Tuesday, July 21, 2015

दर्शन

दर्शन
30  04  15

कागजों पर खींच लकीरें आड़ी तिरछी
निहोरते अपलक-उभरे कोई तस्वीर
थपथपाते रहे हवाओं को बदहवास
सुनाई दे कोई संगीत।
तस्वीर कोई भी उभरे-बेखबर
सुर कोई भी सजे-अनजान।
लकीरों के बीच से -उतार लेते तस्वीर
खामोशियों से ही-सजा लेते संगीत।
अपनी ही तूली से अपने ही रंग सजाते
अपने ही शब्दों से अपनी ही तरंग।
कुछ वक्ता तो कुछ श्रोता तो कुछ दर्शक
इन्हीं का बना जमघट।

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