Friday, December 26, 2014

हिमशैल

हिमशैल एक
यायावर सा, अनंत सागर में
जाने कब से बहे चले जा रहा।
अगिनत तूफानों संग
इसने भी ली मदमस्त हिलोरें ।
तपती, झुलसती गर्मी
ठिठुरती, कंपकंपाती सर्दी
नहीं कर सकी विचलित इसे।
बस एक लकीर बुलबुलों की
बनाता जाता - पर
अगले ही पल-
सागर उन्हें मिटाता जाता।
जूझ एक अजीब सी
सागर के संग
नित नए सूरज
नित नए रंग।
इसी सागर ने अपने ही अन्दर
छिपा रखा है अस्तित्व इसका
और यह
शनै शनै घुलता जाता
इसी सागर की गोद।

तन्हाई

कुछ भी तो नहीं
इर्द गिर्द मेरे।
एक तन्हाई-इस अँधेरे में
और इसमें छिपा 
दुबका कोने में मैं ।

दूर से बवंडर कोई उठ रहा
साँय-साँय हवा चल रही
ठिठुर रहा जाड़े में।
रौशनी हल्की सी - दीये की
पल पल काँपती और
साथ मुझे सिहरा देती।
उठकर संभालूं दीये को
हिम्मत नहीं इतनी ।
कोई भी नहीं इस घर में
एक तन्हाई और उसमें
छिपा मैं।

बीते युगों की यादें
टकराती इन खोखली दीवारों से
सायों सी उभरती-ओझल हो जाती
गुनगुनाता मैं- पर आवाज
दब रह जाती-गरजते बादलों बीच।
घुट रह जाती लौ दीये की
कौंधती देख बिजलीयाँ।
पल भर को देख लेता
बिखरा सामान घर के हर कोने
कभी संजोया था बहा पसीना अपना
अब तो सब कुछ कोरा सा लगता।
समेट लेगा तूफ़ान- किसी भी पल
बहा ले जाएगा- हौले हौले बढ़ता पानी।
गहराता ही जा रहा अंधियारा
सूना रह जाएगा कमरा
बुझा रह जाएगा दीया।
बस बहता रहेगा पानी
गरजते रहेंगे बादल
सिहराता रहेगा तूफ़ान और टकराती रहेंगी यादें।
छिपा रह जाऊँगा मैं
साथ अपनी तन्हाई।
------------------

याद आये

देख दुश्मनों के अहले करम
कुछ दोस्त पुराने याद आये।

नन्हीं उंगलियाँ उठीं लपकने आसमां
वो ख्वाब पुराने याद आये।

दश्ते वीरान से, मचल उठी हवाएं
नज़ारे बागे बहाराँ याद आये।

बिजलियाँ रात भर, गरजती रहीं बादलों में
वो रुख से किसी का, सरकता नकाब याद आये।

अब नहीं

 
वाईस मैखाने में जाता नहीं, 
पता खुदा का कोई और नहीं।
 
कहते हैं किस जर्रे में वो नहीं
फिर भी हमको यकीन नहीं।
 
झुकता सर सजदे में अब नहीं
कंधों पर अपने फिरते, आरजू कुछ नहीं।
 
आयेंगे अभी, पर लौटे अब नहीं
भरोसा रखते सब पर ऐतबार अब नहीं।

अपने - अपने

हर शहर की
अपनी ही गलियाँ-
घरों के बीच से गुजरती
गुम हो जाती जंगलों में।

हर नदी के 
अपने ही जंगल
पहाड़ों स ढलते हुए
खो जाते सागर किनारे।

हर सागर की
अपनी ही लहरें
उमड़ती घुमड़ती गोद से उठती
ओझल हो जाती बादलों बीच।

हर आसमान के
अपने ही बादल
हवाओं के परों पर लरजते
बिजली से 
शहरों पर बिखर जाते

स्याह साए

कठपुतली से चलते देखा मैंने
कदम से कदम मिलाते
कोई आहट नहीं 
सन्नाटे में और सन्नाटा घोलते।
रौशनी के छिपते ही
लिपट गए मुझसे
स्याह साए-
धीरे धीरे साँसों में घुलते 
और रग रग में मेरे रम रहे।

चिंगारियाँ रुक रुक कर उठतीं
तराशती इन्हें
पर रंगों को चुरा
फिर छिप जाते अंधेरों में।

सूरज चाँद तारों के  इर्द गिर्द
मंडराते फिरते रहते
आकाशगंगा से थिरकते
क्षितिज के इस छोर से उस छोर तक।

दीवारों, रौशनदान से रिसते
चिमनियों से उतरते
दरवाजे, खिड़कीयों तक अधिकार जमा रखा
बिखरे हुए अब हर कोने में।

नींव

रोज कहाँ जा पाता हूँ -
इस घर के  हर कमरे में ?
थका हारा, काम से चूर
शाम के  वक़्त तक,
बस नहाने भर की -
बची रहती है ताक़त।
फिर भोजन और टीवी-
रोज ही होता ऐसा।

जुटा लिया सामान मैंने-
सजा दिया हर कोने में....
कहाँ उपभोग कर पाता हूँ ,
जीवन की इस आपा धापी में ?
कभी टीवी देखते समय ,
तो कभी खाने के वक़्त-
बच्चे राग अपना अलापते,
स्कूल के , दोस्तों के , फरमाईशों के  ।
सुन अनसुनी सा कर देता ,
तो झुंझला से जाते ।
कहाँ वक़्त दे पाता हूँ
उनके  खिलखिलाते सपनों को ?

इस मशीनीकरण के  युग में
सब कुछ यंत्रचालित सा घूम रहा।
रिश्तों की लड़ी, नाज़ुक मोड़ पर।
ना मुझे कोई समझ  रहा ,
ना मैं समझा पा रहा।
वक़्त ही कहाँ रहा
पाटने रिश्तों की दरार को ?

