अंक ३
द्रौपदी :
मिल
कर आयी माँ गांधारी, से
वो
नहीं विचलित, केवल-
कुंठित,
एकाकी, शून्यविहीन.
भविष्यदृष्टा
हैं वो.
नहीं
देख सकती मैं एक और सफर
इन्द्रप्रस्थ
से अज्ञातवास का.
दुराहे
पर खड़े हम सब
युद्ध
का एक, समझौते का एक.
पर
दोनों क ध्येय – शान्ति.
कभी
कभी हो जाती
युद्ध
की विभीषिका
शांतिपथ
के लिये.
तुम
क्यों अश्रुपुरित - माँ कुन्ती.
कुन्ती:
क्या
सही , क्या गलत,
अब
हम नहीं तय कर सकते – पांचाली
तय
करेगा आने वाला कल.
वो
समाज, वो राष्ट्र, वो दृष्ट्रा
जो
महसूस कर सकेंगे - यह पल
जो
गुजर सकेंगे, जी सकेंगे - य़ह दिन.
भस्म
करती अगर युद्धाग्नि
तो
जन्म भी देती-
नया
समाज, नयी प्रथायें, नयी संस्कृतियां.
जिनकी
नींव पर होती युद्ध विभीषिका.
केवल
बली नहीं चढ़ते रथी- महारथी
बलिदान
देता पूरा समाज, तिलांजलि देता,
सड़ी
गली प्रथायें
रूढ़ीयाँ
जो ठहर गयी
नहीं
साथ दे पायी वक्त की चाल का.
व्यर्थ
नहीं जाती वीरों की आहुति
सशक्त
होत परिवार, समाज और साम्राज्य.
जो
असह्य, वेदनीय - वही हो जाता वरद.
रोगी,
कुंठित, पीड़ित समाज फिर
लेता
नया जन्म.
धरोहर
है हमारी -हस्तिनापुर,
विरासत
में मिली धरोहर.
उस
पर इतना अभिमान – क्यों द्रौपदी?
चाल
थी कुरुपुत्रों की - इन्द्रप्रस्थ का टुकड़ा
कुकुर
नहीं हम जो बहल जायें
रोटी
के टुकड़े से.
क्षत्रिय
हैं, बलशाली हैं- भीरु नहीं.
यह
किसकी पदचाप है पांचाली
कौन
दे रहा दस्तक- जरा देखो?
द्रौपदी:
माँ
–कृष्ण पधारे हैं.
पूछो
जरा, क्या होग परिणाम?
हे
सखा- मन अधीर होता जाता
क्या
युद्ध अवश्यंभावी,,,?
अब
और मत करो छलो
जो
सत्य कह डालो.
जो
धर्म कर डालो.
कृष्ण
:
सखी,
मैं नहीं धर्मरत,
कारण
मेरे आगमन का - पा लूं सम्मति
सहमति
मेरे अनुगामियों की.
प्रिय
हो मेरे तुम सब
छल
नहीं स्वजनों से.
मैं
घुला रहता प्रेम में, विश्वास में
नहीं
बसता वनों में, शिलाओं में.
तुम्ही
देखते मेरी छवि मेरे सृजन में
सृजन
जो विनाशकारी
शिलांयें
जो पूजते सब- टूटती
बिखर
जाती रेत बन
विलीन
हो जाती अथाह सागर में.
जंगल
जो भस्म हो जाते, मिल जाते
इसी
धरा में.
नहीं
टूटता तो – मेरा विश्वास
नहीं
जलता तो - मेरा प्रेम.
अटूट
है रिश्ता.
मेरा
तुम से, स्वजनों से.
मैं
भी चाहता दुर्योधन क हित
नहीं
देख सकता माँ गांधारी का बिलखना.
पुत्रमोह
में ग्रसित धृतराष्ट्र ने
जो
बीज बोये
दुर्योधन,
दुःसासन, शकुनि ने
सींचा
उन्हें विषपान करा.
काटेंगे
वही फसल- स्वीकारना होगा
उन्हीं
का फल-
यही
है नियति.
कुन्ती
:
मैंने
क्या फल पाया
क्या
बोया ? क्या पाया?
