अंक २
दासी:
माँ
गांधारी -
पधारी
हैं, पांचाली
गांधारी:
स्वागत
तुम्हारा - पांचाली
पधारो,
धन्य राजमहल,
हो
सन्निध तुम्हारे
ठंडक
पहुँची मन में
सीने
से तुम्हें लगा कर.
दासीयों
– पैर पखारो
चंदन
लेप लगाओ, इनके!
पवित्र
किया यह प्रांगण
धर
अपने सुंदर चरण कमल!
बार-बार
नहीं मिलता
ऐसा
सौभाग्य हस्तिनापुर को.
वहाँ
मत बैठो बेटी
मेरे
पास बैठो-
छूने
दो मुझे, संवारने दो मुझे
नये
वस्त्रों से, नये गहनों से
संजो
रखे थे मैंने- जाने कितने युगों से.
सब
कुछ तुम्हारा, जो भी मेरा
ले
जाओ भूलना मत,
मुझे
भी ले चलो, मन भटकता यहाँ
नहीं
मालूम तुम्हें पांचाली, बेटी मेरी
कितना
कचोटता खुद से बातें करना.
द्रौपदी :
माँ
गांधारी !
सब
कुछ मिल गया, पाकर आलिंगन तुम्हारा
माँ
- तुमसे क्या मांगू?
क्या
कमी, पास मेरे
हाथ,
जो सर पर तुमने धरे
तुम
हो पल – पल साथ मेरे !
अब
नहीं अधीरता
हर
ली मेरी सारी शंका
मैं
हर्षित, उत्फुल्ल पाकर साथ तुम्हारा
कहो
माँ !
कैसे
बदल गया - राजमहल तुम्हारा?
हस्तिनापुर
हमारा?
रोको
माँ – देखी नहीं जाती
लड़ी
आँसूंओं की
जाने
क्या-क्या कह जाती ?
गांधारी :
रोको
मत तूफान को
उमड़
पड़ा देखकर तुम्हें.
मुझ
से - कभी तुम नहीं परे
सब
कुछ
सूना,
विक्षिप्त, अभिशप्त
यह
राजमहल, यह विलास
यह
हस्तिनापुर.
राजपाट
अभिशप्त,
प्रजा
अभिशप्त,
कण-कण
अभिशप्त.
बिन
तुम्हारे.
छिन
गया शौर्य,
लुट
गयी मर्यादा,
कुरुवंश
अभिशप्त आज,
तुम
नहीं, प्राण नहीं,
खुशबू
नहीं, तेज नहीं,
सब
कुछ रिक्त - अभिशप्त.
लौटा
दो, लौटा दो
हे
पांचाली ! लौटा दो
अंजुलि
भर वो प्रखर,
तुम्हारा
हस्तिनापुर, हमारा हस्तिनापुर
मांग
रहा, शौर्य रहित, निर्वस्त्र हस्तिनापुर
थोड़ा
– सा दे दो, इसे मति-वस्त्र.
जल
रहा लाक्षागृह सा
हिंसा,
द्वेश की अग्नि में,
भोग
रही प्रजा सारी अज्ञातवास
घिर
षडयंत्रियों और चापलूसों से.
तुम
क्या रूठी, विमुखी हुई
सब
कुछ लुट गया, श्री विहीन हो गया
हमारा
हस्तिनापुर.
पितामह
ढूंढ रहे खुद को अतीत में
विदुर
भटक रहे - धर्म–कर्म की भीड़ में
धृतराष्ट्र
- हताश पुत्रमोह में
सारे
महारथी हस्तिनापुर के
निष्प्राण,
निष्क्रिय.
देखो
मेरे मतिहीन पुत्र,
मायापाश
में जकड़
भाई
शकुनी के संग
खेली
राजनीति - सिर्फ अपनों से
बांध
शत्रुओं से सांठ-गांठ !
कब
सुने इन्होंने शब्द सार्थक
अब
पथहीन, मित्रहीन, अकर्मक .
फेंके
पासे और फंसाया अपनों को
और
शिकार बनाया षडयंत्र का !
दहन
किये सारे रिश्ते नाते
प्रेम,
विश्वास – जलाकर लाक्षागृह !
कोई
नहीं सुन रहा यहाँ
हम
- तुम सिर्फ
नेपथ्य
में कोलाहल.
द्रौपदी:
माँ,
यह क्या कह दिया आपने
यही
मूल्य, रह गया - हमारे प्रेम का
विश्वास
का, त्याग का.
गांधारी :
रोको
मत प्रिये, सुनो
इतने
वर्षों बाद-कोई तो
सुनने
को तत्पर.
बहन
कुन्ती तो हो गई निर्मोही
न
कुछ कहा, न सुना.
कितनी
घड़ियाँ बीती साथ उनके
शायद
वो भी हों - मौन समर्थक,
किसे
दिखाऊँ, जो देख रही आँखें मूँद भी-
जंघाओं
से बहता लहू
सींच
रहा केश तुम्हारे.