पर एक अद्दृश्य हाथ
सब कुछ संभाले जा रहा।
कमरे सारे बुहारता,
साजो सामान यथावत रखता, और
बचपन से - कड़ी मेरी संजोये रखता ।
अपार शक्ति से भरपूर -
स्पर्श जिसका पाकर ,
नवस्फूर्ती मचलती,
नित नवकलेवर मेरा,
होता थके  हारे शरीर में।
फिर भी हरकोई इसे,
देख कर भी अनदेखा -
किये जा रहा ?
----------

पत्थर की मूरत

पत्थर सा बन, बस गया
अंदर मन के मेरे।
जितना भी तराशा बस हल्की सी परत एक
छलनी हो रह गयी।
पर भीतर- अब तक
रहा अछूता सबसे।
मूरत सा-नज़र आता सबको
कोई छू कर-परे हो जाता
तो कोई दूर से - निहोरता
गर्भगृह में मेरे
बसी एक स्पंदन
घुट कर रह जाती 
भीतर ही कहीं भीतर।
सूरज, चाँद तारों की रोशनी
गर्मी, ठण्ड हो या नमी बारिश की
कुछ भी नहीं, करती विचलित इसे
अपने में ही निर्लिप्त
सबसे मुक्त, उन्मुक्त
पत्थर सा बन, बस गया
अंदर - मन के मेरे।

सन्नाटा

टूट गया नाता
सदियों निभाया जिसे हमने।

चीर सीना धरती का
लहलहाते नहीं अब खेत,
मचल-मचल कर नदियाँ
सींचती नहीं कोई धरती,
कोई लपट उठती नहीं
दूर दराज पहाड़ों पर,
कोई आवाज गूंजती नहीं
उजड़े हुए जंगलों से।
 
हर तरफ एक सन्नाटा
गूँज रहा बेताल नागरी में,
हर तरफ गहराता धूंआ बदली बन
टपक रहा हर एक छत से।
वीरान हो गए कच्चे घर
सूनी गलियां तरस रहीं
पनिहारनों की चाल।
अब तो शाम शहर बस 
गहराता जाता सन्नाटा
बस रह रह कर गूँज जाती कोयल की चहक
देख संपोलों की सरसराहट।

कैद में उसके

जाने कैसे सफर में,वह
एक बार जो गुज़रा-सदियों पहले
लौटा नहीं अब तक।
इसी कुँए से-बुझाई प्यास अपनी
प्रतिबिंब अपना -बना मुझे
तकता रहा-देर तक थिरकते पानी में
कैद हो रह गया मैं 
अर्धविकसित, अक्षम अशक्त।
 परत दर परत बढ़ते पानी संग
बढ़ता रहा धीरे धीरे मैं।
कभी तरंगों सा मचल उठता
तो कभी आसमान सा शांत।
जाने वाला जाने कब
लौटे इस और।

जाने परछाईयाँ कितनी उसकी
गुजर जा रही हवाओं पर।
जिधर भी दौड़ाऊँ नज़र अपनी
सब प्रतिबिंब से क़ैद उसके।
कहीं रिस रहा समय - सुईयों की टिकटिक से
कहीं झर रहा सागर अनंत - बादल की बूंदों से
पर बिखर रहा इंद्रधनुष
सूरज की किरणों से।

बस वही एक - सफर में
मगन, उन्मुक्त, निर्लिप्त।
--------

जाने कब बने?



जाने कब बने?

अब तो याद भी नहीं
किसने खरीदी यह जमीन
कब खोदी यह नींव?
बस जुनून भर रहा सब में
घर एक बनाने का।

बीत गये मौसम जाने कितने
रहते इस झोंपड़ी तले।
जहाँ तक नज़र दौड़ाउँ
बस झोंपड़े ही झोंपड़े
साथ कुच टूटी फ़ूटी दीवारें
जिनके इर्द गिर्द
बिखर रहीं कुछ गलियाँ।

दीवार एक चढती दिन में
तो सुबह ढही मिलती।
कभी अपने ढहा देते
तो कभी कोई अजनबी।
चूने, ईंटे गारे- समय के साथ
बहे मिले जा रहे माटी में।
उड़ जाते पन्ने किताबों के
दरारे गहराती जाती तराशे पत्थरों मे।

रोज सुबह एक नयी आस
रोज शाम एक नया सपना
देखता रहता- दुबक झोंपड़ी में अपनी
घर यह जाने कब तक बने।
----------------------------------------------
घर कब बनेगा?

जमीं तो पूर्वजों ने मेरे
कब से खरीद रखी
नींव एक बनाने का जुनून
सब में सदियों रहा।
ईंट, गारा, चूना- सब आता
दीवार एक खड़ी होने से पहले
जुट जाते छत की तैयारी में।
ढह जाती दीवार- समय के साथ
शुरु होता सिलसिला- फ़िर से
नींव पर घर बनाने का।

जाने कितने मिल गये मिट्टी में
इन्हीं ईंट, चूने गारों के साथ।
सड़ गल गयी लकड़ियाँ
जंग लग बरबाद हुये-लोहे के सरिये
पर कोई नामोंनिशान नहीं-
इस घर के बनने में।

दुबका मैं- अपनी ही ही झोंपड़ी में
बिता रहा समय अपना
गुजर जाते मौसम
धूप, बारिश और ठंड।
गुजारे हैं इसी झोंपड़े में
मौसम जाने कितने।
देखे हैं मैंने, पूर्वजों के संग
ढहती दीवारें, माटी होती मेहनत
उड़ते पन्ने किताबों से
धीरे-धीरे बहते अक्षर
गहराती दरारें तराशे पत्थरों से।

बचपन हमने गुजारा
रेत के टीलों पर उछलते
ईंटों के पीछे लुक्का छिप्पी करते।
कभी रेत उड़ाते एक दूसरे पर
तो कभी फ़ेंकते ईंट पत्थर
कोई रोता-आँखों की धूल पर
तो कोई कराहाता-पत्थरों की चोट पर।

जाने गुजर गया- समय कितना
बस गलियाँ ही गलियाँ
बिखरी हुई झोंपड़ियों के इर्द गिर्द
सब दुबक जाते इन्हीं में
सांझ के सर उठाने पर।

इस नींव पर बनेगा एक घर नया
रंगीन होंगी दीवारें इसकी
जिनपर टंगी होंगी
तस्वीरें पूर्वजों की।
पूजा होगी, आजान होगी घरों में
झूलेंगी झिलमिलाती लड़ियाँ
दीवाली, ईद किसमस पर।
रंगीन होंगी, गलियाँ
होली के रंगों पर।

पर यह घर - कब बनेगा ?
रोज यही सोचता रहता
मैं झोंपड़ी की छत से
देखता जब भी सितारों को।
-----------------------------

Wednesday, July 16, 2014

some lines


Kaanton se guzar jana sholon se nikal jana,
Jab phoolon ki basti aaye to sambhal kar jana,

Din apne chiraago se kuch is tarah jalte hain,
Har subah ko bujh jana har shaam ko jal jana,
------/-

Berukhi is se badi aur bhala kya hogi
Ek muddat se hume usne sataaya bhi nahi
------/////-------
1  aah  ko chaahiye  ik 'umr  asar hone  tak
        kaun jeeta hai teree zulf ke sar hone tak ?