तुम
भी तो थे, पांचाली के स्वयंवर
सखा
बने थे अर्जुन के
तुम्हीं
ने रचाया सारा प्रपंच.
क्यों
बचाया लाक्षागृह की लपटों से
क्या
निर्वस्त्र होना- नियति थी
पांचाली
की?
खींच
बिठाना चाहा जांघों पर दुर्योधन ने
हर
ली मति – क्यों ?
क्या
यही सब होता हस्तिनापुर के अन्तःपुर में
कोई
अधिकार नहीं दासियों को?
क्या
यह हस्तिनापुर का लेखा?
रोज
देखता ऐसे व्यभिचार राज्महल?
रोज
यही, देखते-सुनते-सहते
राजमहल
वासी - सिंहासन रक्षी.
नहीं
– नहीं - नहीं, हे कृष्ण
फिर
पांचाली सहे क्यों?
कैसी
विकृत मनःस्थिति
लज्जित
हो ढाँप लिये चेहेरे
कुरु
महारथी- सिहर उठे सब
महाविनाश
की ओर, देख बढ़ता एक और कदम.
कैसे
देख देख पाते - झलक महाविनाश की
सच
अब होने जा रही.
हे
मधुसुदन - तुम्हीं रोक सकते
यह
प्रलय - यह महाविनाश.
पर
लगता तुम भी सीमित हो
अपने
सृजन के नियमों से
बंधन
मुक्त नहीं कोई
इस
प्रकृति चक्र से
नियम
जो बनाये तुमने-
मान
रखो उनके धर्मों का
मत
मोड़ना समय की चाल
चाहे
कितना भी हो भयावह
काल
विकराल.
कृष्ण :
हे
माते, मैं नहीं दोषी
जो
घट रहा - मैं नहीं उत्तरदायी.
मैं
देता - ज्ञान, विवेक-
स्फुरित
करता शक्ति समर्थ होने की
मैं
दिखलाता धर्म और सत्य का मार्ग
नहीं
हरता ज्ञानी का ज्ञान
विवेकी
का विवेक.
नहीं
करता शक्तिहीन या धर्मभीरु.
कर्मफलरत
हर मार्ग
सब
जानते, समझते-
अपना
धर्म, अपना कर्तव्य
फिर
भी जाते कुपथ.
सबके
संग मैं हर पल निरंतर-
ज्ञानी
- अज्ञानी, विवेकी-अविवेकी
धर्मी
– अधर्मी, कर्मी - अकर्मी.
सब
में मैं, मुझसे परे नहीं कोई.
मैं
नहीं कर्मों का उत्तरदायी
ना
मैं कर्मफल अधिकारी.
तुम
तत्पर शान्ति के लिये,
वो
तत्पर युद्ध को.
जितना
परे तुम युद्ध से
उतना
परे वे शान्ति पथ से.
कैसे
मिले शान्ति?
कैसे
करें युद्ध?
कुन्ती :
हे
माधव, हे मुरलीधर
तुम
हो समदर्शी, निष्पापी, धर्मावलंबी
जो
खेलो, जो छलो - पर निष्पक्ष.
तुम्हीं
हो धुरी, फिर रहे अनंत युग
अनंत
पृथ्वी, अनंत आकाश
क्या
कोई कुरुवंशी नहीं जो
रोक
सके दुर्योधन की चाल?
वही
दुर्योधन जिसने दिया पल में अंग
राज्याभिषेक
किया कर्ण का उसी क्षण-
कोई
अंतर नहीं प
फिर
भी घृण्य पांडुपुत्र?
शायद
प्रतिस्पर्धा नहीं की बचपन में
वरना
जलता कर्ण
दुर्योधन
की प्रतिहिंसा अगन में?
धरोहर
मांगे पांडुपुत्र
फिर
भी ना माने
दुर्मति
दुर्योधन.
कृष्ण:
हे
माते,
तुम
हो जननी, तुम हो धरणी
कुछ
नहीं – तुमसे भी परे
जान
सब पूछती - कौन रोके दुर्योधन का कुचक्र?
पक्षपाती
नहीं निर्णय के अधिकारी
दुराचारी
नहीं किसीके संबंधी.
भले
बुराई भी करें - तो हितकारी-
बुरे
भलाई करें - तो विनाशकारी.
