वो रास्ता , जो दिखाया मुझे
दलदली रहा-
पाँव उठाये , उठते नहीं
अंदर ही धँसता जाता |
घिरा हूँ - पेड़ों से हर तरफ
पेड़ एक ना बन रह जाऊँ |
जंगली जानवर -
लहू के मेरे प्यासे
उन्मत्त, मतवारे |
गुजर जाती हवाएं
सनन-सनन
सूखे पत्ते या टहनियां जर्जर
उंगलियां छू, छिप जाती |
चले जा रहे लोग,
छलनी कर कंधे, कमर और सर मेरा |
कोई बढ़ाता नहीं- हाथ अपना
अट्टहास उनका कानों में मेरे गूँजता
कोलाहल हो जाता
मिल जानवरों की उन्मादी चीखों से |
उसी दलदल की मिट्टी लगा देता -जख्मों पर अपनी
यही सोच - लहू से मेरे , कोई ना फिसले |
पर जख्म और लगा जाते
मुझपर से गुजरते - मतवारे लोग |
आँसू अपने छिपा लेता
दर्द को मुस्कुराहट में ढालता
छिपा रखा है - समुंदर एक
इन आँखों के कोनों में |
सैलाब बन ना बह पड़े -किसी दिन
एक डर- सहमा देता मेरा दिल |
जाने क्या लगाव मुझसे
इस दलदली जमीन को
आगोश में अपने जकड़
ना डूबने देती - ना पार जाने |
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