Berukhi is se badi aur bhala kya hogi
Ek muddat se hume usne sataaya bhi nahi

2.      daam har mauj meiN hai halqa-e-sad_kaam-e-nahaNg
        dekhaiN  kya  guzre hai qatre  pe guhar hone tak

[ daam = net/trap, mauj = wave, halqa = ring/circle, sad = hundred, nahaNg = crocadile, sad_kaam-e-nahaNg = crocadile with a hundred
          jaws, guhar = pearl ]

3.      aashiqee  sabr  talab   aur  tamanna   betaab
        dil ka kya rang karooN KHoon-e-jigar hone tak ?

        [ sabr = patience, talab = search ]

4.      ham ne  maana  ke taGHaful na karoge, lekin
        KHaak ho jaayeNge ham tumko KHabar hone tak

        [ taGHaful = neglect/ignore ]

5.      partav-e-khur se hai shabnam ko fana'a ki taaleem
        maiN  bhee  hooN ik  inaayat  ki  nazar  hone tak

        [ partav-e-khur = sun's reflection/light/image, shabnam = dew,
          fana'a = mortality, inaayat = favour ]

6.      yak_nazar besh naheeN fursat-e-hastee GHaafil
        garmi-e-bazm  hai  ik raqs-e-sharar  hone tak

        [ besh = too much/lots, fursat-e-hastee = duration of life,
          GHaafil = careless, raqs = dance, sharar = flash/fire ]

7.      GHam-e-hastee ka 'Asad' kis'se ho juz marg ilaaz
        shamma'a har rang meiN jaltee hai sahar hone tak

        [ hastee = life/existence, juz = other than, marg = death,
          sahar = morning ]


Tamam Umer Usi Ke Khayal Mein Guzri 'Faraz'
Mera Khayal Jise Umer Bhar Nahi Aaya....
------
Ye Din Bhi Qayamat Ki Tarah Guzra Hai "Faraz"
Janey Kya Baat Thi Har Baat Pe Rona Aaya...!
-----------------------
Bus Woh ShakS Acha LaGa Ussey Saaf Keh Dala HuMNe "FARAZ"!
Dil Ki Baat Hai HuMSe MunafQaT Na Ho Saki.!
-----------------------
AiK KhaliSh ab Bhi MuJhey Baichein KaRTi Hai "Faraz"!
Sun K Meri MaRne Ki KhabaR Wo Roya Kyun Tha.!
----------------------
Bohat ajeeb hen yeh bandishen Muhabbat ki Faraz
Na us ne qaid me rakha na hum farar huway...
--------------------------
Kuch is tarah nazar andaaz ho gay Faraz
Jesay izafi hurf thay hum teri zindgi ki kitaab me..
-----------------------
Tujh se bichar ke bachpan ka yeh bhaid khula
Kiyun likhta tha main pairoon pe"tanha tanha
------------------------
Koi nahin hay merey jaisa charoon aur
Apney gird ek bheer saja ke"Tanha"hoon
----------------------
Pyar mein ik he mousam hai baharon ka"Faraz"
loh kaisey mousamon ki tarhan badal jatey hain
---------------------------
Jab khizan aye gi to laut aye g wo bhi "Faraz"
wo baharon mein zara kam he nikla karta hai
--------------------------
Jis ko bhi chahaa use shiddat se chaahaa hai Faraz
Silsilaa tuta nahiin dard kii zanjiir kaa
----------------------------
aaj dil khol ke roye hain to yuuN Khush hai 'Faraz'
chand lamhon kii ye raahat bhii barii ho jaise
-------------------------------
Hijr Ki Raat Bohat Lambi Hai Faraz
Aao Uski Yaad Mein Thak K So Jaein
---------------------------
Kuch Tu Hee Mere Dard Ka Mafhoom Samajh Lay Faraz,
Hansta Howa Chehra To Zamaane Ke Liye Hay....
--------------------
Tum Taluq torney Ka Kahin Zikar Na Karna Faraz ....!
Main Logon Se Kehdonga K usey Fursat Nahi Milti....!
----------------------------
zalzalay younhi Besabab nahi atay Faraz,
Koi dewana tah-e-khak tarapta hoga...
---------------------
Main Ne Jis Shaakh Ko Phoolon Se Sajaya Tha Faraz,
Mere Seenay Main Ussi Shaakh Ka Kaanta Utra..!!
------------------------
Hum Na Badlein gay waqt ki raftaar kay sath Faraz
Hum jab b milen gay andaaz purana hoga
------------------------
Bara Andhera Tha Un Ki Rahoon MEin Ay Dil FARAZ
Mein Apna Ghar Na Jalata To Aur Kia Kerta
---------------------
Humne Mehboob Jo Badla To Taujab Kesa FARAZ
Log Kafir Se Musalman Bhi To Ho Jate Hain
--------------------
Wo bhi ro de ga usay haal
sunaye'n kese
Maum ka ghar hy chirago'n
ko jalaye'n kese

Duur hota tou usay dhoond
bhi lete 'Faraz'
Rooh main chup k jo betha hy
usay paaye'n kese ...
-------------------
Maine toh Apni Tanhaiyon se Tang aakar Dost banane The***FARAZ***
Dost bhi aisay milay k Mujhey Aur Tanha Kar GAye...
--------------------------------
Mujhe ghuroob na jano jo main ufaq pay nahi....faraz
Bikher gaya hoon andheron main kehkasha ki tarah...
------------------------------
Bahana Kyun Tarasha Rooth Jane Ka 'Faraz'
Bas Itna Keh Dete K Dil Main Jaga Nahi Rahi
----------------------------
** Pehle Tarasha Us Ne Mera Wajood Sheeshay Se
~FARAZ~
Phir Zamane Bhar K Hathon Main Pathar Thama Diye **
---------------------------
Pani Main Aaks Dekh Kar Khush Ho Raha Tha
~FARAZ~
Pather Kisii Nay Mar Kar Manzar Badal Deaa
-----------------------------
Ae Insaan Ibn-E-Aadam Se Nanga Aya Hai To
~FARAZ~
Kitna Safar Kya Hai To Ne 2Ghaz Kafan K Liyee
------------------------
Akele To Hum Pehle Bhi Jee Rahe The~FARAZ~
Kyu Tanha Se Ho Gaye Hai Tere Jane Ke Baad
-------------------------
Ek hi zakhm Nahi sara Badan zakhmi Hai
~FARAZ~
Dard Hairan Hai ke Uthun To kahan sE uthun
-----------------------------------
Sub Roshnian muj say Roth gain Yeh kah kar.!~FARAZ~
Tum Apney Ciragon ki Hifazut nahi Kartey.!
----------------------------------
Tamam Umar Mujhe Tootna Bhikarna Tha....~FARAZ~
Wo Meherbaan Bhi Kahan Tak Samet Tha Mujhe....
-------------------------
Loog Kehtay Hain k Mulaqat Nahi Hoyi,~FARAZ~
Hum tu Rooz Miltay Hain Lekin Baat Nahi Hoti....
----------------------
Main jo mehka to meri shaakh jala di us ne~FARAZ~
Sabz mosam main mujhey zard hawa Di us ne
-----------------------
Toot kar choobh Raha hai Aankhon mai~FARAZ
Aaeena To Nahi Tha khuaab Mera
----------------------
dagh daman k ho'n, dil k ho'n k chehre k Faraz
kuch nisha'n umr ki raftar se lag jate hain
---------------------
Ishq ki rah main do hi manzilain "FARAZ"..
Ya dil main utar jana, Ya dil sey utar Jana
----------------
Ankh Masruf e Nazara thi to Hm khush thy Faraz
Tum ney Kia Zulm Kia Dil mein Thikana Ker K...!
---------------------------
Tere khuloos ne barbaad kr diya hy Faraz
Fareb dety to kab k Sambhal Gaye Hote
------------------
Tum se bichar kar zehan aisa howa muntashir faraz
Ky logo se apnay ghar ka pata pochna para
-------------
Zamanay k Sawalon Ko Main Huns k Taal Du FARAZ,
Lakin Nami Ankhon Ki Kehti Hai "Mujhe Tum Yaad Aate Ho"
-----------------------------------
ApNi Neend sE MujhE kuCh yon b bohot PeyAr hy "FARAZ"..

