Saturday, November 23, 2013

दर्द

सागर की त ह से
उठता एक बुलबुला - नन्हा सा
ऊपर त क आते आते
बीच में कही फुट जाता l
रह जाती सि र्फ़  थर थर्राती
कं पन l
ज्वार बन फै लती
समेट सागर को 
लहरों में ढल जाती l
टूट जाती सीमाएं,
उजड़ जाती बस्तियाँ
उफन  खारी हो जाती नदियां l
सूरज धूमिल सा हो जाता,
चाँदिनी भी ओझल होती ,
हवाएं भी रुख अपना मोड़ लेतीं,
और  कहाँ अडिग रहते पर्वत l
सदियाँ बीत जाती
समेटने सिहरती एक
नन्हे बुलबुले की कम्पन l

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