Sunday, April 21, 2019

लगाव



वो रास्ता , जो दिखाया मुझे
दलदली रहा-
पाँव उठाये , उठते नहीं
अंदर ही  धँसता जाता |
घिरा हूँ - पेड़ों से हर तरफ 
पेड़ एक ना बन रह जाऊँ |

जंगली जानवर
लहू के मेरे प्यासे 
उन्मत्त, मतवारे |
गुजर जाती हवाएं 
सनन-सनन
सूखे पत्ते या टहनियां जर्जर 
उंगलियां छू, छिप जाती |

चले जा रहे लोग
छलनी कर कंधे, कमर और सर मेरा |
कोई बढ़ाता नहीं- हाथ अपना
अट्टहास उनका कानों में मेरे गूँजता
कोलाहल हो जाता
मिल जानवरों की उन्मादी चीखों से |
उसी दलदल की मिट्टी लगा देता -जख्मों पर अपनी
यही सोच - लहू से मेरे , कोई ना फिसले |
पर जख्म और लगा जाते
मुझपर से गुजरते - मतवारे लोग |

आँसू अपने छिपा लेता
दर्द को मुस्कुराहट में ढालता
छिपा रखा है - समुंदर एक
इन आँखों के कोनों में |
सैलाब  बन ना बह पड़े -किसी दिन
एक डर- सहमा देता मेरा दिल |

जाने क्या लगाव मुझसे
इस दलदली जमीन को 
आगोश में अपने जकड़
ना डूबने  देती - ना पार जाने |
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