Friday, December 20, 2013

जुआरी

जुआरी एक बना
भेज दिया इस बाजार में।
तेरे ही खेल, तेरे ही नियम,
तेरे ही परिणाम, तेरे ही बाज़ार।
मैं बस मदमस्त।
सारे माहौल में- बिखेर दिया
नशीला धुँआ ।
कहीं खेल हो रहा
कहीं नाच, गाने
तो कहीं तमाशे।
कहीं कहकहे, तो कहीं अट्टहास।
कोई गुमसुम , तो कोई धुत।
सब पर तेरी तीखी नज़र।
नशा सा छा रहा, जहाँ में सारे-
ना कोई सोच, ना कोई उम्मीद।
लत एक लगा दी
बस हारने की।
मैं हारता जाता,
तू खेले जाता।
अजीब सा रचा-
खेला तूने।
कहाँ से सीखा, कहाँ से लाया
खेल इतने।
कहीं तू भी तो
कभी ना कहीं 
रहा- एक जुआरी तो नहीं।
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15/12/13

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