K UsNe kAhA thA "MujhE p




Ye Din Bhi Qayamat Ki Tarah Guzra Hai "Faraz"
Janey Kya Baat Thi Har Baat Pe Rona Aaya...!
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Bus Woh ShakS Acha LaGa Ussey Saaf Keh Dala HuMNe "FARAZ"!
Dil Ki Baat Hai HuMSe MunafQaT Na Ho Saki.!
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AiK KhaliSh ab Bhi MuJhey Baichein KaRTi Hai "Faraz"!
Sun K Meri MaRne Ki KhabaR Wo Roya Kyun Tha.!
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Bohat ajeeb hen yeh bandishen Muhabbat ki Faraz
Na us ne qaid me rakha na hum farar huway...
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Kuch is tarah nazar andaaz ho gay Faraz
Jesay izafi hurf thay hum teri zindgi ki kitaab me..
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Tujh se bichar ke bachpan ka yeh bhaid khula
Kiyun likhta tha main pairoon pe"tanha tanha
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Koi nahin hay merey jaisa charoon aur
Apney gird ek bheer saja ke"Tanha"hoon
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Pyar mein ik he mousam hai baharon ka"Faraz"
loh kaisey mousamon ki tarhan badal jatey hain
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Jab khizan aye gi to laut aye g wo bhi "Faraz"
wo baharon mein zara kam he nikla karta hai
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Jis ko bhi chahaa use shiddat se chaahaa hai Faraz
Silsilaa tuta nahiin dard kii zanjiir kaa
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aaj dil khol ke roye hain to yuuN Khush hai 'Faraz'
chand lamhon kii ye raahat bhii barii ho jaise
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Hijr Ki Raat Bohat Lambi Hai Faraz
Aao Uski Yaad Mein Thak K So Jaein
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Kuch Tu Hee Mere Dard Ka Mafhoom Samajh Lay Faraz,
Hansta Howa Chehra To Zamaane Ke Liye Hay....
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Tum Taluq torney Ka Kahin Zikar Na Karna Faraz ....!
Main Logon Se Kehdonga K usey Fursat Nahi Milti....!
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zalzalay younhi Besabab nahi atay Faraz,
Koi dewana tah-e-khak tarapta hoga...
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Main Ne Jis Shaakh Ko Phoolon Se Sajaya Tha Faraz,
Mere Seenay Main Ussi Shaakh Ka Kaanta Utra..!!
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Hum Na Badlein gay waqt ki raftaar kay sath Faraz
Hum jab b milen gay andaaz purana hoga
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Bara Andhera Tha Un Ki Rahoon MEin Ay Dil FARAZ
Mein Apna Ghar Na Jalata To Aur Kia Kerta
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Humne Mehboob Jo Badla To Taujab Kesa FARAZ
Log Kafir Se Musalman Bhi To Ho Jate Hain
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Wo bhi ro de ga usay haal sunaye'n kese
Maum ka ghar hy chirago'n ko jalaye'n kese
Duur hota tou usay dhoond bhi lete 'Faraz'
Rooh main chup k jo betha hy usay paaye'n kese ...
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Maine toh Apni Tanhaiyon se Tang aakar Dost banane The***FARAZ***
Dost bhi aisay milay k Mujhey Aur Tanha Kar GAye...
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Mujhe ghuroob na jano jo main ufaq pay nahi....faraz
Bikher gaya hoon andheron main kehkasha ki tarah...
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Bahana Kyun Tarasha Rooth Jane Ka 'Faraz'
Bas Itna Keh Dete K Dil Main Jaga Nahi Rahi
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kab mujh ko aiteraaf-e-muhabbat na thaa 'Faraaz'
kab main ne ye kahaa thaa sazaayain mujhe na do
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** Pehle Tarasha Us Ne Mera Wajood Sheeshay Se
~FARAZ~
Phir Zamane Bhar K Hathon Main Pathar Thama Diye **
---------------------------
Hum Suna Rahay Thay Apni Bewafai Ki Qissa
~FARAZ~
Afsos Is Baat Ka Oroon Ne To Wah Wah Kya Unhone Bhi Wah Wah Kya
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Pani Main Aaks Dekh Kar Khush Ho Raha Tha
~FARAZ~
Pather Kisii Nay Mar Kar Manzar Badal Deaa
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Ae Insaan Ibn-E-Aadam Se Nanga Aya Hai To
~FARAZ~
Kitna Safar Kya Hai To Ne 2Ghaz Kafan K Liyee
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Akele To Hum Pehle Bhi Jee Rahe The~FARAZ~
Kyu Tanha Se Ho Gaye Hai Tere Jane Ke Baad
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Ek hi zakhm Nahi sara Badan zakhmi Hai
~FARAZ~
Dard Hairan Hai ke Uthun To kahan sE uthu
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Sub Roshnian muj say Roth gain Yeh kah kar.!~FARAZ~
Tum Apney Ciragon ki Hifazut nahi Kartey.!
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Tamam Umar Mujhe Tootna Bhikarna Tha....~FARAZ~
Wo Meherbaan Bhi Kahan Tak Samet Tha Mujhe....
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Loog Kehtay Hain k Mulaqat Nahi Hoyi,~FARAZ~
Hum tu Rooz Miltay Hain Lekin Baat Nahi Hoti....
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Main jo mehka to meri shaakh jala di us ne~FARAZ~
Sabz mosam main mujhey zard hawa Di us ne
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Toot kar choobh Raha hai Aankhon mai~FARAZ
Aaeena To Nahi Tha khuaab Mera
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Tumhari dunia me hm jese hazaaron hen faraz
Hum hi pagal the jo tumhay paa k itraanay lagay
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dagh daman k ho'n, dil k ho'n k chehre k Faraz
kuch nisha'n umr ki raftar se lag jate hain
---------------------
Ishq ki rah main do hi manzilain "FARAZ"..
Ya dil main utar jana, Ya dil sey utar Jana
----------------
Ankh Masruf e Nazara thi to Hm khush thy Faraz
Tum ney Kia Zulm Kia Dil mein Thikana Ker K...!
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Tere khuloos ne barbaad kr diya hy Faraz