बली
से युद्ध कर
बल
प्रदर्शन-
होता
नहीं अहं से ओतप्रोत.
न
कहलाया कोई वीर
निर्बल
को भीतत्रस्त कर.
बली
वही - जो करे न्याय
बुलन्द
रखे आवाज अन्यायी के समक्ष.
राज
करने में वही समर्थ
जो
हो समदर्शी, रक्षी, निर्भीक.
धैर्यवान
रहे जटिलतम परिस्थियों में.
धुमिल
होत, बली का शौर्य
ज्ञानी
का ज्ञान
चहुँओर
घिरा रहे- चापलूसों से, षडयंत्रकारियों से
स्वार्थियों
से.
सही
- गलत, लाभ - हानि
निर्णय
लेते स्वार्थी भी
पर
कर स्वार्थ का परित्याग - जो लेते निर्णय
होते
वही सुप्रशासक, बलवान ,शूरवीर.
जो
अब तक किया दुर्योधन ने
सिर्फ
बहलाने अपने अहं को,
खुशामद
की चापलूसों, षडयन्त्रकारियों की.
कुशल
शासन होता परिजनहिताय
रखता
सर्वजनसमभाव.
यदी
नेत्रहीन राज्य के योग्य नहीं
तो
ज्ञानहीन नहीं प्रजा के रक्षक.
कौन
करे विद्रोह दुर्योधन की मानसिकता का?
कौन
सहे पितामह का शौर्य?
अब
संभव नहीं विद्रोह.
दुर्योधन
की हालत, उस अश्वारोही के समकक्ष
समझ
रहा अश्व की ताकत
समा
गयी खुद में
पर
अनभिज्ञ - सीमाहीन नहीं शक्ति कोई
गिरेगा
अश्वारोही खड्ड में
यदि
उड पार करना चाहे - बैठ अश्व पर.
भीष्म,
द्रोण, कर्ण , कृपाचार्य की शक्ति-
इन
दुराचारियों की नहीं.
कुरु
महारथियों पर बनाया
अपना
अजेय, अपराजेय, अभेद्य दुर्ग
भूल
गया दंभ में अपने - दुर्योधन
परिणाम
महारथियों की ढाल बनाकर,
नहीं
होता युद्ध बाहुबल पर,
अनिवार्य,
ज्ञान बल, सम्बल.
अविवेकी
दुर्योधन –
संकीर्णदृष्टा,
कुलनाशक.
कभी
भिन्न नहीं समझा मैंने
पांडुपुत्रों
या कुरुवंशियों को.
अर्थ
भिन्न किया - इन दोनोंकुलों ने
वचन
मेरे - लगे मधुर पांडुपुत्रों को
द्वेषपूर्ण
- लगे कुरुवंशीयों
बनाये
उन्हें कटु, हृदयविदारक.
जो
था - अनदेखा किया
जो
ना था - अपना लिया.
कभी
पक्षपाती न बनाया खुद को
गलत
को कह गलत - अपमानित हुआ.
फिर
भी अंतिम प्रयास करना मुझे
एक
और संदेशा ले कर जाना
समता
का, प्रेम का, शांति का.
जानता,
होगा वही जो अब तक होता आया
सिंह
शावक रहते साथ साथ,
यौवन
तक पहुँच - चलते अपने-अपने पथ.
यदि
असफल रहा शांति प्रयास
अवश्यंभावी
युद्ध - हे पांचाली!
अस्त्र
बन जायेंगे वो वस्त्र
जो
भेजे मैंने कुरुसभा में
रखने
लाज तुम्हारी.
लिपट
जायेंगे, बींधेंगे,
कर
देंगे छिन्न भिन्न
कुरुरथी
महारथी.
कोई
न पायेगा बच इन तीरों से
न
सुनेगा अट्टहास
सिर्फ
गूंजेगा - सियार गिद्धों का परिहास
दब
रह जाएंगी सिसकियाँ.
कुन्ती :
नहीं-नहीं
कृष्ण, बस करो
मत
दिखाओ यह झलक.
रोको-बस
में तुम्हारे
चाहो
तो मोड़ सकते –
समय
की चाल
तुम
हो सृजनहार.
