प्रेम
30 04 15
शाम का धूँआ-धूँआ स
घाटी के चारों तरफ पहाडियाँ
अधनंगे से नीले काले धरे रूप
काट ली गयी फसलें।
कुछ इंसानों के काम संजोई गयीं
तो कुछ मवेशियों के लिए।
बचे रह गए ठूँठ
उड़ रहे -पंछी चहकते से
होड़ लगाने टुकड़ी बदली के
बस कुछ देर की बात
फिर सन्नाटा ही सन्नाटा।
गुबार सा उठता, उफनता-घुल जाता हवाओं में
बुलबुले सा पल में-मिल जाता पानी में
छोड़ जाता हल्की सी कंपन
समो लेती धरती-थरथर्रा जाती
बहा ले जाती हवाएँ-थरथर्राहट
टकरा पहाड़ियों से गूँज बन उभरती।
30 04 15
शाम का धूँआ-धूँआ स
घाटी के चारों तरफ पहाडियाँ
अधनंगे से नीले काले धरे रूप
काट ली गयी फसलें।
कुछ इंसानों के काम संजोई गयीं
तो कुछ मवेशियों के लिए।
बचे रह गए ठूँठ
उड़ रहे -पंछी चहकते से
होड़ लगाने टुकड़ी बदली के
बस कुछ देर की बात
फिर सन्नाटा ही सन्नाटा।
गुबार सा उठता, उफनता-घुल जाता हवाओं में
बुलबुले सा पल में-मिल जाता पानी में
छोड़ जाता हल्की सी कंपन
समो लेती धरती-थरथर्रा जाती
बहा ले जाती हवाएँ-थरथर्राहट
टकरा पहाड़ियों से गूँज बन उभरती।
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