माते आपने
सूनापन भर रहा, धीरे - धीरे इस मन में.
क्या – यही सब भरा था – इतने सालों से
यदि था, तो क्यों?
कुन्ती :
नहीं पुत्री- उत्तरा
जो सब उकसा रहा था
जो अधीर कर रहा था
वो सारी बेबसी, प्रतिशोध, अपमान,
अधिकार, अभिलाषा
सब कुछ रीत गये- पाकर मंजिल अपनी
भस्म हो गये - पाकर विजय कुरुवंशियों से.
ऐसा ही होता - हर किसी से
मंजिल पाकर - दूर हो जाती सफर की थकान.
सुस्ता मंजिल पर दो घड़ी - संचार होती नवशक्ति
फूंकता मन नये प्राण
फिर दिखलाता – एक नया पड़ाव.
और चल पड़ता - यह जीवन एक नया सफर.
यह महायुद्ध - सिर्फ एक पड़ाव
किसने देखी - मंजिल अभी
जाने कितने पड़ाव - जाने कितने सफ़र.
हर पड़ाव पर- हल्का होता एक बोझ
फिर उठा नया एक बोझ-
चल पड़ते हम नऎ सफ़र को.
माया, मोह, अहं में ओतप्रोत – यह जीवन
बार – बार समझता- हर पड़ाव को मंजिल अपनी.
जब समझता - फिर चल पड़ता नए सफर पर.
हमारी विजय, कुरुवंशियों की हार
कौन कह सकता-किसने क्या खोया
कौन कह सकता-क्या थी रणनीतियां
पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण की?
किसने पहचानी- चालें कृष्ण की?
दुर्योधन तो - शिकार पहले से हो चुका था
चालें अधूरी थीं शकुनि की-जब हराया पांडुपुत्रों को
अब पूरी हो गयीं - इस महासमर में.
सही कहा - पुत्री उत्तरा तुमने
कोई नहीं जीतता - ऐसे महायुद्ध.
जो बलि चढ़ गया – वो तर गया
जो मना रहे जश्न जीत का
वही जानते- घाव कितना है गहरा !
नहीं भरने वाला सारे जीवन
इसीसे बहेगी धार रक्त की,
यही वेदना देगा, पल-पल सारे जीवन
मांगेंगे मृत्यु - पर मजबूर करेगा जीने,
यह जश्न जीत का – इसीलिये मना रहे हम सब
यह हर्षोल्लास, यह जश्न
ले जायेगा माझी बन, धार समय की पार.
द्रौपदी :
हाँ माते- और माझी अपने स्वंय कृष्ण
कौन डुबो सकता नाव हमारी.
अब तो दिखा भी दिया स्वंय सखा ने
कितने चतुर, कितने कुशल - वो सारथी.
पल में धराशायी किये, सारे महारथी
कुरुवंशियों का विनाश.
मन दहल जाता पल में सोच,
यदि चुन लेता उन्हें दुर्योधन
छोड़ पराक्रमी सेना उनकी!
हर बार दोराहे पर – खड़ा करते प्रभु
मजबूर करते चुनने - नयी राह.
दुर्योधन की मति हार गयी
जब देखी पराक्रमी सेना.
लालच में भर चुन ली सेना उसने
छोड़ दी प्रभु की शक्ति.
हर दुराहे पर - चुनो नयी राह
छोड़ लालच का साथ
देकर स्वार्थ की बलि
तभी करोगे, पूरी शक्ति अपनी
नहीं समझ पाया सीख प्रभु की,
अब धराशायी, समर में आततायी.
उत्तरा:
सारा महायुद्ध – सार प्रपंच जीत का
अधूरा प्रभु के प्रेम बगैर.
इस महायुद्ध में बने सारथी हमारे
अब आगे भी – क्या रहेंगे साथ हमारे?
क्या होगा जब लौट जायेंगे, नगरी अपने?
कौन बनेगा दिग्दर्शक अपना?
अभी वक्त लगेगा संभलने हमें.
