Sunday, April 21, 2019

क्षितिज के मोड़ से...

अब लोग-
कानों से सुनते हैं,
आँखों से बोलते,
और
मुंह से देखते|

समझाने भी अब कौन जाए
दिमाग की नसें सारी
उलट पुलट हो चुकी हैं |

जो पवित्र है, सच्चा है
उसे अपवित्र बना, झूठा कहलाते -
बस व्यस्त हैं ,
बुरे को भला करने में |

सीधे रास्तों पर भी
इनकी चालें, टेढ़ी- मेढ़ी 
मरीचिका में तलाशते 
झील कोई, मीठे  पानी की |

तरक्की की आग में
तिलांजली देते मूल्यों की 
सर्वनाश के कगार पर
सदियों की  सोच|

इक हल्का सा झोंका मैं
पानी के बुलबुला सा- क्षणिक
तूफ़ान की सोच में
चल पड़ा हूँ-
क्षितिज के इस मोड़ से |
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एक परिंदा
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रोज शाम को देखता मैं
इस परिंदे को
इसी मुंडेर पर
गुनगुनाते  रहता |

कभी देखता मुझे - टिमटिमाती आँखों से 
तो कभी नजरें कहीं और |
गर्दन हिलाते, पंख फड़फड़ाते 
जाने कितनी बातें कर जाता |
दिन भर की बातें
खट्टी 
 मीठी कहानियों से भरी |
पर सब -
मेरी  समझ से परे  |

मैं भी उससे बतियाता-
उसकी आँखों में आँख मिलाता
और साथ गर्दन हिलाता |
पूछता उससे -
बसेरा क्यों नहीं 
अब तक बनाया ?
खाने को दाने भी देता |

रोज सुबह देखता- दाने वैसे ही नजर आते
और परिंदा नजर से ओझल होता जाता |
सोचता मैं - आज उसने 
बसेरा नया ढूंढ लिया होगा
पर शाम को- फिर वही मुंडेर पर
इन्तजार में मेरे
परिंदा  नज़र आता | .
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