अब लोग-
कानों से सुनते हैं,
आँखों से बोलते,
और
मुंह से देखते|
समझाने भी अब कौन जाए
दिमाग की नसें सारी
उलट पुलट हो चुकी हैं |
जो पवित्र है, सच्चा है
उसे अपवित्र बना, झूठा कहलाते -
बस व्यस्त हैं ,
बुरे को भला करने में |
सीधे रास्तों पर भी
इनकी चालें, टेढ़ी- मेढ़ी
मरीचिका में तलाशते
झील कोई, मीठे पानी की |
तरक्की की आग में
तिलांजली देते मूल्यों की
सर्वनाश के कगार पर
सदियों की सोच|
इक हल्का सा झोंका मैं
पानी के बुलबुला सा- क्षणिक
तूफ़ान की सोच में
चल पड़ा हूँ-
क्षितिज के इस मोड़ से |
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एक परिंदा
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रोज शाम को देखता मैं
इस परिंदे को
इसी मुंडेर पर
गुनगुनाते रहता |
कभी देखता मुझे - टिमटिमाती आँखों से
तो कभी नजरें कहीं और |
गर्दन हिलाते, पंख फड़फड़ाते
जाने कितनी बातें कर जाता |
दिन भर की बातें
खट्टी
मीठी कहानियों से भरी |
पर सब -
मेरी समझ से परे |
मैं भी उससे बतियाता-
उसकी आँखों में आँख मिलाता
और साथ गर्दन हिलाता |
पूछता उससे -
बसेरा क्यों नहीं
अब तक बनाया ?
खाने को दाने भी देता |
रोज सुबह देखता- दाने वैसे ही नजर आते
और परिंदा नजर से ओझल होता जाता |
सोचता मैं - आज उसने
बसेरा नया ढूंढ लिया होगा
पर शाम को- फिर वही मुंडेर पर
इन्तजार में मेरे
परिंदा नज़र आता | .
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