सहा
बहुत तिरस्कार
बचते
रहे - दुर्योधन के अगनित वार
कभी
यहाँ, कभी वहाँ.
क्या
वो सह पायेगा - हमारा एक वार.
कृष्ण:
पांडुपुत्रों
ने भी की गलतियाँ
समझ
नहीं पाए - चाल जूए की धर्मराज.
हार
पर हार होती रही
आँख
मूंद चलते रहे चाल.
ठहर
करना था पुनर्वालोकन
कैसा
भरोसा था, हुनर पर
और
हारते गये युधिष्ठिर.
चाल
जूए की समझते सकते युधिष्ठिर,
शकुनि
की चालों पर खा गए मात
और
हार बैठे पांचाली.
हारे
थे, त्यागे नहीं पांडुपुत्र
भार्या
थी पांचाली-जब अपमानित हुई
कोई
धर्म नहीं रोकता कोई हाथ
गर
उठता उस क्षण.
याचक,
पशु, शरणार्थी
होते
सदैव रक्षणीय.
विद्रोह
करना था, पांडुपुत्रों को
जो
हारे, बैठे रहे सर झुका.
क्यों
नहीं हुआ संग्राम कुरुसभा में?
क्या
भयभीत हो गए पांडुपुत्र-
भीष्म,
द्रोण, कर्ण महारथीयों से.
अधर्मी
को रोकना
यही
धर्म का आधारभूत.
यही
संसार का केन्द्रबिंदू.
यही
समाज का ध्येय.
यही
वीरों का संबल.
पर
विवेकशून्य- पांडव महारथी
ढूंढ
रहे जवाब- अपनी ही कर्तव्यहीनता का,
धर्म
की सूक्ष्मता का.
यही
विमूढ़ता कुरुसभार्थियों की,
दिया
षड्यंत्रियों को बढ़ावा.
पुत्रमोह
में अंध धृतराष्ट्र
फिर
चूके - जनहित, राष्ट्रहित.
स्वप्न
धृतराष्ट्र का - बलशाली, शूरी दुर्योधन
रह
गया अधूरा.
अधूरी
आकांक्षाएं, सुनहरे स्वप्न -पिता के
देखता
अपने बच्चों में.
जो
नहीं कर पाया, न भोग पाया
अपने
जीवनकाल में-
वही
पूर्णता चाहता अपने पुत्रों में.
यही
चरमकाष्ठा पुत्रमोह की,
यही
कमजोरी धृतराष्ट्र की.
लज्जित
किया पितृमोह को
लांछित
किया पिता का स्वप्न
अधर्मी
बलहीन, कुपथी - दुर्योधन.
अपने
ज्ञान से ,विवेक से, अनुभव से
पहचान,
रोकना था पुत्रों को-
बचाना
था षड्यंत्रकारियों के जाल से.
कर
नहीं पाये कोई प्रयास धृतराष्ट्र
यही
उत्कट पुत्रमोह - अब बना पुत्रविनाशक
अब
कुलनासी.
अविनाशी
भीष्म
अभिशप्त
- इच्छा मृत्यु वरदान से
नहीं
कर पाते विद्रोह अपने आपसे-
अब
हैं कुंठित, परित्यक्त, शिथिल.
विचर
रहे हस्तिनापुर
सिर्फ
एक पाषाण बन.
उलझ
गये धर्म - अधर्म की
बारीकियों
में,
रह
गये सिर्फ शब्द, उपाख्यान जो
नहीं
रोक सकते - दुराचारी दुर्योधन की चाल.
व्यर्थ
जाता ज्ञानी का ज्ञान,
वीरों
का शौर्य,
शास्त्रों
के शास्त्रार्थ,
धनी
का संचित धन,
सही
वक्त उपयोग न आये.
सड़
जाते, बू फैलाते, रोगी करते
ऐसे
बंधे ताल तलैया.
कोई
नहीं पीता, पशु तक कतराते
दूर
रहते, ऐसे पोखर जल से.
हास्यापद
होते वीर अगर नहीं धर्मरक्षक
कर्तव्यविमुख
भीष्म
अब
संकीर्ण्दृष्टा.
