Tuesday, June 17, 2014

जीवन कल

बार बार भेजता
सागर लहरों के रेले. 
किये थे जिन्होंने 
कभी पर्वतों को 
रेतीले टीले . 
अब सर धुनता सागर 
जब सोख लेते , 
हर लहर 
वही रेतीले टीले. 
परिसीमित कर दिया 
सागर का अहम्, 
समय के फेर ने.

काँप गया , 
तूफ़ान का जोर 
बिजली सी दौड़ा दी ,
आसमान में 
जब देखा 
हल्की सी हवा में 
टूटते पत्ते को 
मिट्टी बन , 
मजबूत करते जड़ों को. 

हर महाविनाश पर , 
बोया जा रहा 
बीज नया 
संचार होता नवजीवन 
रोक नहीं पाया कोई 
निर छल, निर्मल , 
पावन-पल पल 
समय की 
मद्धम धार
अविरत , 
अनंत और अगाध.
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महक
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महक मेरे मन की - 
अब तक छिपी हुई - 
सीप में मोती सी.
कभी निकलने को बेकल 
कभी डरी सहमी सी- 
गुमसुम. 
मुठ्ठी में क़ैद - 
एक जुगनू बिखेरता 
चमक अपनी. 
बेखबर क़ैद से-
अनजान दिन से . 
जाने कहाँ तक 
फैले खुशबू.
जाने कब तक 
रहे चमक. 
ना रोके रुकती खुशबू 
ना बांधे बंधती चमक. 
कोई होड़ नहीं खुशबूओं में 
मदमस्त बहती  
तरंगों पर हवाओं 
के साथ छिप जाती 
कलि में फिर
फूल से बिखरती . 
चमक चमकती पेड़ों पर 
अनजान अपनी ही 
पहचान से. 
महक मेरे मन की 
बेकल-छिपी हुई... 
बेकल बिखरने को ..

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