Sunday, April 21, 2019

नदी की केंचुली



आज फिर कह रहे हो,
नई एक कविता लिखने को -
कलम थामने को हाथ
रुक - रुक सा जाता
कंकर एक फेंकने से
दूर तक जाती है तरंगे
पर यहां तो उमड़ रहे
लहरों के रेले
जाने कहां - क्या गिरा
रुकने का नाम नहीं
कहां से लाऊं सही शब्द
बहती जा रही नदी यह
केंचुली उतार - सरक जाती आगे
इसीमें उलझे जा रहे सब
कब उतरी, विषदंति या नहीं,
क्या इस की प्रजाति, किधर की अपनी गति
सब अपने तर्कों पर - रचे जा रहे
महाग्रंथ, महाप्रपंच
शब्दों में ही उलझ गए
किसी ने नहीं देखा भाव
एक बहाव से - सब
छुप गए नदी के गर्भ।
कब बंधी कविता शब्दों से
शब्द तो बस. शून्य- उसके लिये
या फिर दो पाट हों शायद - दिशाहीन से
भाव इसके - अनंत, असीम, अपरामेय
धारा से बहे जा रहे छिप शब्दों की नदी के गर्भ
देर हे नए मोड़, नई दिशा
पाटों को कर विवश
अभी रुको - उठ रहा गर्भ से इसके
बुलबुला एक - सतह पर आने
यही भेज रहा शायद
अगिनत रेले लहरों के
उठने दो इसे जरा और
एक नया द्वीप तराशना इसे
नए बीज, नई मिट्टी - संवारेगी यह द्वीप
होगा नया कल - स्वर्णिम सवेरा
मेरी नई कविता का
संभाल कर रखना - केंचुली इसकी
आने वाले कल के लिए

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