नहीं
देख पा रहे हित हस्तिना का
देख
अनदेखा कर रहे,
बूझ
बन रहे अनबूझा,
समझ
बन बैठे नासमझ.
कर्तव्यपरायण
भीष्म- अब कर्तव्यच्युत.
यही
अकर्मण्यता पितामह की
बलशाली
कर रही दुराचारी दुर्योधन
और
भीत त्रस्त हस्तिनापुर प्रजा.
मध्यस्थ
मैं, संदेश सुनाना कुरुवीरों को,
शांति
का, मित्रता का, सौहार्द का.
कैसे
हो सकता मध्यस्थी - तटस्थ?
शांतिवार्ता
या महायुद्ध
मैं
रहूँगा शस्त्र से परे
मैं
सारथी, अब भी, तब भी.
पांडुपुत्रों
का यह संग्राम
नहीं
मेरा कोई प्रयोजन.
कौन
झेल सकता - परशुराम शिष्य भीष्म के प्रहार
कौन
बलशाली - परशुराम शिष्य द्रोण से,
कौन
भेद सकता - परशुराम शिष्य कर्ण के व्यूह.
यदी
मैं रहा युद्धरत, पल में पराजय.
सारथी
बन दिखाना मार्ग मुझे
नहीं
चाहता उलझना कुरुसेना से
वरना
भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य
दे
देंगे पांडुपुत्रों को मात.
मैं
बनूंगा सारथी
सिर्फ
मार्ग दर्शक, नहीं मार्गी
ले
चलूंगा रथ, जहां नहीं उठेंगे अस्त्र
बृहन्नला
पर भीष्म के.
जब
अभिशप्त कर्ण भूलेगा
सारी
शस्त्र विद्या एक पल.
अधिकार
पायेंगे पांडुपुत्र
दिखला
अपना रणकौशल
पूजनीय
होंगे, नव हस्तिनापुर के.
शौर्य
से भोगेंगे राजपाट
अधिकारी
बनेंगे राज विलास, राज सुख.
नहीं
कहेगा कोई - कृष्ण का इसमें हाथ
नहीं
बनेंगे परिहासी - पांडुपुत्र.
हे
माते- आज्ञा दो मुझे बन सकूं मध्यस्थ
कोई
शंका, कोई प्रश्न
तिलभर
भी हो कोई शक?
सखी
कृष्णे-
कहो
- यह घड़ी नहीं मौन धारण की,
यह
घड़ी नहीं दोराहे पर खड़े रहने की,
यह
घड़ी नहीं तर्क-कुतर्क की,
नहीं
यह घड़ी शंका में डूबने की.
यह्
घड़ी निर्णय की, आगे पग बढ़ाने की.
कहो
माते, कहो सखी-
मुझे
चाहिए सम्मति तुम्हारी
मुझे
चाहिए शक्ति तुम्हारी.
तभी
होगा सफल प्रयोजन
सुफल
सुमंगल मेरी मध्यस्थि.
क्या
बन सकूंगा सफल मध्यस्थ
थामे
डोर पांडुपुत्र और कौरवों की?
शांतिदूत
बन सकूं.
प्रेम,
विश्वास से जोड़नी है डोर
बनाना
होगा शक्तिशाली हस्तिनापुर
पाएंगे
सुनहरा भविष्य- हस्तिनावासी
क्यों
महायुद्ध एक टुकड़े जमीन के लिये
कहना
है दुर्योधन से-
सुदृढ़
पड़ोसीमित्र और वह भी
बलशाली
- वैभवशाली
बिरले
होते ऐसे साम्राज्य
मांग
लूंगा पांच ग्राम
देकर
देखो दुर्योधन
कैसे
फूलता हस्तिनापुर तुम्हारा.
रखो
शांति, मैत्री, प्रेम, विश्वास
पड़ोसियों
से
अभेद्य
होगा हस्तिनापुर
सभी
होंगे सुखी.
त्याग
दो बैर, शत्रुभाव, प्रतिहिंसा
स्वजनी
हैं, हितैषी हैं, शुभचिंतक हैं
जैसे
भीष्म, द्रोण, कर्ण ,विदुर, धृतराष्ट्र तुम्हारे
वैसे
पांडुपुत्र भी तुम्हारे-
कोई
नहीं शत्रु.
