Sunday, April 21, 2019

टिड्डियों का दल



एक दीवार-घनी अंधियारी 
सरकती रही - खनखनाती।

छिप गए, कुछ -
भयभीत, लाचार बन।
कुछ - तैयारी में
विनाश का विनाश करने तत्पर।
कुछ- शांत, नीरव, अनभिज्ञ-
निर्लिप्त नशीले स्वप्न में।

दूर से, दिख रहा
बढ़ता घना अंधियारा -
अपनी ही धुन में, गहराता हुआ
लपलपाती जीभें
निगलने को।
अंगारे उगलती, तीसरी आँख-
भस्म करने।

सोच सबकी-एक,
फिर रौंदे जाएंगे 
पेड़, पहाड़, नदी, नाले,
बस जाएगी वीरानी

अजीब सी गूँज,
कानों को सबके बींधती।
बस दुबक देख रहे, सहमते से -
जाने कब गुजरे यह बदहवासी।
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05Jan 2019

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