Tuesday, July 21, 2015

धर्म


धर्म
30  04  15
जाल एक बिछा रास्तों का
क्या गगन, क्या जमीन, क्या सागर।
मंजिल की धुन में
हर तरफ-चले जा रहे काफिले
कुछ सवार हो तो कुछ पैदल
मंजर से बेखबर।
मंजिलें कब किसे मिली
रास्ते कब किसी के हुए
फिर भी नहीं चूकते-जोर आजमाने से।
बहुआयामी बहुरंगी -चक्र एक घूम रहा
पल-पल रंग आकार नए दे रहा
कोई विस्मित,तो कोई अचंभित।
टटोलते फिर रहे हथेलियों से अपनी
हथेली जो उगा रखी पांच उंगलियाँ
बिछा रखी जाल लकीरों का
बंद हो कभी भींच जाती उंगलियाँ
ढाँप देती सारी लकीरें।
बसा नाखूनों पर- पाँच सिरों का सर्प
बँधी मुठ्ठियों की शक्ति में
कुलबुलाता, गुदगुदाता।
खुलते ही मुठ्ठी-अपना रंग दिखाता
सारे फन खोल फनफनाता
उगलता गरल विकट
कर देता सारा तन सुन्न
देख पंचमुखी सर्प - हर कोई
सम्मोहित सा उसके वशीभूत।
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