Sunday, April 21, 2019

बिजूका



मैदान हरे भरे होते नहीं कि
रोप दिया जाता पुतला।
काला चेहरा, सफ़ेद बाल
लहलहाते बाजू, घूमती आँखें।
हवाओं का बहने का-बस करता इंतज़ार।
थिरकते कपड़ों से, बुलाता पंछी
खींचे चले आते, अनेकों -हर ओर।
और तभी-
सुन फड़फड़ाते कपड़ों की आवाज
उड़ भाग जाते-
रह जाता अकेला - बिजूका।
ऐसा ही होता रहता
धुप छाँव, वर्षा - बिजली
कोई असर नहीं इसपर।
आवारा हवाओं संग-कराहता मज़बूर,
पुतले सा खड़ा रहता- बिजूका।
लुभाता, डराता।
बैठ जाती चिड़ियायें कभी
कुछ सर पर, कुछ बाजूओं पर
कुछ चोंच मारती, कुछ पंजे चुभोती।
बेजान सा - रहता बिजूका।
संज्ञाहीन नहीं- पर संवेदनहीन।
अब तो दिखने लगे हैं
बैठते इस पर चील, कौवे
और मंडराते गिध्द सर पर।
शाम ढलते ही
डोलते हैं संपोले इर्द गिर्द।
बेबस सा अब इन्तजार रहता
हवाओं के उड़ने का
...शायद वो भी बोझिल हो चुकी हैं।

(09 June 2015)

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