तुम
ही नहीं लगी थी दांव पर
मैं
भी हार गयी थी,
मैंने
तो जना उन्हें - बढाने कुरुकुल.
पर
यह हृदयविदारक विनाश
कैसे
रुक सकता - जब रुके नहीं
घिनौने
हाथ दुःसासन के निर्वस्त्र करने.
तुम
- नहीं थी मुझसे कम –
मर्यादा
या रक्षण में
कोई
नहीं रोक सका, न बढा़ कोई हाथ
रोकने
दुर्योधन का कुकर्म
मैं
भी हुई निर्वस्त्र, विवेकशून्य
अब
तक किंकर्तव्यविमूढ़.
पथरा
गयी आँखें, रूकती नहीं आँसूंओं की बाढ़
जाने
अब क्या देखना बाकी
जाने
क्या बढ़़कर इस का्लरात्रि से.
भविष्य
चल रहा-
पंगु
वर्तमान के कंधों पर
शीशा
छूट चुका हाथ से,
अब
चटखना ही बाकी-
जाने
कितने किरचे बिखरें
जाने
कब तक गूंज रहे.
युद्ध
नहीं निर्णायक
किसी
भी विकट परिस्थिति का
नहीं
समाधान किसी समस्या का.
युद्ध
- सिर्फ दफनाता मानवता को
ढहाता
उन जीवन मूल्यों को
जिन
पर खड़ा समाज,
पाट
देता लाशें उन पर
और
ढंक देता लहू भरी धूल.
कु्छ
नहीं पनपता उस पर
दूब
तक कतराती-
केवल
बू फैलती, साथ एक
सनसनाती
लहर-भय की
भयावहता
की
इस
समाज में-
जो
बटोरता
अपने
खंडित तिनके, अधखुली
आँखों
से.
द्रौपदी :
तुमने
देखा है इतिहास
गुजरी
हो, इसके पन्नों से
कुछ
तो फुसफुसाया होगा इसने
पता
होगा परिणाम - इसके दोहरने से.
क्यों
नहीं सोचता कोई
क्यों
अड़े- अपनों के सर्वनाश पर
रोको
माँ –यही है समय..
गांधारी :
और
मत करो अधीर
इस
मन को, प्राणों को.
प्रिय
कृष्णा! मैं भी तो
हतप्रभ,
भीतत्रस्त-
नहीं
अनभिज्ञ युद्धोपरांत से.
तुम्हीं
नहीं जल रही इस अगन में
मेरी
व्यथा कम नहीं तुम से.
मैंने
भोगा अंधापन, मूकपन
पल-पल
जीया है इसको.
आँखें
चुंधिया जाती
एक
हल्की सी किरण से
फिर
कस लेती आँखों की पट्टी
चढ़ा
लेती एक और परत.
सब
देख, किया अनदेखा
असह्य,
पर सहा मैंने
हाथ
पैर सलामत - फिर भी पंगु मैं.
मैं
नहीं भिन्न, इन सब से
मेरी
हालत से - मेरे पुत्र.
राजनीति
में सीखी सिर्फ दुर्नीति
यही
बनी नींव
इसी
पर बढ़ा इनका साम्राज्य
टेढ़ी-मेढ़ी
जिसकी दीवारें
छत
तक तो पहुँच ही नहीं पाये
जमीन
पर बिछी रही छत- जाने कब
इन
दीवारों पर चढ़े.
इतने
दिनों की छटपटाहट
पाला
इन सबने घृणा - द्वेष
छल-
कपट
माया
- मोह में ओतप्रोत
मोड़ा
सत्य को.
निर्णय
जो भी लिये
पक्षपाती,
सबूतों की बली चढ़ा.
इस
महायुद्ध का बीज
बोया
गया तभी- जब
शपथ
ली देवव्रत ने
कुमति
दासराज के समक्ष.
पितृभक्ति
में – चूक गये पितामह
प्रजा
का सर्वस्व प्रियतम
उदारता
में डूब - क्षणिक विचलित
आज
तक ऋण चुका रहे – हस्तिनापुरवासी.
शपथ
से बंधे - नहीं ज्ञान चक्षु
खो
बैठे सारा प्रकाश-
इतिहास
दोहराता अपने आप को
मति
हर लेता जिस पल
प्रलय
चुपके से चल पड़ता
अपनी
सर्पीली चाल.
जाने
कब अंत होगा
कुमतियों
को शपथ देना
झुक
जाना उनके आगे.
त्याग
जो किया देवव्रत ने
किया
अनदेखा, शौर्य हस्तिनापुर का
शपथ
की पट्टी, बाँधी आँखों पर
धारण
कर लिया मौनव्रत.
कुरुवंशी
नहीं रहे हम
हो
गये कलिपुत्र (सत्यवति का अन्य नाम कलि)
चाहते
तो दे सकते सूच्याग्र मेदिनी कलिपुत्रों को
पर
नहीं, थमा दी डोर सारे हस्तिना की
जब
तब नहीं दिया, पितृमोह में
तो
अब क्या मिलेगा, पुत्रमोह में.