Fareb dety to kab k Sambhal Gaye Hote

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Tumhari dunia me hm jese hazaaron hen faraz
Hum hi pagal the jo tumhay paa k itraanay lagay
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dagh daman k ho'n, dil k ho'n k chehre k Faraz
kuch nisha'n umr ki raftar se lag jate hain
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Ishq ki rah main do hi manzilain "FARAZ"..
Ya dil main utar jana, Ya dil sey utar Jana
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Ankh Masruf e Nazara thi to Hm khush thy Faraz
Tum ney Kia Zulm Kia Dil mein Thikana Ker K...!
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Tere khuloos ne barbaad kr diya hy Faraz

Fareb dety to kab k Sambhal Gaye Hote

बशीर साहिब- चुनिन्दा शायरी

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,

न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए।

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा,
इतना मत चाहो उसे वो बे-वफ़ा हो जायेगा।

हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जायेगा।

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिंदा न हों।

एक दिन तुझ से मिलने जरूर आऊंगा
जिंदगी मुझ को तेरा पता चाहिए।

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।

पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आंखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते।

तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था,
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला।

जिस पर हमारी आंख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही क़ाग़ज उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं।

कुछ तो मजबूरियां रही होंगी,
यूं कोई बेवफ़ा नहीं होता।

जैसे सर्दियों में गर्म कपड़े दे फ़क़ीरों को,
लबों पे मुस्कुराहट थी मगर कैसी हिकारत सी।

अजीब शख्स है नारा होके हंसता है,
मैं चाहता हूं ख़फ़ा हो, तो ख़फ़ा ही लगे।

देने वाले ने दिया सब कुछ अजब अंदाज से,
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं।

मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं,
हाय मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैं।

हम अभी तक हैं गिरफ़्तार-ए-मुहब्बत यारों,
ठोकरें खा के सुना था कि सम्भल जाते हैं।

मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो,
मेरी तरह तुम भी झूठे हो।

कभी हम भी इस के क़रीब थे, दिलो जान से बढ़ कर अज़ीज थे,
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला ना हो।

कभी धूप दे, कभी बदलियां, दिलोजान से दोनों कुबूल हैं,
मगर उस नगर में ना कैद कर, जहां जिन्दगी की हवा ना हो।

Wednesday, June 25, 2014

शाम सवेरे

यह शाम
सुहानी कितनी लग रही।
बहने लगी फिर से-
मंद सुगंध हवा और साथ
चहचहाने लगीं चिड़ियाँ।
रंग क्षितिज पर इन्द्रधनुषी सा
बिखर पास अपने बुला रहा।

थकान दिन भर की,
पसीने दुपहरी के
सब घुल मिल - सिरहन सी दौड़ा रहे।
बस पानी देना रहा बाकी
कहते फूल बगिया के मेरे।

हौले-हौले तन जायेगी
चादर काली रात की।
जगमगा उठेंगे जुगनूओं से
टिमटिमाते चाँद तारे।
फिर ढल रात, निखरेगी
एक नए  सवेरे में।

सोचता हूँ-सुस्ता लूं थोड़ा
एक नए दिन के लिए
जो आयेगा उम्मीदें नयी लिए।
पर फर्क कहाँ नजर कोई आया
शाम हो या सवेरा
एक ढलता तो दूजा चढ़ता
मेरे इस सफर में।
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रूढीयाँ



सारे घर में घूमती रहती
निःसंकोच, निर्भय;
पैरों में बंधे घुंघरू,
बजते रहते-छन, छन, छन।
एक पल भी बैठती नहीं
पास मेरे चैन से-
बीच कदमों से निकल भागती।
खाना दो तो-कतरा जाती,
जाने कुछ ढूंढ रही, घर में मेरे
बस घूमती ही रहती बेचैन सी
छन, छन, छन।

अनायास ही कूद खिड़की
जाने कहाँ चली जाती। 
धीरे-धीरे आवाज़ घुंघरूओं की
कमजोर पड़ने लगती-
बस दूर तक-देखता उसे मैं
ओझल होते लाल-पीले फूलों से
दूर लहलहाती झाड़ियों की ओट से।
काले, भूरे चितकबरे रंगों की
सफ़ेद स्याह, वह बिल्ली।

फिर अचानक चौंक कर
उठ पड़ता- गहरे स्वप्न से
देखता पास खड़ी
घूरती-लाल  लाल आँखों से
अजीब सी, डरावनी-
पर भोली-भाली, प्यारी बिल्ली।
--------------
25 जून 2014

Tuesday, June 24, 2014

तबाही

पहाड़ों पर बारिश-
इतनी तो हुई ही नहीं ।
फिर नदी यह
उफन रही - क्यों इतनी?

तोड़ किनारे अपने सब
रास्तों को लगी बहाने,
ढहाने लगी दीवारें घरों की
डुबो रही खेत खलिहान।

कहते हैं- सदियों पहले
उठे थे लपलपाते शोले
इन पहाड़ों पर बसे जंगलों से।
काले भयावह धुंए ने
 ढांप दिये सूरज चाँद।
चारों तरफ फ़ैल गयी चादर अंधियारी
ना कुछ दिखता, ना ही सूझता।
कुछ झुलस स्वाहा हुए
और कुछ घुट बदहवास।

लगता है- धूंआ वही अब
बादल बन बरस रहा।
वरना नीयत ही नहीं -
नदी की किनारे तोड़ने की।
ना ही नीयति गावों की
देर सबेर बह जाने की।
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24-06-14

Tuesday, June 17, 2014

लोग तो -

लोग तो हाथ दोनों उठाकर भी, झूठ सफ़ेद बोल देते हैं,
तुम एक हाथ उठा देख, किस सच की उम्मीद लगाए बैठे हो।

लोग तो गले मिल कर भी, ज़ख्म गहरा दिल पर लगा देते हैं,
तुम सर झुका देख उनका, किस वफ़ा की तलाश में बैठे हो ।

