Sunday, April 21, 2019

सिलसिले



सफर यह तय हो तो
सांस चैनकी लूँ।
पर मुसाफिर को - क्या पता
अजीब सी छुपी रहती
बेचैनी हर चैन में।
यह जो दिन दुपहरी
भागता फिर रहा - सपने साकार करने
ढले जो दिन तो - सुस्ता थोड़ा लूं
इसे कहां पता
सुस्ताने में ही छिपे- सपने हजार यहां
यही कर देते उतावले - आधी रात
दिन चढ़ने तक
तुम जो चुप होओ तो
मैं भी कुछ बोलूं
दीवार से खड़ी हो रही -विचारों की मेरी
ना मुझे कुछ सुने देती
ना ही बोलने तुम्हें
अजीब सा एक इंतजार
पिरोया इस सिलसिले में
ना चैन मिलता, ना सुस्ता पाता
ना सुनताना बोलता
इन्हीं के बीच से गुजरते - हम तुम
अपनी परछाई लिए।

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