ढाल
बना ली पितामह ने “शपथ” की
जब
भी आयी निर्णायक घड़ी
लाक्षागृह,पासेबाजी,
चीरहरण, अज्ञातवास-
कोई
कुचक्र नही, कोई षडयंत्र नहीं
फल
थे - उन सब अनदेखी का
जो
ढाल शपथ के -
पीछे
छिप कर की गयी.
यह
तो हिमस्खलन है- जिसमें घिरे आज हम सब
पर
कंपन तो उसी समय हो गया-
हस्तिनापुर
हिमाचल पर
जब
शांतनु ने दी मौन सम्मति
पितामह
के असीम त्याग पर.
आँखों
पर पट्टी - फिर भी
जो
मैं देख रही – हे पांचाली
क्यों
नहीं दिख रहा तुम्हें?
क्यों
चाहती – एक और इन्द्रप्रस्थ?
क्या
चाहती एक और जुए की बाजी?
एक
बार फिर निर्वस्त्रा?
अज्ञातवास?
क्या
तुम भी चाहती - यह सब गुजरे
और
भोंगें तुम्हारे वंशज?
यही
सब दोहराया जायेगा
पर
होंगे नए वेश – यह काल का एक और छद्मवेश.
कोई
माँ नहीं चाहती- तुम भी नहीं चाहती
भोग
जो कष्ट तुमने - भोंगे तुम्हारे जायज.
कुछ
और कष्ट, फिेर चिरसुखी.
कर
दो पथ निर्मल
दो
विरासत में संतानों को
शपथ
मुक्त हस्तिनापुर.
द्रौपदी :
हे
माँ गांधारी
दहल
उठता हृदय मेरा
जब
भी सोचूं बीता कल.
जिस
ज्वाला से मैं गुजरी
तपिश
उसकी, अब तक झुलसाती
मेरा
मन, मेरा तन.
नहीं
सोच सकती तिल भर भी
यह
तपिश झुलसाये मेरे जनों को
नहीं
रही चाह एक और इन्द्रप्रस्थ की
शायद
न रहे चाह हस्तिनापुर की.
आज्ञा
दो माँ- ये पल जो बीते साथ
बस
गये मेरे रोम-रोम
पुलकित
मेरा तन
अजीब-सी
थिरकन भरा मन.
तुमने
जो भोगा पल-पल
रह
हस्तिनापुर में-
मेरा
भोगा कुछ भी नहीं,
मेरी
पीड़ा कुछ भी नहीं,
मेरा
त्याग कुछ भी नहीं.
गांधारी :
हे
प्रिय ! मेरी पुत्री
देखा
नहीं अब तक अपने ही जने
सिर्फ
महसूस की, उनकी कारगुजारी.
कभी
- कभी वरदान लगता यह अंधापन
चाह
नहीं कुकर्म अवलोकन की.
क्यों
देखूं यह समय, यह हस्तिनापुर
कोई
मौन, कोई पंगु, कोई अज्ञानी
अकर्मण्यता
का शिकार यह साम्राज्य.
पुत्र
मोह ने जकड़ रहा मुझे-
जब
जने – थे मांस के लोथड़े
घड़े
ने फूंके प्राण- पर
अब
तक अर्धविकसित
तन
से, मन से,कर्म से.
सींचा
था मैने, अपने लहू से
काटी
कई रातें इन्हीं आँखों में
शायद
देखें सुनहरा कल
मेरे
शतपुत्र !
तब
छू कर महसूस किया
स्पंदन-
अधीर
होता मन, सुन इनका रूदन.
अब
सिर्फ सुन रही इनका गर्जन
पाषाण
करता मेरा मन.
हाथ
बढ़ते रोकने, पर रुक जाते
कुछ
कहने होंठ मचलते
घुट,
रह जाते स्वर.
पुत्रमोह
की लहर - कर देती सब अनदेखी
एक
और मौका देती
शायद
उठें अपने से ऊपर.
फिर
पाती इन्हें
रेंगते,
धंसते अपने ही दंभित दलदल में.
क्या
आशीष दूं तुम्हें, मेरी प्राणप्रिय
विजयी
भव! पुत्रवती भव!
हम
सब घिरे कालरात्रि में
कोई
दीप नहीं-एक दूसरे के सहारे
होड़
में लगे – पिपाषु.
तू
रहे कष्ट मुक्त- यही मेरी अभिलाषा,
तू
रहे करुणामय –यही मेरी इच्छा.
जाओ
पांचाली- अब तो इन्तजार है
कल
का – कृष्ण का
जाने
क्या खेला लायें
मैं
जानती उनके शब्दजाल
ऐसे
सरल - पर सुफल
मंगलमय,
हितकारी.
एक
और दौर
अंतिम
प्रयास लीलाधारी का
शांति
का, प्रेम का, सृजन का-
कोई
नहीं रहेगा अछूता
जो
भी हो परिणाम
तुम
हो कुलवधु, श्री इस कुल की
इस
हस्तिना की.
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