लोग तो कहकहों से, आँसू हज़ार दामन में बिखेर देते हैं,
तुम हल्की सी मुस्कान पर किसकी, दुनिया अपनी लुटाये बैठे हो ।

लोग तो मौका मिलते ही, याराना सदियों का भुला बैठते हैं
तुम पल पल याद कर, कोशिश में किसे भूलाने बैठे हो ।

उसके लिए-

वो जानता - कहाँ सजाना मुझे
शब्द एक मैं उसके लिये -
नित नए भावों में सजा मुझे
कविता अपनी निखार रहा ।

तलाश कर रहा वह - एक नयी धुन
स्वर एक मैं, उसके  लिये -
साज पर अपने तरंगों में सजा
कविता में प्राण नए फूंक रहा ।

देखा है मैंने उसे - खींचते आड़ी तिरछी रेखाएं
रंग एक मैं,  उसके लिए -
तूली पर अपनी सजा
सपनों को आकार इन्द्रधनुषी दे रहा ।

लहरों सा बार बार भेजता मुझे
कभी सीपी देकर, तो कभी मोती
सब कुछ किनारे धर बेकल सा मैं 
बार बार लौट - समा जाता उसमें ।

हाय री किस्मत-

बोल पर मेरे मत जाओ
अचानक मिले जो तुम,
चौंका दिया मुझे
आज पहली बार।

रोता बिलखता छोड़
जाने कहाँ गुम हो गए - निर्मोही ।
आज साथ ले जाने को
इतने क्यों तत्पर ?

जाने गिले - शिकवे कितने,
कितने किस्से अधूरे- कहने तुमसे ।
कहाँ-कहाँ भटकता, ढूँढता
नहीं फिरा मैं।
कोई पता भी ना दिया
पूछूं  तो किससे पूछूं  ।
ना मुझे कोई यहाँ जानता,
ना तुम्हें कोई पहचानता,
कहो - कहाँ ओझल हो गए तुम?

मनमीत मेरे-
मैं ही जानता - कटे कैसे मेरे दिन रात।
वो निश्छल चेहरा तुम्हारा, वो कोमल स्पर्श
वो मीठे बोल , वो सपने सुहाने
समय की धार पर - सब धुलते गए।
जाने कितनों से मिला और कितनों से बिछड़ा
कितना संजोया, और लुटाया
कभी मुस्कुराता तो कभी पोंछता आँसू
जहां भी रहा - एक टीस सी रही
मन के अन्दर
और मन के  कोने में
इंतज़ार तुम्हारा।

आंसूओं पर मेरे मत जाओ
मुझे ही नहीं मालूम
घुले हैं इनमें ना जाने
कितने खुशी और कितने गम।
देख तुम्हें आज अचानक यहाँ
इतराऊँ  या कोसूं किस्मत अपनी?
साथ अपने ले चलने का
कर रहे हो वादा या
फिर किसी और मेले में
छोड़ बिलखता-
ओझल होने का तो
नहीं कोई इरादा?
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अधूरा स्वप्न

एक अधूरा स्वप्न, हो तुम.
साथ साथ मेरे - फिर भी 
रोम रोम मेरे सिहर रहे.
मैं जहां भी रहूँ - जो भी करूं 
संग मेरे - रहते हो तुम.

अभी अभी  - जो छू कर गयी 
अभी अभी - जो छल कर गयी 
नित नए रंगों में ढल, आते - जाते 
पल पल नूतन - स्पर्श हो तुम. 

कोई मेरे आगे, कोई मेरे पीछे
भीड़ में मैं , मुझमें भीड़ 
कोई कहता कुछ , कोई सुनता कुछ
मन का मेरे शांत - कोलाहल हो तुम.  

ना मैं तुमसे अछूता , ना तुम मुझसे 
परे परे रहकर भी , एक दूसरे को निहोराते 
सब कुछ संजोया मेरा- बिखर सा जाता 
दर्पण में छिपा , एहसास मेरा हो तुम.
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जीवन कल

बार बार भेजता
सागर लहरों के रेले. 
किये थे जिन्होंने 
कभी पर्वतों को 
रेतीले टीले . 
अब सर धुनता सागर 
जब सोख लेते , 
हर लहर 
वही रेतीले टीले. 
परिसीमित कर दिया 
सागर का अहम्, 
समय के फेर ने.

काँप गया , 
तूफ़ान का जोर 
बिजली सी दौड़ा दी ,
आसमान में 
जब देखा 
हल्की सी हवा में 
टूटते पत्ते को 
मिट्टी बन , 
मजबूत करते जड़ों को. 

हर महाविनाश पर , 
बोया जा रहा 
बीज नया 
संचार होता नवजीवन 
रोक नहीं पाया कोई 
निर छल, निर्मल , 
पावन-पल पल 
समय की 
मद्धम धार
अविरत , 
अनंत और अगाध.
----------------------------

महक
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महक मेरे मन की - 
अब तक छिपी हुई - 
सीप में मोती सी.
कभी निकलने को बेकल 
कभी डरी सहमी सी- 
गुमसुम. 
मुठ्ठी में क़ैद - 
एक जुगनू बिखेरता 
चमक अपनी. 
बेखबर क़ैद से-
अनजान दिन से . 
जाने कहाँ तक 
फैले खुशबू.
जाने कब तक 
रहे चमक. 
ना रोके रुकती खुशबू 
ना बांधे बंधती चमक. 
कोई होड़ नहीं खुशबूओं में 
मदमस्त बहती  
तरंगों पर हवाओं 
के साथ छिप जाती 
कलि में फिर
फूल से बिखरती . 
चमक चमकती पेड़ों पर 
अनजान अपनी ही 
पहचान से. 
महक मेरे मन की 
बेकल-छिपी हुई... 
बेकल बिखरने को ..

----------------------

गुलदस्ता

गुलदस्ते में सजे फूल
काट-छांट कर सजाये हुए।
कट गयी हैं जड़ें किसी की
तो कट गयी- शाख, पत्ती किसी की।
खुशबू से सरोकार नहीं किसीको
सब हैं रंगों को देख बेकाबू।

कभी नहाते थे फूल यही- 
रौशनी सूरज चाँद की में
अब चुंधिया से जाते-
देख टिमटिमाती दुकान की रौशनी।
आंधी, तूफ़ान, बिजली-
देख कभी ना ये लरजे।
अब काँप से जाते-
देख मंडराते भौंरे, तितली।
कोइ सिहर सा जाते, कोई लजा सा जाता 
पाकर हल्का सा स्पर्श।
जाने कौन देश इनका
जाने कौन सी मिट्टी पानी-
रंग बिखेरते सब,
सजे यहाँ - एक गुलदस्ते में।

खाना - पीना मिलता,  मुस्कुराने भर को
इजाजत नहीं मुरझाने की।
बाजार भरा खरीददारों से,
नीलामी कहीं, तो कहीं होते मोलभाव।
मतलब निकल जाने भर का इन्तजार
खरीददारों को- गुलदस्ते से।
फिर फेंक देते सजाने- ढेर कचरे के।

क्यों सिहर जाता मैं- क्यों मुस्कुराते तुम
देख दुकान पर- रंग बिरंगा गुलदस्ता।
--------------

सुलगती जिन्दगी...

