Sunday, April 21, 2019

पगडंडियों का सफ़र



कैसा अजीब है
यह जनपथ
सीधी है सड़क
सामने मंजील
पर टेढ़ी मेढ़ी चाल .
कहीं देखी पगडंडीयाँ
रास्तों पर.
पर अनगिनत पगडंडीयाँ  बिछी -
इस जनपथ पर.
कोहराम सा मच जाता
पगडंडीयों  की सीमा छूने भर से.
गुम हो गया - वो मसीहा
बनाया जिसने
यह जनपथ .
अब तो सपोलों सी पगडंडीयाँ
निगलती जा रही
जाने कितने कारवां .
मंजिल तक कहाँ पहुंचा कोई.
उलझ गुम हो जाता
इन्ही पगडंडीयों में .
अनदेखी दीवारें  खड़ी
इन पगडंडीयों के बीच .
हवा तक गुजर नहीं पाती
पगडंडीयों से होकर.
घुट गया जनपथ,
बंट गया पगडंडीयों के बीच.
सजती हैं महफिले
सजते हैं मेले
पगडंडीयों पर.
पर तन्हा जनपथ.
मुखोटो में ढका जनसमुद्र
जाने कितनी बार
गुजरा समय की लहरों से
इसी जनपथ पर.

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