Sunday, April 21, 2019

कुछ भी नहीं

जला होगा जंगल कोई
सदियों से सदियों तक
तभी बिछा यह
मीलों तक वीरान रेगिस्तान।
रोया होगा आसमान
सदियों पहले सदियों तक
तभी मचल रहा यह
मीलों विशाल सागर।
समुंदर के किनारे से ही समुंदर पर
खींच दी आड़ी तिरछी लकीरें
लहरें - क्षितिज से उमड़-घुमड़ निकलती
किनारे तक आते-
देख बांटने की कोशिशें
डर होती धराशायी -
फिर समा जाती समुंद्र में
बस - शोर हवाओं में घोल देती
बतियाती मरुधर की हवाओं से
पाटती है दूरीयाँ
इन दोनों के बीच
कभी गर्म हवा
तो कभी उमड़ती लहरें।
बवंडर बन दूर गगन तक जाती
कुछ सूखी बालू, कुछ खारा पानी
ऊपर जाते - अद्भुत मिलन गगन में।
पर जमीन तक आते-आते
अलग-अलग और फिर जुट जाते
एक दूसरे को निगल जाने की
विचित्र सी एक होड़।
नागफनी में लिपटे लोग
कुलबुला रह जाते
ना तो जमीन मिलती
ना ही प्यास उनकी बुझती।
कांटो के उगने का एहसास नहीं।
चुभ जाते किसी के -
तो  बरपता कहर।
अजीब सी भूख इनमें
पता ही नहीं चलता
कौन कब किसे दबोच
अधमरा कर छोड़ दे
सिंच जाती जमीन -
लाल रंग में
उग जाते नागफनी  कुछ और-
और हिंस्त्र, और घातक
सोख लेते सब कुछ
भागने को कदम उठाते
राह कोई नहीं -
हर तरफ तपती जमीन
कोई धँस जाता रेत में
कोई बदहवास मृगतृष्णा में
मंडरा रहा गिद्ध - गगनचर
तीक्ष्ण आंखें, पैनी चोंच
कोई नहीं इससे छुपा
गर्म हवा संग हिंडोले लिए
उठता ऊपर और ऊपर
अजीब सी उमंग - सिहर रही
रग-रग में इसके
जानता यह - सब देख रहे क्षितिज
जहाँ आगोश में ले रहा
आसमान जमीन को।
इसी मिलन को देखने की चाह में
जब भी आगे बढ़ते
सरक जाता- कुछ दूर औऱ क्षितिज
अधूरा रह जाता मिलन
मदहोश सब- कोई मृगतृष्णा में
कोई मिलन मधुर देखने।
कोई नहीं जो देखें ऊपर
चिलचिलाती धूप -चौंधिया देती आंखें
कोई देख - सतर्क भी करे
कौन सुने उसकी
सब मदहोश - अपनी ही मृगतृष्णा
अपनी ही धुन
इस वीरान रेगिस्तान पर भी खींची
आड़ी तिरछी रेखाएं अनेक
लगता दूर कहीं मिल रही
पर उतनी ही अलग-थलग -
जितना भी बढ़ो

आईना सा बिछा चारों तरफ
टेढ़े-मेढ़े चेहरे उभरते
कोई छू रहा तो, कोई बातें कर रहा
आईने को कोई फर्क नहीं
स्थितप्रज्ञ अपने आप में
विकल बेकल हो रहे सब
जोश में सारा माहौल

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