यदी
तोड़ो डोर दुर्योधन
प्रेम
की , विश्वास की
तो
तय रहा महासंग्राम
परिणती
जिसकी भयावह.
नहीं
पांडुपुत्र भीरु, हैं बल, शौर्य के धनी
पीछे
नहीं धरेंगे पग
जब
तक पा न लें अपना अधिकार
अपना
शौर्य, अपना सब कुछ.
कुन्ती:
हे
कृष्ण!
तुम
बनो मध्यस्थ
कोई
नहीं तुमसे बढ़कर
निर्भीक,
हितकारी, सहीष्णु.
कोई
इच्छा नहीं रहती
सन्मुख
तुम्हारे.
कोई
चाह नहीं, कोई मांग नहीं
जो
तुम चाहो, जो तुम मांगो
शिरोधार्य
मुझे.
मेरे
पांडुपुत्र, मेरी पांचाली,
नहीं
मुझसे अलग.
पर
वह अधीर, विचलित
तुमने
जो कहा, कहाँ सुन पाई मैं
ध्यानस्थ
हो गयी देख तुम्हें
बदली
बन कर आये तुम
इस
बंजर तपती धरा पर.
शीतल,
मंद पवन में घुल गयी
बह
गयी साथ वचनों के तुम्हारे
हिलोरें
ले रहा मन मेरा, जब जाना-
तुम
बने मध्यस्थी.
आज्ञा
नहीं देती, स्वीकारती आदेश तुम्हारा,
जाओ
कृष्ण, शंतिदूत बन कर
जो
तुम कह सकते, सब कहाँ कह पाते
पर
जो नहीं कहते - कोई नहीं.
सब
संभव तुमसे, कोई नहीं परे तुमसे
प्रेम
का संदेशा ले कर जाओ.
पुत्र
मेर दुर्योधन, गोद में खेला
खिलखिलायी
मैं, उसकी नन्हीं लातें खाकर
हल्की
मुस्कान से देखता, टुकुर-टुकुर
कैसे
भूल पाऊँ, बंधु हैं हम
कुटुंबी
हैं, शत्रु नहीं.
हाथ
धरना उसके सिर पर - मेरे प्रेम का.
प्रेम
से घृणा मिटती, घृणा से प्रेम
शायद
कमी रह गयी प्रेम में.
शत्रु
- मित्र की पहचान करो दुर्योधन
बदल
डालो राजमहल का वातावरण.
तभी
बदल सकोगे अपनी मति
कमजोर
मत बनो दुर्योधन,मानव हो तुम,
केवल
तुम्हीं में शक्ति अपनी प्रकृति बदलने की
माँ
हूं मैं भी तुम्हारी
कैसे
चाहूँ अहित तुम्हारा, तुम भी फलो फूलो
प्रेम
का मीठा सागर होती माता की ममता
जो
कम नहीं होती घृणा की गर्मी से.
अमृत
सा दूध पिलाया तुम्हें
कैसे
जहर बन घुल गया,
दूर
करो उनको, जिन्होंने भर दिया जहर,
मत
समझो मित्र जो बन बैठे हितैषी
घोल
रहे हलाहल मन में तुम्हारे.
दुर्योधन
तुम नहीं मंद्बुद्धी
तुम
हो शक्तिमान, सम्राट हस्तिनापुर के
मत
डूबो अपने अहंकार में
मान
रखो पूर्वजों के संचित पूण्य का,
नए
शिखर पर पहुंचाओ कुरुवंश का गर्व.
तुम
हो समर्थ, मत भटको द्वेष के जंगल में
प्रेम
नगरी में लौट आओ
कौन
बना सुखी, कुटुंबियों से कर बैर
संबल
हैं तुम्हारे, मत जलाओ रिश्तों की डोर
प्रतिहिंसा
की अगन में.
संतोष
नहीं पाता कोई धन से
राज
से, स्त्री से, जब तक ना हो
सद्बुद्धी.
जाओ
कृष्ण
दुर्योधन
से कहना
समझौता
नहीं कमजोरी का प्रतीक,
यह
होता वीरता का प्रदर्शन
युद्ध
नहीं शौर्य प्रकट का द्वार
क्यों
जलाना चाहते मुझे
युद्धोपरांत
की आग में.