हम नहीं – पूर्ण स्वावलंबी
कुछ दूर अभी तक साथ प्रभु का
अत्यावश्यक, जनहितकारी.
कैसे संभालेंगे - राजकाज ?
कैसे बनायेंगे - नीति सर्वसम्मत ?
मन बेचैन हो जाता – सोच कर यह सब
पूरा कैसे करेंगे – स्वप्न शक्तिशाली हस्तिनापुर.
माँ कुन्ती कुछ तो कहो
चुप्पी आपकी बेकल कर रही अन्तर्मन मेरा.
कुन्ती:
मत हो अधीर – पुत्री उत्तरा
साकार होगा स्वप्न हमारा.
प्रभु का साथ हर पल
जो उन्होंने किया, आत्मसात किया हमने
जो नीतियाँ सिखाई, जिन मूल्यों को सराहा
अपनाया हमने, उसी पर जीता महायुद्ध.
प्रभु नहीं रह सकते, अमर अजेय बन कर मानव
बीज बोय उन्होंने धर्म का,
जनहितकारी मूल्यों का.
धरोहर दी अपनी इस धरा पर
संजो बढ़ाना पनपाना, इस बीज को.
दक्ष, कुशल बनाया- देकर सबको ज्ञान
इसी पर बनायेँगे नयी व्यवस्था
जहाँ फूलेंगी मूल्यों की बगिया
सारे समाज में महकेगी खुशबू इसकी
यही खुश्बू रमाएगी-
प्रभु को जन-जन में.
जो ज्ञानचक्षु दिये प्रभु ने
उसी से देखेंगे पनपता सुखी समृद्ध राज्य हमारा.
तुम क्यों होती अधीर इतनी
हम सब अभी तक –एक साथ
रहेगा वरद हस्त शीश हमारे
नहीं डुबोंएंगे मझधार
पर नहीं बनेंगे सूत्रधार.
समझा दिया - जब बने सारथी
इस महासमर के.
वो समाये हर कण में
फिर भी हैं सबसे निर्लिप्त.
उन्हीं का रचा रचाया सारा मायाजाल,
पर वो रहे निर्विकार.
तुम महसूस कर सकती-हर पल
स्पंदन उनका.
न कोई उनसे परे, न वो किसी से परे
सोचने भर की देर और वो बन जाते –आधारभूत
तुम अधीर बन, मत समझो उन्हें निर्बल
वो ही तुम्हारे प्राण, वो ही तुम्हारा ज्ञान
वो तुम्हारा मान, वो तुम्हारा अभिमान.
हे पुत्री प्रभु तो बसते, चिंताधार बन तुम्हारी
उनके प्रेम की-अद्भुत सरिता
पत्थर तक तर जाते, तज अहं का भार.
तुम भी निकाल फेंको ’मैं’ का अहं
यही करता विचलित मन
तिनके की तरह डोलता, देख तनिक बाधा
यही करता निर्बल तुम्हें, देख क्षणिक दुविधा.
अहं का तेज- जला देता विवेक
ज्ञान चक्षु बंद हो जाते-देख अहं का दौरात्म्य.
कोई भी, कोई भी उपाय,
कोई भी हितैषी, कोई भी संदेश
आग में तेल की तरह - भस्म हो जाता
और तीव्र करती – अहं की ज्वाला.
यही मदांधता जला गयी - कुरुवंशियों को.
’मैं’ को ढालो ’हम’ की सोच में
फिर देखो कैसे जलता अहं का खांडव वन
सब कुछ हो जाता संभव.
संबल मन - ले पहुँचता नयी उँचाईयाँ.
मैं से हम का सफ़र – अति सहज
बस सोच बदलने की देर
और पल में बन जाते मित्र
जिनसे सदियों थे बैर.
प्रभु का सानिध्य सबको
पवन बन समाये सबके प्राण.
द्वार दिलों के बंद मत करो
स्वच्छ सुगंध पवन प्रभु की
बसा लो, रमा लो - फिर करो सारे काम.