मन के ख्यालों से
उठता है धुँआ-
सब कुछ कर देता धूमिल।
सूझने समझने की कोशिशे
घुट सी जाती।

इसी धूएँ की परत दर परत ऊपर
बिखरे हैं बादल सपनों के-
उजले सफ़ेद जगमगाते से दिखते
जब भी किरण आशा की
छन कर आती इनसे।

बरसेंगे बादल, यकीन है मुझे-
चल रही मंद सुगंध
मेरी चाहत की हवा।
छट जाएगा धुँआ
दूर हो जायेगी बेचैन घुटन।

थोड़ा सा इन्तजार,
थोड़ा सा सब्र
भर रहा हूँ साँसों से
अपने इस-सुलगते जीवन में।
---------
09जून 14

Monday, February 24, 2014

मुसाफिर

परियों के देश से
जब भी आता वह-
पिश्ते, बादाम, खजूर के साथ
कथा परियों की सुनाता जाता।

आजकल बड़ा उदास रहता वह
पूछो तो -
मुठ्ठी भर रेत उड़ाता और
रूह तक मेरी
रुला जाता वह।
-----------
14 Feb 14

Friday, February 14, 2014

सपने

परियों के देश से
जब भी आता वह-
पिश्ते, बादाम, खजूर के साथ
कथा परियों की सुनाता जाता।

आजकल बड़ा उदास रहता वह
पूछो तो - रूह तक मेरी
रुला जाता वह।
-----------
14 Feb 14

Thursday, February 13, 2014

मनमीत

हाय री किस्मत-

बोल पर मेरे मत जाओ 
अचानक मिले जो तुम,
चौंका दिया मुझे
आज पहली बार।

रोता बिलखता छोड़ 
जाने कहाँ गुम हो गए - निर्मोही ।
आज साथ ले जाने को
इतने क्यों तत्पर ?

जाने गिले - शिकवे कितने,
कितने किस्से अधूरे- कहने तुमसे ।
कहाँ-कहाँ भटकता, ढूँढता
नहीं फिरा मैं।
कोई पता भी ना दिया
पूछूं  तो किससे पूछूं  ।
ना मुझे कोई यहाँ जानता,
ना तुम्हें कोई पहचानता,
कहो - कहाँ ओझल हो गए तुम?

मनमीत मेरे-
मैं ही जानता - कटे कैसे मेरे दिन रात।
वो निश्छल चेहरा तुम्हारा, वो कोमल स्पर्श 
वो मीठे बोल , वो सपने सुहाने
समय की धार पर - सब धुलते गए।
जाने कितनों से मिला और कितनों से बिछड़ा
कितना संजोया, और लुटाया
कभी मुस्कुराता तो कभी पोंछता आँसू
जहां भी रहा - एक टीस सी रही 
मन के अन्दर
और मन के  कोने में
इंतज़ार तुम्हारा।

आंसूओं पर मेरे मत जाओ
मुझे ही नहीं मालूम
घुले हैं इनमें ना जाने 
कितने खुशी और कितने गम।
देख तुम्हें आज अचानक यहाँ
इतराऊँ  या कोसूं किस्मत अपनी?
साथ अपने ले चलने का
कर रहे हो वादा या
फिर किसी और मेले में
छोड़ बिलखता-
ओझल होने का तो 
नहीं कोई इरादा?
-----------------------------
12 Feb14



Tuesday, February 11, 2014

Let it Go


Let it go
My friend
The moment has gone.
So sweet so ephemeral
Yet precious.
How long should we wait 
Chances that life gives
Chances that it takes away
In a blink of eye
And 
Why did I choose this path.
..But it will be all the same...
You said, He said
Its all the same.
Shadows from forest
Flying upwards 
Darkening the clouds

Raising waves to engulf
And embrace.
Life with all its vastness
Pristinity and love.

.