क्षत
– विक्षत रहेंगे हम सदियों तक
युद्ध
का कोई भी हो परिणाम.
कौन
धो सकता युद्ध का कलंक
हार
होगी सबकी, कोई नहीं विजयी
जीतेंए
स्वार्थ, द्वेष, कपट, लोलुप
जलेंगे
रिश्ते, सद्भाव, विश्वास
घेर
लेंगी युद्ध की लपटें
जला
भष्म कर देंगी- हस्तिना का भविष्य.
मत
बनो युद्धमुखी
विनाशप्रिय,
कुलहन्ता.
कृष्ण:
हे
माते, सत्य कहा तुमने,
तुम्हीं
देख सकती इतिहास
जो
अब होगा - वही रिसेगा
वही
घुलेगा, आने वाले कल में
कोई
कसर नहीं रहेगी बाकी मेरी
युद्ध
के बादल छाँटने में.
द्रौपदी:
कैसा
युद्ध ?
रोज
लड़ रही मैं
कभी
हालात से, कभी लाचारी से
थरथराता
बदन मेरा
कुरुवीरों
की करनी सोच
अब
नहीं युद्ध भय
नहीं
विचलित मन.
अगर
चलना हो युद्धपथ
तो
मैं नहीं मार्ग कंटक
लक्ष्य
नहीं युद्ध ,पर दुर्योधन मांगे युद्ध
देंगे
पांडुपुत्र
भीरु
नहीं बनेंगे,
न
लगे जंग अस्त्रों को
अज्ञातवास
बिता.
शांति
प्रयास पांडुपुत्रों का
नहीं
द्योतक भीरुता का.
हम
नहीं युद्धोत्सुक
यदि
मांगेगा युद्ध मंद्बुद्धी दुर्योधन - मिलेगा
पर
देख लो परिणाम
उत्तरदायी
भी होगे तुम.
माँ
गांधारी, कुन्ती से मिल
शांत
मन मेरा.
हे
केशव! तुम्हारी बातों ने
दी
मुझे शक्ति, अब नहीं डोल रहा
मन
मेरा, ममता के अथाह सागर में.
बनेंगे
नहीं जंजीर,
न
मेरा प्रेम, न मेरा ममत्व.
शक्ती
बनेंगे, कवच बनेंगे
यदी
युद्ध अटल, तो मैं भी स्थितप्रज्ञ..
होगा
यह धर्मयुद्ध
यह
है कर्मयुद्ध
होंगे
धराशायी - धर्महीन कुरुवीर
होगा
सर्वनाश - कर्मच्युत कुरुरक्षक.
हे
सखा! क्षत्राणी मैं भी
नहीं
अछूती युद्ध परिणाम से.
नववधू
नहीं रहती बांझ,
वेदना
देख आसन्नप्रसवा.
उत्सुक
तत्पर, उत्कंठित हो जाती वो
सृष्टि
में देने अपना योगदान.
स्वीकारुंगी
मैं निर्णय तुम्हारा
कितना
भी हो दुष्कर परिणाम.
टूटेगा
सब्र का बांध,
बहेगा
सैलाब - अपमान,प्रतिशोध का
नहीं
बच पाएंगे कुरुवंशी
गर
अड़े रहे मूढ़्मति.
कृष्ण:
जैसी
करनी वैसी भरनी
जो
बोया-सो पाया
सब
जाने जगत की रीत.
अधर्म
रोकना - यही धर्म की नींव
धीर,
सहनशील, निर्भीक, समदर्शी
अभिमान
रहित, इन्हीं पर धरा का भार.
कभी
- कभी हो जाता अवश्यंभावी युद्ध
बन
जाता जन-समाज हितकारी
शांति
प्रतिष्ठा का जनक.
कुरुवंशी
चल रहे कुपथ
रच
रहे नित नया कुचक्र
आखिरी
प्रचेष्टा करनी सबको
पाँच
गाँव या पूरा हस्तिनापुर
तय
करेगा आनेवाला समय.
आज्ञा
दो माँ कुन्ती,
विदा
करो हे पांचाली.
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