Sunday, April 21, 2019

अलार्म



जगा देता मुझे- अलार्म
मेरी मीठी नींद से।
बजने से इसके
कोई और नहीं उठता घर में
बस करवट ले सब
फिर खो जाते स्वप्न में।
अनसुनी सी कर देते-
जैसे हर एक का हो अपना
अलग - अलग अलार्म।
उठता हूँ मैं, झल्लाता सा
सामने रख पूरा दिन अपने।
बहुत बुरा लगता कभी
जागता जब - सुनहरे सपने से।
अच्छा भी लगता कभी
जगता जब डरावने से।
कभी कभी सोने से पहले
बदलता इसके स्वर
पर नहीं बदल सकता
बजने का इसका समय।
अब तो हालात ऐसे बन चुके
छुट्टी के दिन भी जग जाता
बिना अलार्म के।
देखता हूँ छत -टकटकी लगाए
भोर होने को-इच्छा कुछ और सोने को
फिर सपनों में खो जाने को
पर नहीं जाग चुका हूँ मैं।
एक घड़ी चल रही - इर्दगिर्द मेरे
जाने कब बज उठे-अलार्म इसका।
उठ जाऊँ नींद से
ख़त्म हो जाएँ खट्टे मीठे सपने-
जगाना ही होगा मुझे
पहुँचना होगा अपने काम
समय तय है- स्वर नहीं।

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