बदलते मौसम

उस दिन मौसम बर्फीला रहा
धीमे- धीमे आसमान से
गिर रहे थे अगिनत बर्फ के फोहे।
रंग सारे घुल सफेदी में ढल रहे
चादर सफेदी की तन रही चहुँ और।
खिड़की से नजारा साफ़ नज़र आता
किलकारियां बच्चों की मन को मगन कर रही
कोई बरफ के  गोले फेंकता
कोई घरोंदे बनाता
सब हिलमिल आनंद में झूमते।
अचानक आसमान पर देखा किसीने
सभी झुंड में भागते नजर आये
मैंने भी नज़र उठाई-देखा ध्यान से
एक पंख लहराता झोंके पवन के संग
धीरे धीरे नीचे उतर रहा।
रंग पंख का नज़र नहीं आ रहा
चारों तरफ फोहे बरफ के  चिपक रखे
कुछ उड़ जाते तो, कुछ और चिपक जाते
कभी तेजी से नीचे आता तो
अगले ही पल थोड़ा ऊंचा उड़ जाता।
होड़ सी मच रही सारे बच्चों में
कभी आगे भागते, कभी रुक जाते
फिर ऊपर ही देखते देखते पीछे को होते
कोई गिर जाता तो अगले ही पल
बरफ झाड़ उसी उत्साह से फिर भागने लगता ।
पर पंख इन सबसे अनजान
हवा के  संग संग अठखेलियाँ खेलता
अपनी ही धुन में दूरी तय कर रहा।
आसमान पर देखा मैंने , सबकुछ साफ़
ना कोई चिड़िया, ना कोई पखेरू
फिर पंख यह कहाँ से आया?
शायद बाज़ कोई दबोच किसी को
नोच दिया पंख, भूख अपनी मिटाने
उड़ गया दूर कहीं, बैठा होगा
किसी एक पेड़ पर।
पर बच्चों को इन सबसे क्या
वो तो इसी इन्तजार में- कब यह हाथ लगे
और पकड़ इसे दूर तक भागें
जैसे भागता खिलाड़ी कोई
जीत ट्राफी खेल के मैदान में।
आंखमिचोली हवा की बढाती बेचैनी बच्चों की
मैं भी इसी इन्तजार में
किसके  हाथ पंख यह लगे।
अभी अभी जो हिलमिल खेल रहे
जुट गए जाने कैसी होड़ में।
पंख को देर है अभी
कोई जल्दी नहीं- जमीन को छू ने
पर भगदड़ सी मची जमीन पर।
पर देखता रहा खिड़की से मैं
बदलता मौसम,बदलते अंदाज।
सोचता रहा मन कहाँ से आया पंख
इस बर्फीले तूफ़ान में चिड़िया कोई
भूल अपना नींड़, भटक तो नहीं रही
झटक पंखों से बरफ- हल्की हो
बेचैन सी, बेबस दिशाहीन
पर दूर तक  क्षितिज पर- सब कुछ शून्य।
ठीक से दिखता भी कहाँ
मौसम ही कुछ ऐसा - मिजाज अपना बना बैठा।
शोर अचानक सुन कर ध्यान मेरा बंटा
बच्चे एक के  ऊपर एक बेतहास
जाने किसके हाथ पंख लगा
या बस यूं ही जमीन कुरेद रहे।
नहीं- कोई तो हाथ ऊपर कर
पंख दिखा भाग रहा-पर
किसी दूसरे ने उसे धक्के से दिया गिरा
छीन पंख वह बहादुरी अपनी दिखा रहा
साथ हो लिए दो तीन और
दूसरों से उसे बचा रहे।
देखते देखते गुट दो बन गए
बर्फ के  गोले कुछ पल पहले
एक दूसरे पर शैतानी से फेंक रहे
वही अब निशाने साध जाने दुश्मनी कोई निकाल रहे।
गूँजती किलकारियाँ चीख चिल्लाहट में बदल गयीं।
कोई ताने कास रहा तो कोई खीजा रहा
कोई मूंह चिढ़ा रहा तो कोई हूंकार भर रहा
मैदान खेल का रणभूमी में बदल गया।
एक दूसरे पर आपस में लगे झपटने
कोई कपड़े खींच रहा, कोई बाल
कोई थप्पड़ मार रहा, कोई मुक्का।
मैं हक्का-बक्का सा खिड़की पर खड़ा
तेजी से दरवाजे को भागा
दो तीन पड़ोसी और अपने अपने घरों से निकले
खेल खेल में वक़्त ने कहाँ से कहाँ ला पहुंचाया।
कोई बच्चा रो रहा, तो कोई शिकायत करता
कोई कपड़े झाड़ रहा, तो कोई आँखें दिखा रहा।
धीरे धीरे घर को अपने सब पहुंचे।
पल में ही मैदान सारा सूना
किलकारियां खामोशियों में ढल गयीं
वापस घर को मुड़ा तो
देखा पंख बरफ के गोले से झाँक रहा
हाथ में ले उसे, बरफ उसकी झाड़ी
रंग रूप पर उसके ध्यान ही कहाँ गया
दूर दूर तक नज़र पहुंचाई
दूर पेड़ एक पर शायद आँखें दो नज़र आयीं।
कहीं यही वो बाज़ तो नहीं , भूख अपनी मिटा

आनंद ले रहा कोलाहल का
पलक झपका झपका कर देख रहा
आनंद मगन बच्चों का समरांगण।
वो भटकी चिड़िया तो नहीं
थकी हारी बैठ पेड़ पर
भीतत्रस्त देख कोलाहल।
गोला बरफ का मैंने भी एक बनाया
फेंकना चाहा पेड़ की डाल पर
हाथ अनायास ही रुक गए
ओझल होगयीं आँखें गुम हो गया पेड़
छूट  हाथ से गिरा बरफ का गोला
वहीं कहीं दब कर रह गया पंख
चुपके से घर में दाखिल हुआ
देखने लगा फिर
फोहे सी गिरती बरफ
अब मैं भी ज़रा सा डरा सहमा
फिर नज़र ना आ जाए कोई पंख
शून्य से गिरता, हवा में झूमता
बोझिल अपने ही भार में
बंद कर लूं खिड़की और
फेर लूं मूंह सत्य से
कितना बेकल कर रहा मन को मेरे
अभी अभी जो इतना रहा प्रफुल्ल
और हो गया इतना व्याकुल।
--------------
4feb14
बसंत पंचमी

कोरा कागज

कोरा कागज़ लिया फिरता
आंकता जब भी तस्वीर कोई
साँसे भरता उनमें
और ओझल हो जाती-अगले पल।
बस मुस्कुरा कर देखता
हवा में तैरती-
धुआँ बन लहराती तस्वीर।

अब भरने लगा कागज कोरे
ख्यालों में उभरते बोल
गूँजते रहते काली गुफा में
गम हो जाते सूरज के उगते
और रह जाता कोरा कागज
कोरा का कोरा।

सूना है आजकल फिर रहा
वीरान रेगिस्तान में बन एक मरीचिका
आड़ी तिरछी खींचता रहता लकीरें
कभी दूब तो कभी बादल
कभी सितारे तो कभी ताल तलैया
आँकता रहता
भर रहा साँसे उनमें
यायावरी में बिखेरता गया
बस अब भी साथ उसके
अनेकों ख्याल और कोरा कागज़।
------------
10 Feb 14

तरकश

बींध छलनी कर दिया
हर तरफ से चलते शब्दों के बाण।
जहर में सने- तीर जहरीले
सन-सन कर आते 
कर देते सब कुछ सुन्न।
भावहीन, अर्थहीन, संज्ञाहीन-
चले जा रहे हर दिशा।
ना ही लक्ष्य ना कोई पथ
बवंडर सा मचा रखा सबने।

सरों की शैय्या पर लिटा
चारों तरफ घेर रखा मुझे
चापलूस, मतिहीन, स्वार्थी
लगे हैं अपना पौरुष जताने।
किस बाण ने आहत किया
किसने लगाया मरहम
संवेदनहीन शरीर - सबसे अनभिज्ञ,
सारी इन्द्रियाँ निष्क्रिय।

कोई अर्थ बटोरने में
कोई पोटली धर्म की खोले
कोई सपने विकाश के दिखा रहा
कोई कोरे ज्ञान मांज रहा।
सब कुछ देख सकता मैं
पर एक लकीर शिकन की माथे पर नहीं
ना ही लबों पर तैरती मुस्कान।
बस पुतलियाँ इधर से उधर
देख रही अगिनत चलते बाण।

एक लचीला धनुष
छिपा रखा जाने कहाँ तरकश
अनर्गल बौछारें करता जा रहा
जैसे बूंदे टपकती बारिश से।
जमीन पर एक गिरती
तो हजारों उसमें से फिर उछलती
परत दर परत छलनी कर रहीं
उग्र से उग्रतर होती जा रहीं।
---------
10 Feb 14