अंक ४
द्रौपदी;
परिहास
किया दुर्योधन ने
भाभी
के ठठ्ठे का
अपमानित
किया पितृस्नेह को
तिलांजली
दे रहा सारे रिश्ते-नाते
डूबकर
अपने अहं में!
नश्वर
बल पर इतना अभिमान!
नहीं
झेल पायेगा इसका कुपरिणाम
शांतिप्रेमी-
नहीं निर्बल
मैं
नहीं अबला, शक्ति मैं- प्रचंड
युद्ध
विमुखी- मैं नहीं,
हूँ
मैं जननी, मैं हूँ धरणी
कुछ
भी नहीं, मेरे लिये असह्य.
मैं
ही समाई प्रेम बन, बस गयी कण – कण
नहीं
मैं बाधक- यदि पांडुपुत्र युद्धरत.
शक्ति
बन बस जाऊंगी सबके तन-मन
बन
जाऊंगी धार अस्त्रों की
बनेंगे
विजयी मेरे रक्षक !
जानती
तुम भी हो माँ कुन्ती
संजो
रखे हमने अमृत-विष कलश
जो
मथेगा जैसा - पाएगा वैसा
मोड़
यह इतिहास का,
नहीं
हटेगा पीछे कदम.
शांति
हो या युद्ध
आगे
बढ़ेंगे पांडुपुत्र
गौरवान्वित
करंगे, मर्यादा रखेंगे
हस्तिनापुर
की प्रथा.
कुन्ती:
जंगल
जल जाते - सूरज की तपन में,
बह
जाते गांवों के गांव - नदी के उफनने पर,
फिर
फूटती नयी कोंपलें - राख के ढेर से,
फिर
बसते नये गांव- विनाश की कगार से.
ढह
जाएंगी कुप्रथाएं, कुसंस्कृतियाँ
इस
युद्ध की विभीषिका में.
जन्म
लेगा नया इतिहास
सजग
प्रजा, कर्मठ समाज.
यदी
रहा सार्थक शांति प्रयास
नहीं
रहेंगे अकर्मण्यता का शिकार
नियती
तय करेंगे ज्ञानी, कर्मठ
हाथ
पर हाथ धरे बैठे रहते
कर्महीन,
अज्ञानी, अविवेकी.
तुम
व्यर्थ चिंतित
युद्ध
का परिणाम सोच.
युद्ध
होता विनाशक,
युद्ध
होता सामाजिक आपदा
पर,
परिणाम नहीं अहितकारी.
यदि
युद्ध अवश्यंभावी तो शिरोधार्य,
मत
टालो घड़ी युद्ध की
विद्रोह
करो अपने आप से, पांचाली !
मत
उलझो धर्म-कर्म के जाल में
पहचानो
इस समय का धर्म
कल
के कारण, मत बिगड़ो अपना कल
समर्थ
बनो, समय की चाल संग चलो.
यह
जीवन नहीं सीधी राह
चुनौति
मिलती, हर पल
सोचो
चुनने से पहले, मत उसके बाद,
आगे
बढ़ो, मत करो पश्चाताप.
हर
राह की अपनी बाधा
साथ
नये मोड़, नयी चुनौति
यही
सब तो जीवन धारा
बहती
रहती सुख – दुःख के पाटों बीच
आगे,
निरंतर.
दुःख
की चिंता में घिर
मत
गवांओ सुख के पल.
द्रौपदी:
कठिन
है द्रोह अपने आप से
न
ही कर पाए पितामह, न ही धृतराष्ट्र
कोई
उलझा हस्तिना के मोह में
कोई
पितृमोह में.
काटती
चुप्पी महारथियों की
कचोटती
कभी खामॊशी इनकी
सर्वनाश
में कब हुआ विकाश?
किस
युग ने देखे ऐसे विवश
इतने
ज्ञानी, बलशाली,
पर
क्यों?
कुन्ती:
कोई
विवश नहीं, पांचाली
सब
समय के पाश से बंधे
कोई
खामोश नहीं, बस सुन नहीं रहा
दुर्योधन
का अहं.
बेबस
छटपटा रह शकुनि के पाश में
सुनता
वही, जो सुनना चाहता
जाने
क्या सुने कल की महासभा में.
कोई
कुचक्र नहीं तोड़े, केशव ने
रचे
थे जितने जितने दुर्योधन मंडली ने
सब
षड्यंत्र विफल किये
धर्म-कर्म
का साथ निभा कर.
देखो
पांचाली
यह
कतार बद्ध चींटियां
लिए
जा रही तृण के टुकड़े
सजो
रही अपनी बांबियाँ.
इनमें
संचित शौर्य, अहं
हर
पल परिश्रमरत,
बना
रखा अपना अभेद्य दुर्ग,
बह
जाता हल्की सी बारिश में
फिर
जुट जाती, संजोने मिट्टी के ढेर
कैसा
इनका अस्तित्व, कैसा इनका अहं?
इस
असीम ब्रह्माण्ड में
कहाँ
इनका शौर्य?
क्या
है इनकी सत्ता?
जाने
कितने अगणित ब्रह्माण्ड,
देख
रहा वो पालनहार
मुस्कुरा
भर देता, देख हमारा अहं.
बांट
लिया हमने - जाति, धर्म, भाषा
वर्ण,
संस्कृति की देकर दुहाई.
खिलखिला
रहा रचयिता
देखकर
हमारी वाक्पटुता.
उसने
नहीं बनाई रीत धर्म की
न
बनाई ये दीवारॆं ऊँच-नीच की.
हमने
बनाए नियम सारे और बो दिए
धर्म-अधर्म,
सत्य-असत्य के बीज
वो
इन सब से परे, खेल रहा जो खेल,
देखना
तुम पांचाली वह समय-
जो
दुराचारी डूब रहा असत्य के सागर में
वही
देगा दुहाई सत्य की
जब
मिटेगा इसी समर में.
पग-पग
पर अधर्म करता जो नहीं कतराया
क्या
सह पायेगा, हल्का स्पर्श धर्म का ?
नहीं
पांचाली-ये कुरु महारथी
रच
रहे रोज नये कुचक्र
धराशायी
हो, देंगे दुहाई सच की.
जो
है वो दिखता नहीं,
जो
नहीं उसे देख हो रहे मदमस्त
कैसे
महसूस कर सकते रंगों की महक
कैसे
देख सकते खुश्बू के रंग.
सीमित
हैं इन्द्रियाँ, पर
उन्मत्त
कुरु महारथी असत्य को सत्य जान
अधर्म
को धर्म मान
हो
रहे महान!
द्रौपदी:
माँ!
जो होगा सो अटल
साथ
हमारे सखा कृष्ण
मैं
हो गयी शांत, निर्विकार.
कुछ
भी हो परिणाम शांति प्रयास का,
मैं
नहीं विचलित
सखा
साथ मेरे.
बहने
दो जीवन धार
यही
बहेगी, सींचेगी नया युग
हम
सब निमित्त मात्र.
यदि
रहा दुर्योधन शांतिपक्ष
मिलजुल
भोगेंगे यह संसार
और
यदि रहा दुर्मति युद्धरत
नहीं
रुकेंगे पांडुपुत्रों के प्रहार
जब
तक निर्मूल ना हो कुरुवंश
मेरा
मन शांत, क्योंकि सखा मेरे संग.
ऊँ शान्ति, शान्ति, शान्ति……..
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