अपनी इच्छा से ऊपर उठ कर
अपने स्वार्थ से हो कर परे
अपने अहं को तज कर,
साथ सभी के भरोसे
तुम जीत सकते- हर महासमर,
तुम तोड़ सकते – हर शत्रु कुचक्र.
यह विजय की घड़ी, यह पांचजन्य की गूंज
ओत प्रोत कर लो- अपना मन.
दौर भय का दूर हुआ
घड़ी संकट की बीत गई,
अब नया सूरज, नई कल्पनाऒं के साथ
उगने को बेकल, हस्तिनापुर क्षितिज पर.
आने वाला समय – देगा प्रमाण
कितना सटीक रहा- हमारा विजयोल्लास.
कितना फलदायक रहा – अपनों का बलिदान.
कितना सफल रहा – प्रभु का प्रभुत्व.
द्रौपदी:
सही उतरेगा - समाज की कसौटी पर
वंश हमारा देकर इतना बलिदान.
नहीं बनेंगे कर्तव्यहीन, न ही दुराचारी
दूर रहेंगे हर स्वार्थपूर्ण कार्य से
बनेंगे सर्वजनमंगलकारी,
रहेगा सशक्त योगदान- बनाने सुदृढ़ हस्तिना.
खरे उतरेंगे वंशज हमारे
समय की कोई भी हो कसौटी.
यह कुरुक्षेत्र का उल्लास,
नहीं भुला सकता बलिदान हमारा.
जाने कितने सुख - संजो रखे इतने सालों
जाने कितने स्वप्न - पिरो रखे आँखों ने हमारी
सब भोगेंगे, सब करेंगे साकार.
सोच मन मेरा होता अधीर.
इतना चंचल चपल होगा
कभी सोचा न था.
कुन्ती:
जाने कैसी - यह घड़ी
अपनों को कर दुःखी, हो रहे अपने सुखी
सुख-दुःख – सब कुछ बँट सकता
हर सकता अपनों का दर्द.
अपनों ही ने समझा – अपनों को अपना,
धीरे-धीरे बिछड़ दूर हुए.
क्यों नहीं देखा वक्त ऐसा
प्रेम में विह्वल, अपने करते साकार – स्वप्न अपना
पांडुपुत्रों का दर्द, आँसूं बन छलकता कुरुपुत्रों में
विधि को नहीं था मंजूर.
महासमर में कह दिया कृष्ण ने
कर्मफल की आशा मत करो
आसान है कहना यह-
फिर यह महासमर क्यों रचाया?
जब मिलेंगे तो - पूछूँगी मैं
माया मोह के सागर में डाल
कहते फिर क्यों – इनसे रहो परे
कैसे रहे अछूता कोई - गुजर कर ऐसे भँवर से?
क्यों कहते फिरते-विरल मानव जीवन
मिल सकता - मोक्ष यही जीवन पाकर.
गुजर कर देखें – एक बार निर्मोही बन
नारी मन से होकर.
कहाँ रह गये - क्यों कर रहे देर इतनी
जरुर जान गये होंगे - उठेंगे सवाल
कैसे मनाऊँ मैं खुशी
कैसे बजाऊँ मैं जश्न की दुंदुभी
जब बहन गांधारी दुःखी
भ्राता ध्रितराष्ट्र – विषादी.
यह कैसी सुख की घड़ी
करती है और अधीर मुझे
सुनो द्रौपदी - सुनो उत्तरा
क्या तुम रह सकती कभी सुखी
चढ़ जायें जब अपने ही- स्वार्थ की बलि?
द्रौपदी:
संभालो माते….
व्यर्थ आपका यह रुदन
क्षत्राणी हैं आप- सबकी शक्ति आप
क्यों अब – होती हैं कमजोर
सब जान - चले महासमर को.
परिणाम नहीं अनभिज्ञ किसीसे
रिश्तों की डोर - तोड़ी नहीं हमने
सब कुछ निभाया - पर पाया सिर्फ अपमान.
रिश्तों का अपमान - दरार डाली कुरुपुत्रों ने
चटखाई डोर बार - बार, कर हमारा तिरस्कार.
गैर नहीं थे, पर बनाया गया
बैर नहीं था, पर पनपाया गया.
कितनी बार सहते यह अनादर
प्रेम नहीं, कमजोरी का प्रतीक
स्नेह नहीं, दुर्बलता का द्योतक,
माफी नही, भयारुता का प्रदर्शन.
क्या नहीं सहा हमने?
क्या नहीं किया अनदेखा?
उन्होंने ही नहीं निभाई रिश्तों की लाज
यही होता - डोर रिश्तों की तोड़ने का अंजाम.
शोभा नहीं देता शोक - अधर्मियों के अंत पर
अपमान पायेगी - अपनों की आत्माहुति.
जीत महासमर की - धर्म की विजय
जश्न इस जीत का - थर्रायेगी छाती अधर्म की
अभी आते होंगे – विजयी वीर हमारे
पधारेंगे सखा कृष्ण मेरे
जो स्वप्न दिखाया – पूरा किया
जो प्रण लिया- अधूरा नहीं छोड़ा
सारथी बन – सहज कर दी जीत हमारी.
साथ अपनों का अनिवार्य इस सफर में
ठोकर लगे तो संभालें, चोट लगे तो मरहम.
पाप के दलदल  में नहीं ठहरते राजमहल,
झूठ के प्रपंच से- नहीं संवरती व्यवस्थाएं
अधर्म के जोर पर- होती नहीं भयाकुल प्रजा,
भेदभाव से – नहीं कायम रहती एकता.
अनजान नहीं इन सब से कुरुवंशी,
जानते इनका परिणाम भयंकर
फिर भी चल पड़े ऐसे कुपथ पर.
अंधे के अंधे - न देखें, न सुने
जब उन्हें नही पछतावा,
तो हम क्यों करें पश्चाताप.
अधिकार अपना पाया, धरोहर पायी वापस
मिलजुल स्वागत करें, जो आयी ऐसी घड़ी.
जो शोक मनाया हमने इस समय,
अधर्मी, दुराचारी षडयंत्रीयों के अंत पर
तो अपमान होगा उनका,
जो भेंट चढ़े इस समर .
जो लिबास उन्हें पहनाया रिश्ते नातों का,
जो अनदेखा किया अपने अपमान का
जो अवज्ञा की नियम, विधान की.
यह हमारी जीत, हमारे विश्वास की जीत.
विषादग्रस्त हो खोना नहीं लक्ष्य हमारा
प्रमादमय हो लुटाना नही वर्चस्व अपना.
प्रजा हस्तिना की बाट जोह रही हमारा
नया लक्ष्य, नयी व्यवस्था, नये नियम
खुशहाल करेंगे, हरितमय करेंगे
हस्तिनापुर अपना, मातृभूमि अपनी,
स्वप्नभूमि अपनी, कर्मभूमि अपनी.
उत्तरा:
हे माते कुन्ती! तनिक विचलित न हों
सर्वनाश न समझें इसे, यह है सृजन नूतन
निर्णय के परिणाम पर, अनुचित होता विषादग्रस्त
हम सब हैं साथ, रचना है अब नया इतिहास.
इस सुख की घड़ी के लिये, काटे इतने दुःख
फिर क्यों नहीं हम सब खुश,
क्यों जल रहे - पश्चाताप की आग में?
क्या ढूँढ़ रहे - चिता की राख में,
जब सुख में न रह सकते हम सुखी
कैसे बन पाएँगे दुःख में सुखी ?
कैसी है यह जीवन धारा
दुःख के दुर्दिन बहती रहती
ठहर - स्थिर बन जाती, देख घड़ी सुख की .
दुःख के दिन खोजती फिरती सुख की घड़ी
पाकर सुखे, फिर बन जाती दुःख की विरही.
आएंगे कृष्ण तो पूछूंगी
कैसी यह – घड़ी जीत की?
जश्न मना रहे हम सब
बहा आँसुओं की लड़ी.

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